मेरे बारे में इतना मत सोचना, दिल में आता हूं, समझ में नहीं... ये वाला डायलॉग मारा सलमान खान ने था, लेकिन फिट बैठ रहा है कोरोना वायरस पर. पूरे देश में कोरोना संक्रमण के मामले फिर से बढ़ रहे हैं. कई राज्यों में वैक्सीन की कमी की बात सामने आई हैं, तो कहीं स्वास्थ्य सुविधाएं चरमरा रही हैं. लेकिन, चुनावी राज्यों की रैलियों में कोरोना महामारी का डर रत्ती भर भी नही है. कोरोना का डर इन रैलियों और रोड शो में हजारों-लाखों की संख्या में आने वाले लोगों के न दिल में आ रहा है और न समझ में. ये बात कोरोना को भी अंदर ही अंदर खाए जा रही है. मतलब, बेचारे कोरोना ने एक साल में जितना भौकाल बनाया, ई ससुरे मिलके सब मिट्टी पलीद किए दे रहे हैं. कौनो डर ही नही रह गया है. वैसे, इतनी भारी भीड़ देखकर कोरोना भी दहशत में आ ही जाता होगा. रैली में पहुंचने के बाद भीड़ में से किसी ने कोरोना को देख लिया, तो लोगों में भगदड़ मच सकती है. भगदड़ के बाद कितने पैरों के नीचे कुचला जाएगा, इसका हिसाब कौन रखता है. पता चला गए थे कोरोना फैलाने और चार कंधों पर लद कर आ रहे हैं. अब ऐसी स्थिति में कोरोना के लिए पतली गली से निकलना ही ठीक रहता है.
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है. अब लोकतंत्र है, तो चुनाव होने ही हैं. भारत में तो हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होते हैं. बीते साल बिहार में ही हुए थे, वहां भी खूब रैलियां हुईं, लेकिन मजाल कि कोरोना फैला हो. अब बिहार में नहीं फैला, तो इन पांच चुनावी राज्यों में क्यों फैलेगा. ऐसा लगता है कि भारत में आकर कोरोना भी लोकतंत्र का पक्षधर बन गया है. तभी तो चुनावी रैलियों से दूरी बनाकर रखता है. कोरोना भी चुनाव आयोग की तरह ही किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करता है. वो किसी भी राजनीतिक पार्टी की रैली में नहीं जाता है. हां, किसान आंदोलन हो, होली हो, कुंभ हो, तो बात अलग है. वहां कोई रोक-टोक नहीं है, तो कोरोना आसानी से जा सकता है.
कोरोना भारत के नेताओं की तरह ही बहुत समझदार हो गया है.
भारत में आने के बाद कोरोना में कई बदलाव हुए हैं. कोरोना वेरिएंट या डबल म्यूटेंट वाले बदलाव नहीं, असली वाले बदलाव. कोरोना, भारत के नेताओं की तरह ही बहुत समझदार हो गया है. चुनावी राज्यों में वो इस वजह से भी नहीं बढ़ रहा है कि पता चला, चुनाव ही निरस्त हो गए. चुनाव नहीं होंगे, तो इतनी भीड़ एक साथ कहां खोजने जाएगा. इसलिए चुनावी राज्यों में आखिरी के मतदान चरण का इंतजार कर रहा है. एक वायरस का इतना समझदार हो जाना निश्चित तौर पर चिंता का विषय है. चिंता से याद आया कि लोग बढ़ते हुए कोरोना संक्रमण के लिए राजनीतिक दलों और नेताओं पर भी दोष मढ़ रहे हैं. अब इससे अच्छा आपदा में अवसर क्या होगा? जिन्हें कोरोना से डर लग रहा है, बचाव के लिए वो भी इन चुनावी रैलियों में जा सकते हैं. कुछ तो बात होगी ही कि रैलियों में आने वाली भीड़ मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन नहीं कर रही है.
लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए चुनाव कराना जरूरी है. इसमें कोरोना भी भरपूर सहयोग कर रहा है, तो चुनाव क्यों न कराए जाएं. यहां तो लोगों को समझना चाहिए कि कोरोना आज है, कल है और हो सकता है आने वाले कुछ महीने या साल तक और रहे. चुनाव तो हर साल होने हैं और कोरोना से जंग तो 2 मई के बाद भी लड़ी जा सकती है. अब आप ही सोचिए कि कोरोना के चक्कर में ममता बनर्जी की सरकार एक साल और चल गई, तो भाजपा का कितना नुकसान होगा. कोई स्कीम वगैरह ले आईं, तो चुनाव जीत जाएंगी.
महाराष्ट्र में चुनाव नही हैं और सबसे ज्यादा कोरोना के मामले वहीं से आ रहे हैं. मतलब गड़बड़ की असल वजह रैली नहीं, खुद लोग हैं. वैसे, चुनावी रैलियों में पहुंचने वाले लोग होते बहुत जियाले टाइप के हैं. अब मोदी या ममता आपके घर आकर निमंत्रण पत्र तो दे नहीं गए हैं कि हमाली पाल्टी ती लैली में जुलूल-जुलूल आना. लेकिन, लोग न जाएं, ये कैसे हो सकता है.
वैसे, नेता जी लोगों को कोरोना वैसा भी नहीं होना. वो रैली में आते हैं, तो मंच पर बैठते हैं. मंच पर भरपूर तरीके से कोविड-एप्रोप्रिएट बिहेवियर मौजूद रहता है. उनका कुछ नहीं बिगड़ना नहीं है और बिगड़ता भी है, तो उनके पास तमाम संसाधन हैं. किसी न किसी तरह बच ही जाएंगे. रेमडेसिवीर के जो इंजेक्शन कालाबाजारी के चलते महंगे मिल रहे हैं, नेताओं के लिए सस्ते दाम पर ही उपलब्ध हो जाएंगे. सोचना तो जनता को है. इसलिए मास्क लगाइए और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कीजिए. भीड़ का हिस्सा मत बनिए. जिसको मन करे, उसको वोट दे आइएगा. लेकिन, अपनी और अपने परिवार की जिंदगी से मत खेलिए.
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