Visakhapatnam Gas Leak: हम लोग हादसों से कब सबक सीखेंगे?
विशाखापट्टनम (Visakhapatnam) में जिस तरह गैस लीक (Gas Leak) होने का मामला सामने आया है और जैसे इसमें लोगों की मौत हुई है. उससे इतना तो साफ़ है कि अभी ऐसे तमाम मौके आएँगे जब हम और ऐसे कई मामले देखेंगे.
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विशाखापट्टनम (Visakhapatnam) में जो हुआ, वह पहले भी हुआ है और अगर यही हाल रहा तो आगे भी न जाने कितनी बार होगा. 1984 में भोपाल में हुए गैस काण्ड (Bhopal Gas Tragedy) को कौन भूल सकता है, वह तो औद्योगिक दुर्घटनों में सबसे बड़ी और भीषण दुर्घटना मानी जाती है. रात के अंधेरे में जो MIC का रिसाव हुआ था उसने कितने हजारों की जान ले ली थी और आज 36 वर्ष बाद भी लोग उसके असर से उबर नहीं पाए हैं. इस समय भोपाल में कोरोना (Coronavirus) से प्रभावित और मरने वालों की संख्या भी खूब है और अधिकांश मृतक गैस प्रभावित हैं. मैं पिछले तीन वर्षों से भोपाल के गैस पीड़ितों को देख रहा हूं, आज भी उनकी स्थिति दयनीय बनी हुई है और हर साल दिसंबर में ये लोग त्रासदी की बरसी पर इकट्ठा होकर थोड़ा बहुत अपनी आवाज उठाने का प्रयास भर कर पाते हैं. विशाखापट्टनम में भी यह हादसा (Visakhapatnam Gas Leak) रात दो बजे आर आर वेंकेटपुरम स्थित एलजीके पोलिमर कारखाने में गैस रिसने से हुआ.
विशाखापत्तनम में हुए गैस लीक हादसे के बाद एक बच्चे को अस्पताल ले जाता सेना का जवान
यह प्लांट सन 1961 में बना था और हिंदुस्तान पॉलिमर्स का था जिसका 1997 में दक्षिण कोरियाई कंपनी एलजी ने अधिग्रहण कर लिया था. लॉकडाउन की वजह से प्लांट काफी दिनों से बंद था और बुधवार को ही इसे दोबारा शुरू करने के लिए खोला गया था. बस फ़र्क़ यह था कि इससे रिसने वाली गैस "ईथायिल बेंजीन" है (MIC नहीं) और यह भी दम घोंट देने वाली ही गैस है.
अगर यह सांसों के जरिए शरीर में चली जाए तो 10 मिनट में ही असर दिखाना शुरू कर देती है और लोग आंखों में जलन, सांस लेने में दिक्कत, घबराहट और दम घुटने की शिकायत करने लगते हैं. हजारों की संख्या में लोग पीड़ित हैं और कई मौत के मुंह में समां चुके हैं. कोरोना के समय में हस्पतालों में इनका इलाज भी उतना आसान नहीं है, लोग डरे हुए हैं और एक दूसरे से दूर रहने में ही भलाई समझते हैं.
राज्य सरकार ने मुआवजे की घोषणा कर दी है, FIR भी लिख ली गयी है. कुछ दिन तक मीडिया में हो हल्ला मचा रहेगा क्योंकि उनको भी कोरोना से इतर कोई बड़ी त्रासदी लिखने के लिए मिल गयी है. लेकिन क्या वास्तव में हम दोषियों को सजा दिलवा पाएंगे. क्या फिर उसी तरह मुख्य आरोपियों को राज्य या केंद्र सरकार बचने में मदद नहीं करेगी जिस तरह जेम्स एंडरसन के साथ हुआ था और हमारी तत्कालीन सरकारों ने उसे सकुशल देश के बाहर पहुंचा दिया था.
इसके साथ ही एक और पहलु की तरफ गौर करना पड़ेगा जिसके चलते ये हादसे होते हैं और फिर उनपर लीपापोती कर दी जाती है. आज हमारी लाइसेंस प्रणाली में भ्रस्टाचार की इतनी गहरी पैठ है कि कोई भी लाइसेंस आप गलत तरीके से तो चुटकियों में प्राप्त कर सकते हैं लेकिन अगर उसी को आप बिना पैसे दिए सही तरीके से प्राप्त करना चाहें तो आपको नाकों चने चबाने पड़ जाएंगे, हो सकता है कि आपको कभी मिले ही नहीं.
बहुत छोटा सा उदहारण है गाड़ी चलाने के लिए मिलने वाले "ड्राइविंग लइसेंस" का जिसके लिए अगर आपने पैसे दे दिए तो आप को भले खड़ा होना भी नहीं आता हो लेकिन आप को मिल जाएगा. लेकिन अगर आप इसका टेस्ट देकर और बिना पैसा खर्च किये बनवाना चाहते हों तो आप लिख कर ले लीजिये कि आपको इतनी बार फेल किया जाएगा कि आप अपने आप पर ही शक करने लगेंगे.
अमूमन अधिकांश पुराने उद्योग आज के समय में सेफ्टी के तमाम मानकों पर शायद ही खरे उतरते हों लेकिन इनके पास पैसा है तो यह चलते रहते हैं. समय के साथ साथ इनके सुरक्षा और अन्य उपकरणों को अपग्रेड करने की जरुरत होती है और इसमें पैसा तो खर्च होता ही है, समय भी बर्बाद होता है.कभी कभी इसके चलते प्लांट को कुछ समय या कुछ दिन के लिए बंद भी करना पड़ सकता है.
अब जाहिर सी बात है कि अगर प्लांट बंद होगा तो कंपनी का उत्पादन और मुनाफा भी बंद हो जाएगा. इसके बाद खुदा न खास्ता कोई दुर्घटना घट भी गयी तो कुछ दिन तक हल्ला गुला मचने के बाद स्थिति वापस सामान्य हो जाती है. मुआवजा भी कम से कम लोगों को दिया जाता है और इसके सबसे बड़े शिकार असंगठित क्षेत्र के मजदूर ही होते हैं.
इस हादसे से सबक सीखने की जरुरत है और ऐसे सभी उद्योग जो पुराने हो चुके हैं, उनकी सुरक्षा ऑडिट करवाने की जरुरत है. मालिकों को भी सोचना पड़ेगा कि अगर इसी तरह हादसे होते रहे तो आखिर वह अपने उद्योग को किसके सहारे चला पाएंगे, मजदूर तो भागने ही लगेंगे ऐसे कारखानों से.
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