मानो या न मानो, साल 2015 में आई फिल्म 'मसान' का डायलॉग 'साला...ये दु:ख काहे नहीं खत्म होता है बे' 200 फीसदी 'मार्गदर्शक मंडल' से प्रेरणा लेते हुए ही लिखा गया होगा. 2014 में भाजपा के सत्ता संभालने के बाद इस मार्गदर्शक मंडल की घोषणा की गई थी. भाजपा के मार्गदर्शक मंडल और उसके 75 साल वाले नियम को सभी जानते हैं. इस नियम के सहारे आडवाणी और जोशी जैसे कई बड़े नामों को 'संन्यास' दिलाया गया था. हाल ही में मार्गदर्शक मंडल के इन नेताओं को 'मेट्रो मैन' के नाम से मशहूर '88' साल के ई. श्रीधरन के रूप में एक और झटका दे दिया गया. श्रीधरन के भाजपा ज्वाइन करते समय 75 साल वाले नियम की किताब शायद कहीं खो गई थी. वैसे तो यह भाजपा का 'आंतरिक मामला' है, लेकिन मार्गदर्शक मंडल का दर्द कहने के लिए कोई तो होना चाहिए.
श्रीधरन के भाजपा ज्वाइन करते समय 75 साल वाले नियम की किताब शायद कहीं खो गई थी.
मार्गदर्शक मंडल इस झटके से उबर ही रहा था कि भाजपा के एक नेता ने श्रीधरन के केरल के मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी उम्मीदवार होने की घोषणा कर दी. हालांकि, बाद में उन्होंने इस घोषणा से यू-टर्न ले लिया. लेकिन, ये घोषणा ही मार्गदर्शक मंडल के लिए किसी सदमे से कम नहीं थी. इस खबर के आने के साथ भाजपा के एक पूर्व और बागी नेता यशवंत सिन्हा का दर्द ट्विटर पर फूट पड़ा. ये अच्छा है कि सिन्हा अब पार्टी का हिस्सा नही हैं और जो चाहे वो कह सकते हैं. वैसे सिन्हा अगर पार्टी में होते, तो उन्हें भी मार्गदर्शक मंडल में पहुंचा दिया गया होता. तब वो भी आडवाणी और जोशी सरीखे नेताओं की तरह दर्द को खुद में ही समेटे रहते. खैर, सिन्हा ने अपना दर्द बयान कर लिया, लेकिन मार्गदर्शक मंडल के अन्य नेताओं का क्या वो अपना दर्द किससे जाकर कहें.
मार्गदर्शक मंडल उस 'निर्बल' पति की तरह है, जो अपनी 'सबला' पत्नी द्वारा कूटे जाने के बाद इसकी शिकायत घर तो घर, बाहर भी किसी से नहीं कर सकता. उसे अपनी छीछालेदर से ज्यादा चिंता परिवार (पार्टी) की होती है. इन्हें पता है कि शिकायत किसी से भी करो, लोग केवल मजाक उड़ाएंगे. चाहे वो घर के लोग हों या बाहरी. शिकायत के चक्कर में जो बची-खुची इज्जत मिल भी रही है, उससे भी हाथ धो बैंठेंगे. इस वजह से ये 'बेचारे' दर्द सहने की आदत डाल चुके हैं. लंबा वक्त भी गुजर चुका है, तो ये भी कहा जा सकता है कि शायद अब इन्हें दर्द महसूस होना बंद ही हो गया होगा. एक्टिव राजनीति से उठाकर मार्गदर्शक मंडल में लाकर पटक दिए गए इन नेताओं में से एक एलके आडवाणी इसका एक बेहतरीन उदाहरण हैं.
आडवाणी का दु:ख देख तो पत्थर की आंखों से भी आंसू निकल आएंगे.
आडवाणी का दु:ख देख तो पत्थर की आंखों से भी आंसू निकल आएंगे. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ये माना जा रहा था कि वे भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. लेकिन, नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा के साथ उनका ये सपना चकनाचूर हो गया. चुनाव के बाद ही उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया गया था. लेकिन, 2019 में उनका टिकट काटने के बाद उनको स्थायी सदस्य बना दिया गया. कुछ समय बाद लगा कि वे राष्ट्रपति बनाए जाएंगे, लेकिन इस उम्मीद पर भी पानी फिर गया. इतना सब होने के बाद उन्होंने राज्यपाल छोड़िए, किसी पद को पाने की नहीं सोची. क्योंकि, आडवाणी को पता चल चुका था कि मार्गदर्शक मंडल के लोगों को केवल दर्द महसूस करना है, दिखाना नहीं है. भाजपा के इस 'लौहपुरूष' को दर्द देने के मामले में भरपूर आजमाया गया है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भाजपा को राष्ट्रीय पार्टी बनाने की मेहनत करने वाले आडवाणी आखिर अपना दर्द कहां जाकर बांटें.
मुरली मनोहर जोशी को खुद से ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी, तो वह पहले ही शांत हो गए थे. मार्गदर्शक मंडल में शामिल अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं ने थोड़ी बहुत उछलकूद मचाई, लेकिन 'मोशा' (मोदी-शाह) के आगे टिक नहीं पाए. ये नेता कभी-कभार अपनी भड़ास निकाल भी लेते हैं. लेकिन, आडवाणी और जोशी हमेशा की तरह शांत ही बने हुए हैं. भाजपा की 'सक्रिय राजनीति' से 88 साल की उम्र में जुड़ने वाले ई श्रीधरन ने पार्टी में मार्गदर्शन मंडल की अहम भूमिका को साबित कर दिया है. कुल मिलाकर भाजपा का मार्गदर्शक मंडल लगातार दर्द झेलने के लिए बनाया गया है और आगे भी ऐसा चलता ही रहेगा. लेकिन, ये अपना दर्द किसी से कह नहीं सकते. मार्गदर्शक मंडल केवल यही कह सकता है कि 'साला...ये दु:ख काहे नहीं खत्म होता है बे'.
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