भारत में खेलना फिर खिलाड़ी का देश के लिए मेडल लाना आसान तो किसी सूरत में नहीं है!
ओलंपिक में भारत के प्रदर्शन के बात तरह तरह की बातें उठ रही हैं ऐसे में ये बताना बहुत जरूरी है कि किसी खिलाड़ी को मेडल दिलवाना किसी नेता के बस की बात नहीं है.मेडल का सीधा सच्चा संबंध उस खिलाड़ी से है जो चलते टाइमर पर निगाह टिकाए अपनी बारी का इंतज़ार करता हुआ नर्वस हो रहा है.
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किसी अनुराग ठाकुर या किरण रिजिजू, या अमित शाह, या नरेंद्र मोदी के बस की नहीं है कि वह ओलंपिक क्या एशियन गेम्स में भी कोई मेडल दिलवा सकें. मेडल दिलवाना किसी नेता के बस का है ही नहीं. मेडल का सीधा सच्चा संबंध उस खिलाड़ी से है जो चलते टाइमर पर निगाह टिकाए अपनी बारी का इंतज़ार करता हुआ नर्वस हो रहा है. वो नर्वस होना, अपना नंबर आने पर नर्वसनेस को किनारे कर अपने पोटेनशियल का 110 प्रतिशत देना और टाइम खत्म होने से पहले, चाहें वो एक सेकंड ही क्यों न बचा हो; हार न मानना मेडल दिलाने में योगदान देता है. लेकिन, इस ग्राउंड तक पहुंचने तक का रास्ता किस पगडंडी से होकर आता है?
मैं बताता हूं. पहले कुछ फेमस डायलॉग्स नोश फरमाए–
'ठीक है, बैडमिंटन चाहिए, दिला देंगे, लेकिन पहले 10th में 80% लाकर दिखाओ.' (जैसे 50% आए तो आधा बैट ही मिलेगा.)
'बैट मिल जायेगा लेकिन पहले प्रामिस करो कि 12th में डिस्टिंगक्शन लाओगे!' (मानों प्रामिस तोड़ देने पर बैट वापस छीनकर उससे कपड़े कूटे जाएंगे)
'एथेलीट बन सकते हो तुम, दौड़ते अच्छा हो, एक काम करो, आर्मी या रेलवे में स्पोर्ट्स कोटे से जॉब मिल जाए तो जॉइन कर लो, कम से कम फ्यूचर तो सिक्युर हो जायेगा.' (वर्ना ससुर की बेटी से ब्याह कैसे होगा?)
'शर्म आनी चाहिए तुझे, देख तेरे साथ ही पढ़ता रोहित 94% लाकर टॉप कर गया और तू सारा दिन ये बॉक्सिंग रेसलिंग में टाइम बर्बाद करके 80 पर अटक गया. आज से तेरा टीवी बंद.' (कल मिले तो सही साला रोहित, सीधे नाक पे मुक्का खायेगा.)
ये अपने में दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम भारतीय कभी कहां की तरफ गंभीर ही नहीं हुए
क्या हुआ? कोई बीती बात कानों में बज रही है? हमारी सिम्पल सोच यही कहती है कि जो भी करना है कर लो पर पहले पढ़ाई पूरी करो! आप मुझे बस ये बताइए कि क्या है पढ़ाई? किस पढ़ाई को पढ़ाई पूरी करना कहते हैं आप? वो पढ़ाई जो एक अदद नौकरी लगवा देती है? वही न? तो आपको बता दूं कि सरकारी तो छोड़िए, पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा अनएम्प्लॉयड ग्रेजुएट हमारे देश में हैं. नहीं-नहीं आप इसलिए पढ़ाई पूरी कराना चाहते हैं कि नॉलेज मिले (हालांकि ये झूठ है.)
तो ये भी बता दूं कि दुनिया में सबसे कम कॉमन सेंस रखने वाले ग्रेजुएट भी हमारे देश में है. बाकी बात रही ज्ञान की, तो संगीत मे लिया ज्ञान ज्ञान नहीं होता? म्यूजिक सीखना पढ़ाई नहीं है? या क्रिकेट सीखना पढ़ाई नहीं है? एक क्रिकेटर का प्रैक्टिस सेशन क्या 12वीं करते बच्चे के लैब में प्रैक्टिकल करते बच्चे से भिन्न हो जाता है? कैसे?
आपको लेटेस्ट उदाहरण देता हूं. मेरी कलीग ने मुझे बताया कि उसका भाई क्रिकेट में घुसा रहता है, मैंने तो कह दिया कि पहले पढ़ ले फिर अकैडमी में एडमिशन करा दूंगी! सीरीअसली? जिसका मन क्रिकेट में है वो कैसे अच्छे मार्क्स लाकर पढ़ाई पूरी करेगा? और अगर खुद को धक्का मार पढ़ भी लिया तो फिर क्रिकेट अकैडमी कब जॉइन करेगा? 25 साल की उम्र में?
चलिए ये तो पर्सनल किस्सा हुआ, जेमी लिवर को जानते हैं न? हांजी कॉमेडी किंग जॉनी लिवर की बेटी. अभी हाल ही में उनसे बात हुई तो उन्होंने बताया कि ग्रेजुएशन ही नहीं, पोस्ट ग्रेजुएशन और जॉब करने के बाद फाइनली मम्मी पापा से मंज़ूरी मिली कि ठीक है एक्टिंग करनी है तो कर लो. इन सबमें कितनी उम्र निकल गई उनकी? कोई 26 साल? जबकि 16 साल की उम्र से ऐक्टिंग में इन्टरिस्ट था.
एक डायलॉग और है जो यकीनन सबने सुना होगा कि 'खेल-कूद, गीत-संगीत, लिखना-पढ़ना ये सब शौक तक ठीक है, बाकी इसमें कोई फ्यूचर नहीं है'. तो मोहतरम, फ्यूचर होता नहीं है, उसे बनाना पड़ता है. उदाहरण लीजिए, जिस क्रिकेटर को आज भगवान के बाद सबसे बड़ा प्लेयर मानते हैं उसे जॉब सिक्योरिटी के लिए रेलवे में धक्के खाने पड़े थे. जिसकी वजह से उसका सिलेक्शन 3 साल देरी से हुआ. सोचिए महेंद्र सिंह धोनी अगर 2003 वर्ल्डकप में होता तो? इस शख्स के लिए तो कह सकते हैं न कि इसने देश की क्रिकेट टीम का फ्यूचर बनाया है.
आप आम पूछते फिरते हैं न आपस में कि ये ऑस्ट्रेलिया लगातार इतने वर्ल्डकप कैसे जीती या आज चीन और अमेरिका इतने गोल्डस कैसे बटोर लेते हैं तो जनाब वहां 5 साल के बच्चे को स्पोर्ट्स अकैडमी में भेजा जाता है. जो सोना आप स्कोर बोर्ड पर देखते हैं उसकी जीत का सिलसिला उसी 5 साल की उम्र से शुरु किया जाता है. इसलिए ओलिम्पिक में सोना चाँदी कांसा चाहिए तो दिल बड़ा करिए, पढ़ाई का सही अर्थ समझिए. बच्चा जो भी कुछ सीख रहा है वो पढ़ाई का हिस्सा है और ये सीखना, ये पढ़ना कभी खत्म नहीं होने वाला.
अब मैं उस नर्वसनेस पर वापस आता हूं. मीराबाई चीनू, लोवलीना, पीवी संधु, पूरी इंडियन मेन एण्ड वुमन हॉकी टीम, सतीश कुमार, या हमारा आज का स्वर्ण विजेता नीरज चोपड़ा के नर्वस होने का सबसे बड़ा कारण ये होता है कि नहीं जीते तो फिर उसी नौकरी पर लौटना होगा. किसी को बच्चे की फीस देनी है तो किसी को घर का राशन डलवाना है. सबपर खेल के अलावा ढेरों ज़िम्मेदारियां पहले से हैं.
यहां अच्छी सरकार और प्रशसन की ज़रूरत होती है. जो हौसलाअफ़ज़ाई के साथ साथ बेहतर सुविधाएं भी दे सके और स्पोर्ट्सपर्सन को आर्थिक चिंता से मुक्त भी कर सके ताकि अपने स्पोर्ट्स के प्रति बढ़ावा मिल सके.आज जो आप ओलिम्पिक में परफॉरमेंस देख रहे हैं इन एथलीट्स को यूरोप में प्रैक्टिस करने के लिए भेज गया था. इन खिलाड़ियों को आर्थिक सुरक्षा दी जा रही है.
इस बार हम ओलंपिक गेम्स में अभी 47वें नंबर पर आ चुके हैं. जबकि सही मायने में हम अभी तक तो हम जागे ही नहीं थे. जैसे हम 83 वर्ल्डकप से पहले क्रिकेट के प्रति जागरुक नहीं थे. जब कपिल देव कप लेकर आए तो क्या हुआ? हर मुहल्ले से एक क्रिकेटर दे सकें ऐसा माहौल बन गया और भारत टॉप थ्री में या गया.
इस बार का ओलिम्पिक भी वही कर रहा है, बॉक्सिंग में हार ज़रूर गए पर क्या हुआ, हम इस बार कम से कम क्वालफाई तो कर पाए. वर्ना बॉक्सिंग, फुटबॉल, एथलेटिक्स के दर्जनों गेम्स में तो हम क्वालिफ़ाई ही नहीं कर पाते थे.
मैं आपको लिख के देता हूं कि इस बार के ओलंपिक में भारत का प्रदर्शन अगले 12 साल की तैयारी की नींव बना है. ये जो हम टॉप 50 में दिख रहें है न, अगली ही बार हम टॉप 20 में चमकेंगे और वो दिन दूर नहीं होगा जब मेरा सपना सच होगा, भारत का ध्वज ओलिंपिक्स में शीर्ष पर दिखाई देगा.
ये मेरा आती आत्मविश्वास नहीं है बल्कि मेरा भरोसा है क्योंकि न हमारे देश में टैलेंट की कमी है न जोश की, बस कमी थी तो अच्छी नियत की और नियत अब बदल रही है. अब घरों में क्रिकेट के सिवा भी स्पोर्ट्स के प्रतिजागरुकता आ रही है. एथलीट नीरज के गोल्ड के लेकर मीराबाई और लोवलीन से होते हुए हॉकी टीम संग बॉक्सर सतीश के डाई-हार्ड एफर्ट्स को भी बधाई. आप सबने एक चिंगारी लगा दी है, अगली पीढ़ी इसी चिंगारी से देखना मशाल अगली बनायेगी.
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