एक व्यंग्यकार का खुद को खुला पत्र
आज के समय में हर कोई व्यंग्य लिख अपने को व्यंग्यकार समझ रहा है. ऐसे में एक व्यंग्यकार का खुद को लिखा ये खत बताता है कि व्यंग्य लेखन बेहद जिम्मेदारी का काम है.
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प्रिय अनूप जी उर्फ़ व्यंग्यकार महोदय
क्या लिखते हो! क्या मतलब क्या लिखते हो यार. प्रिय औपचारिकता में लिखा है. दिल से मत लेना. आप व्यंग्यकारों ने नेताओं से ज्यादा गन्ध मचा रखी है. वे वोट बैंक के पीछे मरे जा रहे हैं और आप पंच बैंक के पीछे. हर बात पर व्यंग्य लिख मारते हो यार आप तो! हद है. इधर घटना हुई नहीं कि व्यंग्य. बारिश हुई नहीं की आपका व्यंग्य बरसा, धूप हुई तो आपका व्यंग्य छितरा, पकौड़ी पर व्यंग्य, चाय पर व्यंग्य,चटनी पर व्यंग्य, कभी कभी लगता है कि घटना- दुर्घटना आप से आकर कहती है कि सर आप लिख लो तो हम हो जाएं.
व्यंग्य की सबसे खास बात ये है कि इसके लिए लेखक को चीजें महसूस करनी होती हैं
लिखते कहाँ हो, ऐसा लगता है कि व्यंग्य तुम्हारे बदन में चिपके हुए हैं, बस झार देते हो. कसम खुदा की. अब तो व्यंग्य से खौफ खाने लगाहूं. (हूं के आगे पूर्ण विराम है, ध्यान देना!) व्यंग्य लिखने के चक्कर में खिल्ली उड़ाने लगे हो भाई. रहम करो पाठकों पर. हर बात पर व्यंग्य. हँसी उड़ाते -उड़ाते आप खुद हल्के हो गए हैं साहब. व्यंग्य को आपने विलासिता बना दिया है. आप सब की वजह से जिसे देखो, वही मुंह उठाये व्यंग्य लिखने चला आ रहा है. अभी दो -चार लिखे नहीं कि लगा फतवा देने. परसाई ऐसे तो जोशी वैसे.
मनों- टनों लिखने के बाद भी न विचारधारा पता चलती है न प्रतिबद्धता, न जीवन बोध, न दृष्टिकोण. व्यंग्य की खातिर परसाई को अपनी टांग तुड़वानी पड़ी, तुम तो व्यंग्य को ही लंगड़ा बना रहे हो मेरे भाई. जोशी जब मरे तो जानते हो उनके अकाउंट में कितनी धनराशि थी. लिखने के पीछे ही जोशी को भोपाल तक छोड़ना पड़ा और एक तुम हो बस एफबी पर एकाउंट खोल कर कुछ भी चेंपने लगे तो बन गए लेखक.
लेखक बन कर किसको ठग रहे हो व्यंग्यकार बाबू? तुम चटखारेबाज़ हो. निरा चटखरेबाज. डकार लेने के बाद व्यंग्य का फाका मारते हो. न कोई राजनीतिक-सामाजिक समझदारी देते हो, न ही तो कोई संकल्प. प्रतिष्ठान विरोधी हो कर मिष्ठान खाने की चाह रखते हो तुम. माफ़ करना, तुम्हारे लेखन में चोट से ज़्यादा खोट दिखता है. लिखने के लिए तुमने अपने फोन में बस डाटा भरवाने की जहमत उठाई है. आज तुम्हारे लिए सबसे बड़ी त्रासदी नेट धीरे चलना है. तुम्हें जाति दंश से जले गॉव नहीं दिखते. तुम्हें नंगे किसान नजर नहीं आते. तुम्हें सत्ता की जनविरोधी नीतियां नहीं दिखती. तुम्हें विसंगतियों की व्यापकता नहीं व्याप्ति.
कहा जा सकता है कि आज व्यंग्य शालीन के मुकाबले फूहड़ ज्यादा है
तुम सनी लियोनी पर लिखते हो, मल्लिका पर लिखते हो, राखी सावंत पर लिखते हो. तुम्हें उसके पीछे का खेला रचने वाले पर नही दिखते. न फिल्म राइटर, न कैमरा मैन, न डायरेक्ट. उस पर तुर्रा बाजारवाद का. बाजार पर लिखते-लिखते तुम बाजारू हो गए हो. पता है! तुम खुद भी एक बाजार हो गए हो. एहसास है, कोई भी तुमसे कभी भी किसी मौके के लिए एक ठू 'पीस' ले सकता है. अरे बाजारवाद का बहाना लेना छोड़ो अब. मानो तुम अब एक रक्कासा हो. आइटम सॉन्ग से ज्यादा कुछ नहीं.
लिखने से अपने को आप ने लेखक मान लिया. हद है. जितनी सुविधा इधर है उतनी किधर भी नहीं! बल्लेबाज को रन बनाना पड़ता है, नेता को चुनाव जीतना पड़ता है, पर तुम लोग का अच्छा है. लिखते रहो, बस लिखते रहो, तो लेखक हो जाता है. अब तो इतने अखबार हो गए हैं उतने तो शरीर में रोएं भी नहीं. 'हवस टाइम्स', 'घर का समय', 'दुनिया चीत्कार', तौबा ! तौबा! ऐसे समाचार पत्रों को तो माल चाहिए ही होता है. और आप वहाँ ठासने लगे. बन गए लेखक. व्यंग्यकार बाबू, उतारने लगे नेकर सबकी. कभी खुद को देखा है.दुखिया दास कबीर जागे और रोए. बुरा मत मानना. ऐसा लगता है कि सोते सोते ही लिखने लगे हो. बुरा जो देखन मैं चला,याद है.व्यंग्य लेखन की अपनी चुनौतियां हैं किसी भी व्यंग्यकार के लिए ये जिम्मेदारी का काम है इतना, हर बात, हर जगह लिखने लगे हो, लिखते लिखते व्यंग्य की रूह फ़ना कर दी है, भंगिमा ही मार दी है तुमने. तुकबंदी बैठाते हो. विसंगति पर लिख कर विसंगति से संगति बैठाते हो. और जब तुम लिखते हो न. झमझम टाइम्स में प्रकाशित होने वाले कॉलम में पढ़िए आज का मेरा व्यंग्य. कसम खुद की खून खौल जाता है. जी में आता है कि तुमरी वॉल ही ढहा दें. बालिश्त भर जगह में तुम्हारी छाती 65 इंच फूल जाती है. कितने छिछले हो यार तुम! कसम से.
अच्छा यह बताओ लिखते काहे हो. अब यह मत कहना लिखना मेरा पैशन है, लप्पड़ मार देंगे. और कहीं यह कह दिया कि परिवर्तन के लिए लिखते हो तो आज से ही तुम्हें पढ़ना बंद किये देते हैं. मैं बताऊँ तुम मजे के लिए लिखते हो. तुम लाइक के लिए लिखते हो. तुम आम आदमी की बात कर के विशेष बनने के लिए लिखते हो. तुम फॉलोवर बनाने के लिए लिखते हो. तुम रौब जमाने के लिए लिखते हो. तुम छपने के लिए लिखते हो.
मगर व्यंग्यकार बाबू, एक बात जान तो तुम. कहे देते हैं. तुम प्रकाशित होते हो,पर प्रकाशित नहीं करते हो. तुम छपते तो हो, मगर छाप नहीं छोड़ते. जानते हो क्यों? और बाबूजी. 'असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे अगर सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेचकर या वेश्याओं की दलाली करके रोजी कमाने में कोई फर्क नहीं है'. हाँ, यही जो धूमिल ने कहा है.
चलते-चलते एक बात कहूँ. - 'व्यंग्य कोई फिलर नहीं' तुम्हारा एक भूतपूर्व पाठक!
अनूप मणि त्रिपाठी
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