सबसे पहले तो मैं इस झूठी कहावत को तत्काल प्रभाव से खारिज़ करना चाहती हूं कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता!’ भिया, होता है और बहुत जोर से होता है. इतना भीषण होता है कि उसकी चीख ही निकल जाती है. हाल ही में वैक्सीन लगवाते हुए कुछ पुरुषों ने इसके पुख्ता प्रमाण भी दे दिए हैं. वैसे भी एक डायलॉग के चक्कर में कोई कब तक फंसा रह सकता है? सच तो एक-न-एक दिन बाहर आना ही था. सच कहूं, तो सदियों से ये कहावत पुरुषों के गले की हड्डी बन चुकी है. और इसे संभालते-संभालते बेचारों का जबड़ा भी दर्द करने लग गया है. अब तक तो इंजेक्शन के दर्द को पुरुष, अंदर ही अंदर खींच लिया करता था. या फिर कसकर मुट्ठी बांध, चेहरे पर अप्राकृतिक मुस्कान मेंटेन करे रहता था. लेकिन अब उसके सब्र का बांध टूट चुका है और वह खुलकर खुली हवा में चीख पा रहा है.
खैर! अब जब बात छिड़ ही गई है तो मैं अपने देश के वैज्ञानिकों से ये अनुरोध करूंगी कि वे एक ऐसी वैक्सीन बनाएं जिससे वैक्सिनेशन के समय होने वाला दर्द महसूस ही न हो. वैसे सुनने में तो आया है कि अमेरिका वालों ने डाक टिकट के आकार का कोई इंजेक्शन बनाया है जिसे चिपकाकर दवाई भीतर पहुंचा दी जाती है. कोई कह रहा कि नेज़ल ड्रॉप्स टाइप वैक्सीन आ रही है. मतलब कोरोना वायरस को मेन गेट पर ही कुचल दो.
अब अगर ये सच है तो आधा हिन्दुस्तान तो इसी बात पर उत्सव मना मिठाई बांट आएगा. पर हमारी जेनरेशन वाले लोग इस बात पर विश्वास करें तो करें कैसे? क्योंकि हमें जिस उपकरण से बचपन में वैक्सीन दी गई थी, नाम तो उसका भी इंजेक्शन ही था पर क़सम से उसका लुक और...
सबसे पहले तो मैं इस झूठी कहावत को तत्काल प्रभाव से खारिज़ करना चाहती हूं कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता!’ भिया, होता है और बहुत जोर से होता है. इतना भीषण होता है कि उसकी चीख ही निकल जाती है. हाल ही में वैक्सीन लगवाते हुए कुछ पुरुषों ने इसके पुख्ता प्रमाण भी दे दिए हैं. वैसे भी एक डायलॉग के चक्कर में कोई कब तक फंसा रह सकता है? सच तो एक-न-एक दिन बाहर आना ही था. सच कहूं, तो सदियों से ये कहावत पुरुषों के गले की हड्डी बन चुकी है. और इसे संभालते-संभालते बेचारों का जबड़ा भी दर्द करने लग गया है. अब तक तो इंजेक्शन के दर्द को पुरुष, अंदर ही अंदर खींच लिया करता था. या फिर कसकर मुट्ठी बांध, चेहरे पर अप्राकृतिक मुस्कान मेंटेन करे रहता था. लेकिन अब उसके सब्र का बांध टूट चुका है और वह खुलकर खुली हवा में चीख पा रहा है.
खैर! अब जब बात छिड़ ही गई है तो मैं अपने देश के वैज्ञानिकों से ये अनुरोध करूंगी कि वे एक ऐसी वैक्सीन बनाएं जिससे वैक्सिनेशन के समय होने वाला दर्द महसूस ही न हो. वैसे सुनने में तो आया है कि अमेरिका वालों ने डाक टिकट के आकार का कोई इंजेक्शन बनाया है जिसे चिपकाकर दवाई भीतर पहुंचा दी जाती है. कोई कह रहा कि नेज़ल ड्रॉप्स टाइप वैक्सीन आ रही है. मतलब कोरोना वायरस को मेन गेट पर ही कुचल दो.
अब अगर ये सच है तो आधा हिन्दुस्तान तो इसी बात पर उत्सव मना मिठाई बांट आएगा. पर हमारी जेनरेशन वाले लोग इस बात पर विश्वास करें तो करें कैसे? क्योंकि हमें जिस उपकरण से बचपन में वैक्सीन दी गई थी, नाम तो उसका भी इंजेक्शन ही था पर क़सम से उसका लुक और फील स्क्रू ड्राईवर से रत्ती भर भी कम न था. इस बात के गवाह बस हम ही नहीं बल्कि हमारे हाथों पर छपे हुए टीके के वो अठन्नी जैसे निशान भी हैं. आप चाहो तो अपने-अपने घरों के फ़ोर्टी प्लस सदस्यों के हाथ देख, अपनी निजी आंखों से इसकी पुष्टि कर लो.
अच्छा, इंजेक्शन लगवाते समय बच्चों को बुक्का फाड़कर रोते हुए सबने देखा है. ऐसे बच्चे भी इस दुनिया में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं जो हॉस्पिटल के दरवाज़े पर ही पछाड़ें खाकर फ़ैल जाते हैं. कुछ डॉक्टर को देखते ही मूर्छित हो जाते हैं तथा कुछ विशिष्ट प्रकार के बच्चे दुःख भरा नागिन डांस करते हुए भी पाए जाते रहे हैं. ऐसे पावन अवसरों पर हम, 'अरे! बच्चा है. थोड़ा डर गया है' कहकर टाल देते हैं.
लेकिन जब बड़े और समझदार टाइप लोग भी सुई देखकर टसुए बहा, बिलखने लगें तो भई, फिर तो हम जैसे परोपकारी जीवों का इस पर विस्तार से चर्चा करना बनता है. तो साब, इंजेक्शन की सुई का डर ही ऐसा है कि इसके आगे अच्छे-अच्छों के पसीने छूटने लगते हैं. उनके हॄदय की गति पांच सौ किलोमीटर प्रति मिनट रफ़्तार से बढ़ जाती है. आंखों की पुतलियां चौड़ी होने लगती हैं या मुंह के साथ ही उन्हें कस के भींच लिया जाता है.
सुई देखते ही, मस्तिष्क की सारी मांसपेशियां उद्वेलित हो, सभी अंगों तक यह दुखद समाचार पहुंचा आती हैं कि अब आप आत्मघाती दस्ते द्वारा चारों तरफ से घेर लिये गए हो. अब चाहे आप पुलिस वाले हों, आपकी अपनी बटालियन हो, कद्दावर नेता हों या आप फलाने ढिमकाने राजघराने के पोलो खेलते इकलौते वंशज हों. अजी, इंजेक्शन देखते ही बड़े से बड़े सूरमा भी ढेर हो जाते हैं. सॉरी टू इन्फॉर्म यू, पर वे इंसान जिनकी सुपर मैन टाइप इमेज आपकी आंखों में बसी थी, उन्हें मारे भय के नर्स के सामने गिड़गिड़ाते या आत्मरक्षा हेतु उसे तात्कालिक तौर पर भींचते भी देखा गया है.
कुल मिलाकर सब हंसते-हंसते गोली खाने को तैयार हैं, चाहे दवाई वाली हो या बंदूक वाली. लेकिन इंजेक्शन देखते ही इनकी हवाइयां उड़ने लगती हैं और प्रथम दृष्टि में ही वह मासूम, जीवन रक्षक इन्हें तोप के इक्कीस गोलों के एक साथ दागने से भी अधिक मारक एवं भयंकर लगने लगता है. कारण साफ़ है कि गोली तो सीधे-सीधे जान ही ले लेती है न! उसमें सोचने-समझने की गुंजाइश ही कहां होती है! पर जानलेवा दर्द तो सुई ही देती है साहिबान!
अब आप खींसे निपोरते हुए ये जरूर कहेंगे क़ि हमें तो दरद होता ही नहीं! तो हमारा जवाब बड़ा क्लियर है क़ि ज़नाब! डरते तो सब हैं पर भरी सभा में इसे स्वीकारता कोई-कोई ही है. अब इसमें मज़ाक उड़ाने जैसी कोई बात नहीं है. दर्द के बाद इंसान की सारी प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक ही होती हैं. फिर चाहे वो चीखना-चिल्लाना हो या हाथ-पैर फेंकना. लेकिन हम केवल एक जरुरी उपाय बता देते हैं, जिसे अपनाने के बाद रोना थोड़ा कम आएगा या शायद आए ही नहीं!
बस, आम पब्लिक इस बात को गांठ बांध ले कि जब नर्स आपको इंजेक्शन लगाने आए तो आप उसको घूरें नहीं. (न नर्स को, न इंजेक्शन को). कुछ लोग इंजेक्शन को इस तरह घूरते हैं मानो वो सुतली बम हो कि अब फटा, तब फटा. आप सुई की नोक से ध्यान हटा कर इस बात पर गौर फरमाइए कि जिस वायरस ने पूरी दुनिया में त्राहिमाम मचा रखा है, आपके शरीर में उसे नष्ट करने के हथियार की पहली खेप पहुंच चुकी है.
यह भी सोचिए कि जब आप सोशल मीडिया पर ये तस्वीर पोस्ट करेंगे तो कितनी बधाई और नमन इकट्ठा होंगे. देशप्रेमी कहलाए जायेंगे, सो अलग! अच्छा सोचें और उत्तम फल पाएं. आज नहीं लग सकी हो तो क्या, कल वैक्सीन लगवाएं.
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