मैं टमाटर...
अभी सिर्फ चार दिन हुए हैं, तुम्हारी किचन शेल्फ से गायब हुए और इतना हो हल्ला! इतना कोलाहल... मैं तुम्हारी थाली में हुआ करता था. कभी आलू जैसी किसी सब्जी के साथ जुगलबंदी किये हुए. या फिर सलाद और चटनी में. आज चाहे जितना राग अलाप लो, लेकिन कड़वा सच यही है कि कभी तुमने मेरी इज्जत नहीं की. मुझे कमतर मानते हुए हमेशा ही अपनी प्लेट से अलग किया. तुम्हें लगा मेरी कोई औकात ही नहीं है. तुम यही मानते थे कि जब ईश्वर ने सब कुछ बना लिया तो जो मिट्टी उसके पास बची उसका बस इस्तेमाल हो सके, इसलिए उसने टमाटर की रचना की.खाने को सब्जेक्ट मानकर उसकी लिखाई पढ़ाई करने वाले पढ़ाकुओं का मत मुझे लेकर तुम्हारे जैसा बिलकुल नहीं है. उनका मानना है कि 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली मुझे यूं ही लेकर नहीं आए थे स्कॉलर्स के अलावा शायद उन पुर्तगालियों को भी बहुत पहले ही इस बात का एहसास हो गया था कि किचन में अगर सच में कोई बहुत जरूरी चीज है, तो वो मैं यानी टमाटर हूं. ऐसे स्कॉलर्स मानते हैं कि टमाटर खाने में टैंगी सा फ्लेवर लाता है. वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो ग्रेवी में रंग देने के लिए मेरा इस्तेमाल करते थे.
मौजूदा वक़्त में मैं जरूरत हूं या शौक? इसपर दुनिया के हर इंसान के अपने तर्क हो सकते हैं. मगर इतना जान लो मुझे आम ही रहना था. नहीं होना चाहता था मैं खास. लेकिन बात फिर वही है घर की मुर्गी दाल बराबर. देख लो कमजोर की आह किसी को कैसे लगती है. अब न मैं तुम्हें दाल में मिल रहा हूं और न ही मुर्गी या मटन वाली किसी ग्रेवी में.
बात बीते ज्यादा दिन नहीं हुए हैं. बहुत हुआ तो डेढ़ दो महीना. मैं खुदरा बाजार में बीस से तीस रुपए किलो मिल रहा था. अच्छा...
मैं टमाटर...
अभी सिर्फ चार दिन हुए हैं, तुम्हारी किचन शेल्फ से गायब हुए और इतना हो हल्ला! इतना कोलाहल... मैं तुम्हारी थाली में हुआ करता था. कभी आलू जैसी किसी सब्जी के साथ जुगलबंदी किये हुए. या फिर सलाद और चटनी में. आज चाहे जितना राग अलाप लो, लेकिन कड़वा सच यही है कि कभी तुमने मेरी इज्जत नहीं की. मुझे कमतर मानते हुए हमेशा ही अपनी प्लेट से अलग किया. तुम्हें लगा मेरी कोई औकात ही नहीं है. तुम यही मानते थे कि जब ईश्वर ने सब कुछ बना लिया तो जो मिट्टी उसके पास बची उसका बस इस्तेमाल हो सके, इसलिए उसने टमाटर की रचना की.खाने को सब्जेक्ट मानकर उसकी लिखाई पढ़ाई करने वाले पढ़ाकुओं का मत मुझे लेकर तुम्हारे जैसा बिलकुल नहीं है. उनका मानना है कि 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली मुझे यूं ही लेकर नहीं आए थे स्कॉलर्स के अलावा शायद उन पुर्तगालियों को भी बहुत पहले ही इस बात का एहसास हो गया था कि किचन में अगर सच में कोई बहुत जरूरी चीज है, तो वो मैं यानी टमाटर हूं. ऐसे स्कॉलर्स मानते हैं कि टमाटर खाने में टैंगी सा फ्लेवर लाता है. वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो ग्रेवी में रंग देने के लिए मेरा इस्तेमाल करते थे.
मौजूदा वक़्त में मैं जरूरत हूं या शौक? इसपर दुनिया के हर इंसान के अपने तर्क हो सकते हैं. मगर इतना जान लो मुझे आम ही रहना था. नहीं होना चाहता था मैं खास. लेकिन बात फिर वही है घर की मुर्गी दाल बराबर. देख लो कमजोर की आह किसी को कैसे लगती है. अब न मैं तुम्हें दाल में मिल रहा हूं और न ही मुर्गी या मटन वाली किसी ग्रेवी में.
बात बीते ज्यादा दिन नहीं हुए हैं. बहुत हुआ तो डेढ़ दो महीना. मैं खुदरा बाजार में बीस से तीस रुपए किलो मिल रहा था. अच्छा चूंकि मेरे बेचने वाले सुबह ही मुझे दो वर्गों में बांट देते थे तो अगर तुम मुझे रात में लेने जाते तो मैंने तुम्हें बारह- पंद्रह रूपये में भी मिल जाता (हां वो अलग बात है कि उनमें से आधे से ज्यादा सड़े या दागी होते. खैर सड़े का तो पता नहीं लेकिन तमाम दागी हमारी संसद और विधानसभाओं में हैं और दुर्भाग्यपूर्ण ये कि देश उन्हें सब कुछ जानते बूझते झेल रहा है)
मुद्दे से अब क्या ही भटकाना. बात कीमत की, हैसियत की चल रही है. तो याद रहे पूर्व में ऐसे तमाम मौके आए हैं जब मेरा तिरस्कार हुआ है. बार बार मुझे अपमान का सामना करना पड़ा. शायद तुम विश्वास न करो. लेकिन जान लो. ऐसे बदलने का मेरा न तो कोई मूड था, न इरादा. बात बस इतनी है कि भुला के मेरा प्यार तुम अब जो देख रहे हो वो तुम्हारे प्रति मेरा इंतकाम है.
रेट मेरे बढ़े हैं और हर बार की तरह राजनीति तेज हो गयी है. विपक्ष जहां इसके लिए केंद्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेर रहा है. तो वहीं सत्ता पक्ष में बैठे कुछ बेशर्म ऐसे भी हैं, जो अपने अधकचरे ज्ञान का परिचय देते हुए दबे छिपे लहजे में ये भी कह रहे हैं कि टमाटर न मिला तो मर थोड़े ही न जाएंगे!
हां बात सही है. व्यक्ति चाहे सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का, मौत इतनी सस्ती भर नहीं है कि थाली में टमाटर के न रहने भर से आए और इंसान को अपनी चपेट में ले ले. मगर हां इस बात में भी कोई शक नहीं है कि हमारे घरों में तमाम व्यंजन ऐसे बनते हैं, जो अगर बिन टमाटर बनाए जाएं या ये कहें कि उनमें से टमाटर नदारद हो, तो उन्हें खाने से बेहतर मर जाना है.
बहरहाल, जो जानते हैं ठीक हैं जिन्हें नहीं पता वो समझ लें कि जो चढ़ता है वो उतरता जरूर है. भले ही आज मेरी बल्ले बल्ले हो और मुझे और मेरी कीमतों को लेकर जगह जगह हो हल्ला हो रहा हो. मगर क्योंकि ये दुनिया किसी की सगी नहीं है. मैं जल्द औकात में आ जाऊंगा. देखा जाएगा कि वो तमाम लोग जो आज मुझे लेकर टमाटर-टमाटर कर रहे हैं, पॉजिटिव से लेकर निगेटिव तक मुझे लेकर बातें कर रहे हैं. तब उस वक़्त मुझे लेकर उनका क्या रवैया रहता है.
बाद बाकी मैटर बस इतना है कि, इंसान को याद रखना चाहिए कि चाहे वो उनके बीच का कोई हो या फिर हम सब्जियां. दिन किसी के एक जैसे नहीं रहते. वक़्त किसी का भी हो, बदलता जरूर है. मेरा बदला है आपका भी बदलेगा. शायद आपकी जिंदगी में ईश्वर वो दिन ला दे कि मैं ऐसे ही फिर महंगा हो जाऊं मगर आप मुझे हंसते मुस्कुराते हुए खरीद सकें.
शेष फिर कभी.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.