एक नेशनल प्लेयर का मर जाना और जश्न
यदि आप पीवी सिंधू, साक्षी मलिक और दीपा कर्माकर की कामयाबी का जश्न मना रहे हैं तो इस नेशनल प्लेयर का सुसाइड नोट मत पढिएगा, मूड खराब हो जाएगा. क्योंकि इस खबर में कुछ कड़वे सवाल भी हैं.
-
Total Shares
क्या इसे महज एक संयोग मान लिया जाए कि एक तरफ पूरा देश साक्षी मलिक, पीवी सिंधु और दीपा कर्माकर जैसी प्लेयर्स के स्वागत में पलकें बिछाए बैठा है और वहीं दूसरी तरफ पंजाब में एक नेशनल प्लेयर को अपनी जान देनी पड़ गई. वह भी चंद रुपयों की खातिर. सरकार द्वारा मिलने वाली सुविधाओं के खातिर. अपने हक के खातिर.
नहीं, यह संयोग नहीं हो सकता. यह भारत की पूरी सरकारी व्यवस्था पर एक जोरदार तमाचा है. वह भी एक ऐसे प्लेयर द्वारा जो भारत का भविष्य थी. तमाचा एक सही मौके पर, ताकि लोग भारतीय खिलाड़ियों के हालात से परिचित हो सकें. सिर्फ इस बात पर प्रलाप करने वालों के लिए भी यह तमाचा है जो हर समय यह बोलते हैं कि करोड़ों हिंदुस्तानियों में से सिर्फ एक-दो पदक? जी, यही हकीकत है कि क्यों हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चंद पदकों पर सीमित रहते हैं.
इसे भी पढ़ें: ओलंपिक में एक-दो मेडल से कब तक संतोष करता रहेगा भारत?
खून से मोदी को लिखा खत (फोटो: ट्विटर ट्रिब्यून) |
पूरा देश जहां सिंधू और साक्षी की जीत के जश्न में शरीक था, वहीं पंजाब के सबसे बड़े शहर पटियाला में एक नेशनल प्लेयर अपनी जिंदगी को खत्म करने की तैयारी कर चुकी थी. हैंडबॉल की इस नेशनल प्लेयर का नाम था पूजा कुमारी. ग्रेजुएशन सेकेंड ईयर की यह होनहार प्लेयर इसलिए परेशान थी कि उसे अपने भविष्य की चिंता थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित सुसाइड नोट में उसने कई गंभीर सवालों को जन्म दिया है. उसने बताया है कि कैसे उसे अपनी गरीबी के बीच पढ़ाई करनी पड़ रही थी और कैसे हमारे सिस्टम ने उसे मदद देने से इनकार कर दिया है. ऐसे में उसके पास सिर्फ एक विकल्प है कि वह इस दुनिया को अलविदा कह दे. प्रधानमंत्री को लिखे खत में उसने कहा है कि आप यह व्यवस्था जरूर कर दें कि भविष्य में मेरे जैसी कोई गरीब लड़की धन के अभाव में ऐसा कदम न उठाए.
प्रधानमंत्री के नाम पूजा का सुसाइड नोट (फोटो; ट्विटर ट्रिब्यून) |
पूजा अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उसने ऐसे वक्त में आत्महत्या जैसा कदम उठाया है वह मंथन का विषय है. भारतीय परिवेश में जब एक प्लेयर अपने करियर के प्रति आशंकित हो, महज हॉस्टल का एक रूम लेने के लिए परेशान हो, ऐसे देश में हम खिलाड़ियों से कितने मेडल की उम्मीद कर सकते हैं. जहां हर एक खिलाड़ी को अपने भविष्य की चिंता सता रही हो, जहां खिलाड़ी इस बात से परेशान हो कि उसकी डाइट की व्यवस्था बिना पैसे के कहां से होगी, वहां हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल्स की झड़ी लगा देने की बात कैसे कर सकते हैं.
वह तो भारत मां की मिट्टी में इतना हौसला और दम है कि यहां के प्लेयर अपने बलबूते बहुत कुछ हासिल कर ले रहे हैं. जो प्लेयर हमें गौरवांवित होने का मौका दे रहे हैं, जरा उनका बैकग्राउंड खंगालने की भी जरूरत है. बैकग्राउंड इसलिए ताकि हम देख सकें कि जिमनास्टिक जैसे खेल में जब एक भारतीय खिलाड़ी पूरे विश्व का ध्यान खींचती है तो किन परिस्थितियों में उसने यह मुकाम हासिल किया है. ट्रैक एंड फील्ड के फाइनल में जब कोई प्लेयर अपना स्थान बनाती है तो हमें देखना जरूरी है कि उसने दौड़ने के लिए कितनी भागम-भाग की है. सलाम है इन हौसलों को.
इसे भी पढ़ें: शुक्रिया गोपी! लड़ना सिखाने के लिए...
जिस देश में सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत एक खिलाड़ी पर साल भर में सिर्फ 18 से 20 हजार रुपए खर्च करने की व्यवस्था हो वहां हम खिलाड़ियों से कितनी उम्मीद कर सकते हैं. यह भी सच है कि तमाम सरकारी विभागों में स्पोर्ट्स कोटे से नौकरी का प्रावधान होना भी स्पोर्ट्स के प्रति लगाव का बड़ा कारण है. ऐसे में मंथन करना जरूरी हो जाता है कि क्यों एक खिलाड़ी पर अपने भविष्य की इतनी चिंता का दायित्व होता है. क्यों एक समय बाद हमारे खिलाड़ी खेल छोड़कर हाथों में अपना स्पोर्ट्स सर्टिफिकेट लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते रहते हैं ताकि उन्हें कोई छोटी-मोटी नौकरी मिल सके. रेलवे की सरकारी नौकरी में सैकड़ों ऐसे खिलाड़ी मिल जाएंगे जिन्होंने अपने समय में नेशनल या इंटरनेशनल लेवल पर अपना जलवा दिखाया होगा. पर महज चंद रुपयों की खातिर फोर्थ ग्रेड की नौकरी करने को मजबूर हैं. कई जगह वो कूड़ा उठाने और रेलवे कोच की सफाई करते हुए भी मिल जाएंगे.
इसे भी पढ़ें: हे भारत के ओलिंपिक ऐसोसिएशन तुमने सलमान खान में क्या देखा?
हम चीन, जापान और अमेरिका से अपने देश के खिलाड़ियों की तुलना करते हैं. पर यह भूल जाते हैं कि उन देशों में नेशनल लेवल के खिलाड़ियों का क्या रुतबा होता है. उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती है कि उनका परिवार कैसे चलेगा. उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती है कि खेल के साथ-साथ उन्हें नौकरी के लिए एकेडमिक डिग्री भी लेनी है. उन्हें सिर्फ यह सिखाया जाता है कि बस खेलो. खेलते रहो. यह मंथन का वक्त है कि एक तरफ पटियाला की पूजा है, वहीं दूसरी तरफ सिंधु और साक्षी हैं. पूजा महज 3720 रुपए महीने का जुगाड़ कर पाने में सक्षम नहीं हो सकी. वहीं, मेडल जीतने वाली सिंधु और साक्षी पल भर में करोड़पतियों में शुमार हो गर्इं.
यह कैसी व्यवस्था है. मेडल लाने के लिए अपने दम पर जाओ, जब मेडल जीत लोगी तब हम तुम्हें मालामाल कर देंगे. तुम्हें हीरे और सोने में तौल देंगे. अपने दम पर सुविधाएं जुटाओ, डाइट की व्यवस्था करो, जब जीत कर आओगे तब तुम्हें सबकुछ देंगे. क्या इस व्यवस्था पर कोई मंथन करेगा, ताकि पूजा जैसी किसी होनहार प्लेयर को सुसाइड न करना पड़े. क्या कोई ऐसा सिस्टम डेवलप हो सकेगा जिसमें हमारे खिलाड़ी भी सिर्फ अपनी पेट के खातिर न खेलें. वह मेडल हासिल करने के लिए खेलें. सिर्फ खेलें और खेलते रहें. आइए साक्षी और सिंधु का हम स्वागत करें क्योंकि उन्होंने हमें गौरवांवित होने को मौका दिया है. पर जश्न के इस माहौल में पूजा को नहीं भूलें, क्योंकि हैंडबॉल की नेशनल प्लेयर पूजा ही हमारी सच्चाई है. हमारे सिस्टम की सच्चाई है.
आपकी राय