कर्जमाफी तो ठीक है लेकिन असली समस्या भी देखने की जरूरत है
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों ने मजबूरी में ही सही, गांवों और कस्बों का रुख किया. पहले सहकारी बैंक, फिर सरकारी बैंक और उसके बाद पिछले कुछ वर्षों में प्राइवेट बैंकों ने भी गांवों का रुख किया. इसका किसानों को फायदा तो मिला लेकिन नुकसान ज्यादा हुआ.
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अभी सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार की कई वजहों में से एक वजह किसानों को कर्जमाफी का वादा भी प्रमुखता से सामने आया. अब नई सरकारों ने वादे के अनुसार घोषणा भी कर दी और सरकारी मशीनरी इस काम में भी लग गयी. अब हर तरफ चर्चा है कि जो नियम इसको लेकर बनाए जा रहे हैं या जिनके बारे में कहा गया है, जैसे 31 मार्च 2018 के समय जो कर्ज बकाया थे, या सिर्फ दो लाख तक के कर्ज माफ होंगे इत्यादि, वह ठीक हैं या नहीं. खैर हर नयी योजना में कुछ लोगों को फायदा मिलता है तो कुछ को नुकसान होता है, यह तो टाला नहीं जा सकता, लेकिन क्या सिर्फ किसानों के कर्ज को माफ करना ही समस्या का सही उपचार है.
एक समय था जब किसानों को कर्ज मिलना इतना आसान नहीं हुआ करता था, सिवाए साहूकार के कोई और उसे ऋण देने के लिए तैयार नहीं होता था. और साहूकार उस ऋण के बदले अनाप-शनाप ब्याज वसूल करता था. लेकिन बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों ने, मज़बूरी में ही सही, गांवों और कस्बों का रुख किया और किसान को बैंकों की सुविधा मिलने लगी. सहकारी बैंक, फिर सरकारी बैंक और उसके बाद पिछले कुछ वर्षों में प्राइवेट बैंकों ने भी गांवों का रुख किया. इसका किसानों को फायदा तो मिला लेकिन किसी भी चीज की अधिकता नुक्सानदायक भी सिद्ध होती है और यही किसानों के साथ भी होने लगा.
बैंको ने भी किसानों को खूब ऋण बांटे और किसानों ने भी एक जमीन पर एक से ज्यादा ऋण लिए
किसान अपनी जमीन पर एक से अधिक बैंकों से भी ऋण लेने लगे और इधर के कुछ सालों में प्राइवेट बैंकों ने तो अनाप शनाप ऋण किसानों को बाटें, जिसका सीधे-सीधे उपयोग कृषि में न होकर अन्य तरीके से हुआ. किसान की आवश्यकताएं पहले बहुत सीमित हुआ करती थीं, वह भी उपभोक्तावाद के चंगुल में फंसता गया और मिलने वाले ऋण का उपयोग फसल उगाने के बदले अन्य सामान खरीदने में लगाने लगा. ऋण तो मिल गया, किसान ने उसका अनुचित उपयोग भी कर लिया लेकिन अब उसकी चुकौती के लिए पैसा कहां से आएं, यह सवाल मुंह बाकर खड़ा हो गया.
सबसे पहले तो कर्जमाफी उचित है या नहीं, इसके बारे में भी पक्ष या विपक्ष में तर्क दिये जा सकते हैं. और दोनों अपनी जगह पर ठीक भी हो सकते हैं. दुनिया के लगभग हर विकसित या बड़े देश में कृषि सरकारी सहायता पर ही चल रही है और भारत भी इसका अपवाद नहीं हो सकता. वर्षा पर आधारित कृषि जिसमें किसानों को अक्सर उनकी लागत भी वसूल नहीं होती, को मदद की सख्त जरूरत है. और इसके लिए कई चीजों पर गौर करने की आवश्यकता है, जैसे किसानों को उचित मूल्य पर खाद और बीज जरूरत के वक्त उपलब्ध हों, उनकी फसलों को उचित मूल्य मिले और फसल विक्रय की समुचित व्यवस्था हो.
किसानों के कर्ज को माफ करना ही समस्या का हल नहीं है
लेकिन अगर एक छोटी सी चीज पर ध्यान दिया जाये तो शायद किसानों की दशा में काफी सुधार आ सकता है. किसी भी किसान के लिए ऋण का सबसे सुलभ और पहला श्रोत गांव या उसके नजदीक के कस्बे का साहुकार होता है. और अमूमन वह किसी भी सरकारी या सहकारी बैंक से कई गुना ज्यादा सूद वसूलता है. किसान पहले साहूकार से ऋण लेता है फिर वह क्रेडिट सोसाइटी से ऋण लेता है और अंत में सरकारी या सहकारी बैंक के पास आता है. सरकारी बैंकों में ब्याज दर इतना ज्यादा नहीं होता है कि वह उसे चुका न सके, फिर फसल बीमा भी है जो फसल खराब होने की स्थिति में किसानों को पैसा वापस करती है (आजकल फसल बीमा का पैसा काफी बेहतर तरीके से किसानों को मिलने लगा है, पहले स्थिति इसके उलट थी). लेकिन कोई भी छोटा या मंझोला किसान अमूमन साहूकार का सूद भी नहीं चुका पाता, मूलधन की तो बात ही छोड़िए. इसका खामियाजा यह होता है कि किसान बैंक के ऋण की भरपाई करने की स्थिति में आ ही नहीं पाता.
बैंक की भी मजबूरी है कि उसे न सिर्फ कर्ज बांटना है बल्कि उसे ठीक भी रखना है (मतलब एनपीए नहीं होने देना है). ऐसे में बैंक किसान के फसली ऋण को हर वर्ष थोड़ा बढ़ाते हुए उसका नवीनीकरण करता जाता है. और कुछ वर्ष बाद आखिरकार यह ऋण अपनी परिणति को प्राप्त हो जाता है (एनपीए बन जाता है). इन साहूकारों पर कहने के लिए तो बहुत से कानून हैं लेकिन हकीकत में इनके ऊपर किसी का भी अंकुश नहीं है. अगर सरकार किसानों को इन साहूकारों के चंगुल से निकलवा सके तो शायद किसान अपना ऋण समय पर चुकाने लायक हो जाएगा और इस राजनैतिक प्रोपगण्डा की जरूरत नहीं रह जाएगी.
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