Indian Penal Code की धारा 124 ए में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता ज, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ देश के संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके ऊपर भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए लगेगी. वहीं यदि कोई व्यक्ति देश विरोधी संगठन के साथ अनजाने में भी संबंध रखता है या अपने स्तर से किसी ऐसी एक्टिविटी में सहयोग देता है तो वो भी नपेगा और राजद्रोह के दायरे में आएगा. जो कानून के जानकार हैं उन्हें तो पता ही होगा. लेकिन जो नहीं जानते जान लें कि, IPC की धारा 124 ए को राजद्रोह वाली धारा कहते हैं. भगवान न करे कोई यदि जाने अनजाने इसकी चपेट में आ गया तो उसकी लंका जो लगेगी बताया नहीं जा सकता. चूंकि राजद्रोह गैर जमानती है इसलिए व्यक्ति न तो सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई कर सकता है और न ही उसका पासपोर्ट बन सकता है. बल्कि उसे मौके बेमौके कोर्ट में जरूर हाजिरी लगानी पड़ेगी.
अब जाहिर है कि जब आपने राजद्रोह के मद्देनजर इतनी बातें सुन ली हैं तो तमाम तरह के सवाल भी करेंगे और पूछेंगे कि जब जेएनयू, एएमयू, जामिया, उस्मानिया में छुट्टी चल रही है और अधिकांश छात्र Studies from Mobile और laptop कर रहे हों तो हमें कौन सी चुल्ल मच गई जो आपको राजद्रोह और उससे जुड़ी सजा के बारे में बता रहे हैं.तो भइया और दीदियों हमनें ऐसा किया इसके पीछे की वजह देश का सर्वोच्च न्यायालय है.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई की है. सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने सेडिशन के मद्देनजर तमाम ऐसी बातें कर दी हैं जो सख्त...
Indian Penal Code की धारा 124 ए में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता ज, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ देश के संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके ऊपर भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए लगेगी. वहीं यदि कोई व्यक्ति देश विरोधी संगठन के साथ अनजाने में भी संबंध रखता है या अपने स्तर से किसी ऐसी एक्टिविटी में सहयोग देता है तो वो भी नपेगा और राजद्रोह के दायरे में आएगा. जो कानून के जानकार हैं उन्हें तो पता ही होगा. लेकिन जो नहीं जानते जान लें कि, IPC की धारा 124 ए को राजद्रोह वाली धारा कहते हैं. भगवान न करे कोई यदि जाने अनजाने इसकी चपेट में आ गया तो उसकी लंका जो लगेगी बताया नहीं जा सकता. चूंकि राजद्रोह गैर जमानती है इसलिए व्यक्ति न तो सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई कर सकता है और न ही उसका पासपोर्ट बन सकता है. बल्कि उसे मौके बेमौके कोर्ट में जरूर हाजिरी लगानी पड़ेगी.
अब जाहिर है कि जब आपने राजद्रोह के मद्देनजर इतनी बातें सुन ली हैं तो तमाम तरह के सवाल भी करेंगे और पूछेंगे कि जब जेएनयू, एएमयू, जामिया, उस्मानिया में छुट्टी चल रही है और अधिकांश छात्र Studies from Mobile और laptop कर रहे हों तो हमें कौन सी चुल्ल मच गई जो आपको राजद्रोह और उससे जुड़ी सजा के बारे में बता रहे हैं.तो भइया और दीदियों हमनें ऐसा किया इसके पीछे की वजह देश का सर्वोच्च न्यायालय है.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई की है. सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने सेडिशन के मद्देनजर तमाम ऐसी बातें कर दी हैं जो सख्त से सख्त इंसान को इमोशनल कर दे. पीठ ने कहा है कि यह महात्मा गांधी, तिलक को चुप कराने के लिए अंग्रेजों की ओर से इस्तेमाल किया गया एक औपनिवेशिक कानून है.
फिर भी, आज़ादी के 75 साल बाद भी क्या यह जरूरी है? उदाहरण देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने तो यहां तक कह दिया है कि यह ऐसा है जैसे आप बढ़ई को आरी देते हैं, वह पूरे जंगल को काट देगा. यह इस कानून का प्रभाव है. मुख्य न्यायाधीश के अनुसार उनकी चिंता कानून के दुरुपयोग को लेकर है. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सरकार पहले ही कई बासी कानूनों को निकाल चुकी है. उन्होंने सवाल किया कि आखिर सरकार इसकी तरफ देख क्यों नहीं रही.
वहीं अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने सरकार का पक्ष रखते हुए इस बात पर बल दिया है कि पूरे कानून को निकालने के बजाय इसके इस्तेमाल के लिए कुछ पैरामीटर निर्धारित किये जा सकते हैं. ज्ञात हो कि जुलाई 2019 में बहुत साफ लहजे में सरकार की तरफ़ से इस बात की पुष्टि कर दी गई थी कि सरकार किसी भी सूरत में राजद्रोह कानून को खत्म नहीं करेगी. कानून के बचाव में सरकार का तर्क था कि राष्ट्र विरोधी, पृथकवादी और आतंकवादी तत्वों से 'कायदे' से निपटने के लिए इस कानून की बहुत जरूरत है.
गौरतलब है कि राजद्रोह के मद्देनजर मैसूर के मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली थी और उपरोक्त टिप्पणी कोर्ट ने इसी याचिका को ध्यान में रखते हुए की है. याचिकाकर्ता की तरफ से याचिका में आईपीसी की धारा 124ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गयी थी. याचिका में कहा गया था कि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध है.
कोर्ट भले ही इस कानून की समाप्ति के लिए गांधी और तिलक का हवाला दे रहा हो. भले ही उसकी बातें इमोशनल करने वाली हों मगर अदालत क्यों नहीं इस बात को समझ रही कि ये 2021 है. केंद्र में मोदी सरकार आए कुल जमा 7 साल हुए हैं. 2014 के बाद के हालात पहले के हालात से अलग हैं. देश का कोई भी नागरिक थोड़ा इधर उधर हुआ तो सरकार के पास इस कानून के रूप में एक मजबूत शस्त्र है. इधर से बस फेंकने की देर है रिजल्ट गारंटीड हैं आदमी पक्का शहादत को प्राप्त होगा.
एक नागरिक के तौर पर हम लोग भी इतने भोले नहीं हैं. समझते हैं इस बात को कि चाहे वो अपने जमाने में इंदिरा गांधी रहीं हों या फिर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में नरेंद्र मोदी बुलंद आवाजें किसी भी सरकार को बर्दाश्त नहीं हैं.
अंग्रेजों के जमाने में इस कानून का क्या स्वरूप रहा? इससे बर्तानिया हुक़ूक़त को कितना फायदा मिला सवाल तमाम हैं लेकिन आज जब हम पत्रकार विनोद दुआ से लेकर जामिया की छात्र शफूरा जरगर, क्लाइमेट एक्टिविस्ट दिशा रवि, डॉक्टर कफील खान तक किसी को भी देखते हैं और जब इनके साथ सरकार का सुलूक देखते हैं तो वही तस्दीख होती है जो मशहूर वेब सीरीज सेक्रेड गेम्स में हुई थी जिसके अनुसार एक दिन सब मर जाएंगे बस त्रिवेदी ही बचेगा.
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