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Updated: 11 अक्टूबर, 2016 08:33 PM
सुशांत झा
सुशांत झा
  @jha.sushant
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मेरे मित्र इस बात से दुखी हैं कि दिल्ली का रावण(रामलीला वाला!) दिन ब दिन नाटा होता जा रहा है. एक जमाने में रावण बहुत लंबा होता था, आज का रावण लगता है कुपोषण से ग्रस्त होता जा रहा है. डीलडौल भी छोटा. कहते हैं कि रावण का बच्चा भी इससे बड़ा होता होगा. मेरे मित्र दिल्ली के ही रहने वाले हैं और रामलीला का खासा अनुभव रखते हैं. उनका मानना है कि पहले का रावण अकेले नहीं फूंका जाता था, साथ-साथ में तीन-तीन पुतले होते थे. आज के रावण को लोग अकेले भी फूंके जा रहे हैं.

रावण की तमाम वीआईपी-नेस खत्म होती जा रही है. रावण पर कोई मेहनत ही नहीं की जा रही है. लगता है कि रावण न बनाकर "मैगी" तैयार कर रहे हों, या फिर फेसबुकिया रावण का कोई ट्विटर वर्जन सामने हो.

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रावण पर पहले जैसी मेहनत ही नहीं की जा रही है

मैंने कहा कि इसका कारण क्या है? कहीं बाजार तो नहीं? तो उनका जवाब है,'नहीं, रामलीला का असर तो वैसे ही है. लोगबाग अभी भी खूब देखने जाते हैं. पैसा भी चढ़ाते हैं, चंदा भी खूब होता है. लेकिन संचालक-गण कॉस्ट-कटिंग कर रहे हैं'.

इतना बेचारा, इतना अकेला रावण इतिहास में इससे पहले कभी नहीं देखा गया. लगता है रावण, रावण न होकर किसी हिंदी फिल्म का बेचारा, बेरोजगार, बे-यार और बे-महबूबा नायक हो. रावण उदास होता जा रहा है. पहले का रावण ट्रक में नहीं अंट पाता था. लेकिन आज के रावण को टेम्पो में सवार कर दिया जाता है.

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उनका ये भी मानना है कि बाजार का असर तो हुआ है, लेकिन जितना दीवाली पर हुआ है उतना रामलीला पर नहीं. अभी भी रामलीला या होली पर बाजार का असर कम है- वो पब्लिक एक्सप्रेशन है, स्वत:स्फूर्त है. हां, दीवाली या ईद पर जरूर बाजार हावी हुआ है. लोगबाग महंगाई की वजह से उसे मनाने में शिकन महसूस कर रहे हैं.

मेरे मित्र का ये भी कहना है कि रावण को देखकर अब वो शानो-शौकत या गुमान नहीं झलकता जो पहले झलकता था. लगता है लोग तुरत-फुरत और खानापूर्ति के चक्कर में रावण के साथ अन्याय करते जा रहे हैं. ऐसा लगता है कि हमारा रावण, गंभीर साहित्य से लुग्दी साहित्य में बदल गया है या फिर वन-डे से 20-20 हो गया है.

मैंने पूछा कि क्या पब्लिक में धार्मिकता और आस्था कम हुई है? उनका कहना है कि भीड़ देखकर ऐसा नहीं कहा जा सकता. कमेटियों के पास माल की भी कमी नहीं है. लेकिन ऐसा लगता है कि संचालक-गणों की आस्था और धार्मिकता जरूर डोल गई है. उनमें प्रोफेशनलिज्म ज्यादा आ गया है. वे सोचते हैं कि क्या फर्क पड़ता है कि रावण की लंबाई 50 फीट से घटाकर 30 फीट कर देने में? वे यह जानते ही नहीं कि कम लंबाई का रावण हिंदी फिल्मों की मुकरी टाइप का लगता है, जबकि रावण तो अमरीश पुरी या अमजद खान जैसा दिखना चाहिए.

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अगर ये सब जारी रहा तो कोई ताज्जुब नहीं कि आनेवाले समय में पब्लिक ये कहे कि रावण इतना ही बड़ा रहा होगा और बाल्मीकि ने जो जिक्र किया है वो सही नहीं है. रावण के दिन ऐसे खराब होगें, इसकी उम्मीद खुद त्रिकालदर्शी रावण ने नहीं की होगी. घोर कलयुग इसे नहीं तो किसे कहते हैं? रावण के कद को थामना जरूरी है. देश का कद रावण के कद से अलग नहीं है!

लेखक

सुशांत झा सुशांत झा @jha.sushant

लेखक टीवी टुडे नेटवर्क में पत्रकार हैं.

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