साल 2009 एक फ़िल्म आई थी. नाम था न्यूयॉर्क. फ़िल्म कैसी थी? इससे कोई मतलब नहीं है. मतलब जिस बात से है वो है फ़िल्म का एक गाना. गाना जिसके बोल थे कि 'तूने जो न कहा, मैं वो सुनता रहा. खामखा बेवजह ख्वाब बुनता रहा.' वाक़ई बड़ा जानदार गाना है ये. आज भी रात में छत पर बैठ कर सुन लो तो पुराने ज़ख्म हरे हो जाते हैं. बड़े गहरे अर्थ छिपे हैं इस गाने में. छत पर बैठकर सुनने के अलावा गाना भले ही कहीं फिट बैठे या न बैठे लेकिन जब 'गुलज़ार' साहब जैसी शख्सियत का बर्थ डे (Gulzar Birthday) हो तो ये गाना वक़्त की ज़रूरत बन जाता है और वहीं बैठता है जहां इसे बैठना चाहिए. सोशल मीडिया के इस दौर में जब क्रांति करने के लिए इंस्टाग्राम (Instagram) से लेकर फेसबुक (Facebook) और ट्विटर (Twitter) हों और कॉपी पेस्ट धड़ल्ले से चल रहा हो आप या हम गुलज़ार का नाम लगाकर कहीं भी कुछ भी, बड़ी ही आसानी के साथ चेप सकते हैं. अच्छा चूंकि पेस्ट किये गए उस कूड़े में गुलज़ार का नाम लगा ही हुआ है तो बहुतेरे आएंगे जो कहेंगे वआआह दद्दा! क्या ख़ूब कह गए दद्दा ! एकदम सही कह गए गुलज़ार दद्दा. कोई महिला भी अगर गुलज़ार के नाम पर ये कूड़ा अपने सोशल मीडिया एकाउंट से परोस दे तो भी कमेंट यही होंगे और वआआह दीदी, सहमत दीदी के कीचड़ से उसका कमेंट बॉक्स भर जाएगा.
देखो भइया जैसे हर पीली चीज सोना नहीं होती. वैसे ही लिखा हुआ हर 4 लाइनर, 4 लाइनर, 6 लाइनर, 8 लाइनर गुलज़ार का नहीं होता. मुझे तो लगता है कि मारे मुहब्बत के जो कष्ट सोशल मीडिया के 'लिखन्तु' गुलज़ार साहब को दे रहे हैं गुलज़ार साहब भी सोचते होंगे क्या यार इससे अच्छा तो मैं पेंटर बन जाता कम से कम इतना दुख तो न होता.
नहीं मतलब ख़ुद सोचिए जब ये लाइन जिसमें लेखक की कल्पना है कि 'अलगनी पर सूखती फटी टीशर्ट का बारिश की बूंदों से भीग जाना, क़ुदरत का दुनिया को तोहफ़ा है.' जैसी लाइनें या फिर वो पंक्ति जिसमें कहा गया हो 'चलती है आंधी, बहता है पानी! आ डार्लिंग लेके चलूं तुझे...
साल 2009 एक फ़िल्म आई थी. नाम था न्यूयॉर्क. फ़िल्म कैसी थी? इससे कोई मतलब नहीं है. मतलब जिस बात से है वो है फ़िल्म का एक गाना. गाना जिसके बोल थे कि 'तूने जो न कहा, मैं वो सुनता रहा. खामखा बेवजह ख्वाब बुनता रहा.' वाक़ई बड़ा जानदार गाना है ये. आज भी रात में छत पर बैठ कर सुन लो तो पुराने ज़ख्म हरे हो जाते हैं. बड़े गहरे अर्थ छिपे हैं इस गाने में. छत पर बैठकर सुनने के अलावा गाना भले ही कहीं फिट बैठे या न बैठे लेकिन जब 'गुलज़ार' साहब जैसी शख्सियत का बर्थ डे (Gulzar Birthday) हो तो ये गाना वक़्त की ज़रूरत बन जाता है और वहीं बैठता है जहां इसे बैठना चाहिए. सोशल मीडिया के इस दौर में जब क्रांति करने के लिए इंस्टाग्राम (Instagram) से लेकर फेसबुक (Facebook) और ट्विटर (Twitter) हों और कॉपी पेस्ट धड़ल्ले से चल रहा हो आप या हम गुलज़ार का नाम लगाकर कहीं भी कुछ भी, बड़ी ही आसानी के साथ चेप सकते हैं. अच्छा चूंकि पेस्ट किये गए उस कूड़े में गुलज़ार का नाम लगा ही हुआ है तो बहुतेरे आएंगे जो कहेंगे वआआह दद्दा! क्या ख़ूब कह गए दद्दा ! एकदम सही कह गए गुलज़ार दद्दा. कोई महिला भी अगर गुलज़ार के नाम पर ये कूड़ा अपने सोशल मीडिया एकाउंट से परोस दे तो भी कमेंट यही होंगे और वआआह दीदी, सहमत दीदी के कीचड़ से उसका कमेंट बॉक्स भर जाएगा.
देखो भइया जैसे हर पीली चीज सोना नहीं होती. वैसे ही लिखा हुआ हर 4 लाइनर, 4 लाइनर, 6 लाइनर, 8 लाइनर गुलज़ार का नहीं होता. मुझे तो लगता है कि मारे मुहब्बत के जो कष्ट सोशल मीडिया के 'लिखन्तु' गुलज़ार साहब को दे रहे हैं गुलज़ार साहब भी सोचते होंगे क्या यार इससे अच्छा तो मैं पेंटर बन जाता कम से कम इतना दुख तो न होता.
नहीं मतलब ख़ुद सोचिए जब ये लाइन जिसमें लेखक की कल्पना है कि 'अलगनी पर सूखती फटी टीशर्ट का बारिश की बूंदों से भीग जाना, क़ुदरत का दुनिया को तोहफ़ा है.' जैसी लाइनें या फिर वो पंक्ति जिसमें कहा गया हो 'चलती है आंधी, बहता है पानी! आ डार्लिंग लेके चलूं तुझे डिनर पे, खिलाऊंगा अफगानी बिरयानी.' जैसी रचनाएं गुलज़ार साहब के पास गुलज़ार के नाम से जाती होंगी तो आखिर क्या बीतती होगी उनपर. मुझे तो लगता है इंसान के पास जितनी तरह की भावनाएं होती हैं गुलज़ार साहब की वो सारी भावनाएं आहत हो जाती होंगी.
मुझे मितरों ने कई व्हाट्सएप ग्रुप पर जोड़ा है. मुझे शेरो शायरी और कविताओं का शौक है तो 5- 6 ग्रुप इसी को समर्पित हैं. हर रोज़ कोई न कोई कूड़ा आता है जिसमें रिटेन बाय गुलज़ार लिखा होता है. अब तो आदत हो गयी है वरना जब नया नया व्हाट्सएप पर आया था तो महसूस होता था 'अच्छा ये भी गुलज़ार ने लिखा है!' मतलब एक दिन मैं भी गुलज़ार नहीं तो फिर गुलज़ार जैसा बन जाऊंगा.
वो दिन है और आज का दिन है न तो बाबा मरे और न ही बैल बंटे. मैं गुलजार नहीं बना और गुलज़ार साहब के नाम पर इतना कूड़ा ऑलरेडी पढ़ लिया है कि अब हिम्मत भी नहीं होती कि गुलज़ार साहब जैसा बनूं.
देखिए साहब मैं कोई सोशल रिफॉर्मर नहीं हूं. मैं इस बात से भली भांति परिचित हूं कि मेरे किसी को कुछ कह देने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन फिर भी अपने दिल की तसल्ली के लिए मैं केवल और केवल एक बात कहूंगा जो चीज गुलज़ार ने कभी लिखी नहीं या ये कहें कि जिसे कभी उन्होंने अपनी मेज पर पड़ी रफ कॉपी तक में नहीं लिखा उसे उनके नाम से पोस्ट करना गुनाह है. दो गुना है. तीन गुना है. एक बुजुर्ग आदमी यूं भी तमाम तरह की चिंताओं से घिरा रहता है ऐसे में यदि हम ट्रक मार्का शायरियों को गुलजार के नाम से पोस्ट कर रहे हैं साफ है कि हम सीधे तौर पर गुलजार साहब को ही कष्ट दे रहे हैं.
मैं पूरे यकीन से कह सकता हूं उन नज़्मों को पढ़कर, उन कविताओं/ शेरों को सुनकर गुलजार साहब की रूह तक थर्रा जाती होगी फिर जब वो ये देखते होंगे कि ये रिटेन बाय गुलज़ार है तो उनकी भी स्थिति काटो तो खून नहीं वाली होती होगी.
सोशल मीडिया के इस काल में सभी को फेमस होना है. सब चाहते हैं कि अगला व्यक्ति उसे बुद्धिजीवी माने लेकिन अगर उसके लिए हमें गुलज़ार जैसे व्यक्ति के नाम का सहारा लेना पड़े तो ये किसी भी एंगल से अच्छी बात नहीं है. नैतिकता के नाते न सही मगर उम्र का तकाजा यही कहता है कि हम गुलज़ार साहब की रचनात्मकता का सही सम्मान करें.
अंत में हम बस ये कहकर अपनी बातों पर फुल स्टॉप लगाना चाहेंगे कि 'आज "गुलज़ार" का बड्डे है.' सबसे अच्छी बात ये है कि इसे गुलज़ार ने नहीं लिखा है. बिल्कुल नहीं लिखा है. कत्तई नहीं लिखा है. मॉरल ऑफ द स्टोरी ये है कि फैंस ने 'गुलज़ार' के नाम पर इतनी चिरांद की है कि उनके 'गुलज़ार' का गुल मुरझा गया है और उसके आस पास कांटे निकल आए हैं जिसकी वजह से वो ज़ार - ज़ार रो रहा है. ख़ैर आपको बर्थडे मुबारक को गुलज़ार साहब. जीवन में कष्ट लगे रहते हैं ईश्वर आपको हौसला दे इन कष्टों से पार निकलने का.
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