हो क्या रहा है देश में? घोडा, घास से दोस्ती पर आमादा है. शेर सभ्य हो रहा है. उसकी 'पिलानिंग' बकरी के गले में हाथ डाल पोखर या नदी तक घूमने की है. कहीं ये क़यामत के आसार तो नहीं? नहीं! मतलब धर्म चाहे जो कोई भी हो, कहा यही गया है कि जब प्रलय (क़यामत) नजदीक आएगी तो सब उल्टा पुल्टा होगा? कितना होगा ये तो नहीं पता लेकिन जिस तरह एक मुद्दे पर फारूक अब्दुल्ला का समर्थन शिवसेना ने किया है. वैचारिक ब्लंडर हो चुका है, साफ़ हो गया है कि आज नहीं तो कल दुनिया ख़त्म हो जाएगी। बस ईश्वर का इशारा मिलने की देर है. मतलब क्या राजनीति में कोई धर्म, ईमान, विचारधारा है ही नहीं? असल में अभी बीते दिनों घाटी में राहुल भट्ट नाम के कश्मीरी पंडित को आतंकियों द्वारा मार दिया गया है. राहुल की हत्या के मद्देनजर घाटी में तनाव है. जिसपर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने अपना पक्ष रखा. फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने तो जो कहा सो कहा लेकिन दिलचस्प ये रहा कि उनकी बातों को शिवसेना ने अपना समर्थन दिया है.
ध्यान रहे शिवसेना का अब्दुल्ला को समर्थन देना इसलिए भी बड़ी बात है क्योंकि ये शिवसेना ही थी जिसमें जुलाई 2019 में अपने मुखपत्र सामना में कश्मीर मुद्दा उठाया था और कहा था कि कश्मीर के असली दुश्मन फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती हैं.
तब धारा 370 पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के एक बयान का हवाला देते हए शिवसेना ने कहा था कि कश्मीर के लिए असली खतरा पाकिस्तान से नहीं, अब्दुल्ला और मुफ्ती जैसे राजनेताओं से है. शिवसेना ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग की थी कि जिस तरह उन्होंने पाकिस्तान को सबक सिखाया ठीक वैसे ही वो इन नेताओं को भी आड़े हाथों लें.
किसी ज़माने में...
हो क्या रहा है देश में? घोडा, घास से दोस्ती पर आमादा है. शेर सभ्य हो रहा है. उसकी 'पिलानिंग' बकरी के गले में हाथ डाल पोखर या नदी तक घूमने की है. कहीं ये क़यामत के आसार तो नहीं? नहीं! मतलब धर्म चाहे जो कोई भी हो, कहा यही गया है कि जब प्रलय (क़यामत) नजदीक आएगी तो सब उल्टा पुल्टा होगा? कितना होगा ये तो नहीं पता लेकिन जिस तरह एक मुद्दे पर फारूक अब्दुल्ला का समर्थन शिवसेना ने किया है. वैचारिक ब्लंडर हो चुका है, साफ़ हो गया है कि आज नहीं तो कल दुनिया ख़त्म हो जाएगी। बस ईश्वर का इशारा मिलने की देर है. मतलब क्या राजनीति में कोई धर्म, ईमान, विचारधारा है ही नहीं? असल में अभी बीते दिनों घाटी में राहुल भट्ट नाम के कश्मीरी पंडित को आतंकियों द्वारा मार दिया गया है. राहुल की हत्या के मद्देनजर घाटी में तनाव है. जिसपर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने अपना पक्ष रखा. फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने तो जो कहा सो कहा लेकिन दिलचस्प ये रहा कि उनकी बातों को शिवसेना ने अपना समर्थन दिया है.
ध्यान रहे शिवसेना का अब्दुल्ला को समर्थन देना इसलिए भी बड़ी बात है क्योंकि ये शिवसेना ही थी जिसमें जुलाई 2019 में अपने मुखपत्र सामना में कश्मीर मुद्दा उठाया था और कहा था कि कश्मीर के असली दुश्मन फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती हैं.
तब धारा 370 पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के एक बयान का हवाला देते हए शिवसेना ने कहा था कि कश्मीर के लिए असली खतरा पाकिस्तान से नहीं, अब्दुल्ला और मुफ्ती जैसे राजनेताओं से है. शिवसेना ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग की थी कि जिस तरह उन्होंने पाकिस्तान को सबक सिखाया ठीक वैसे ही वो इन नेताओं को भी आड़े हाथों लें.
किसी ज़माने में फ़ारूक़ की धुरविरोधी रही शिवसेना अगर आज उन्हें और उनकी बातों को समर्थन दे रही है तो कई चीजें खुद साफ़ हो गई हैं. ये स्थापित हो गया है कि जब मुद्दा विचारधारा न होकर निजी स्वार्थ हों तो जायज सब है.
मुद्दा कश्मीरी पंडितों की हत्या और फ़ारूक़ अब्दुल्ला का बयान है तो बताते चलें कि फ़ारूक़ ने कश्मीरी पंडितों की हत्या को विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स से जोड़ा है. फारूक अब्दुल्ला का मानना है कि अगर वाक़ई कश्मीरी पंडितों पर हो रहे हमलों को रोकना है तो सरकार को Kashmir Files फिल्म पर प्रतिबंध लगाना चाहिए.
फ़ारूक़ का मत है कि देश में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत का माहौल है, यही कश्मीर में मुस्लिम युवाओं में जो गुस्सा है उसके पीछे की वजह है. Kashmir Files से फ़ारूक़ आहत हैं और उनकी नाराजगी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कश्मीर फाइल्स को बेबुनियाद फिल्म बताया है.
कश्मीरी हिंदुओं और घाटी में लगातार हो रही उनकी मौतों पर अब्दुल्ला क्या कह रहे हैं वो एक अलग मुद्दा है. लेकिन जिस तरह शिवसेना उनके कंधे से कंधा मिलाकर शिवसेना खड़ी है साफ़ हो गया है कि उद्धव ठाकरे ने मौकापरस्ती की हदों को पार कर दिया है.
ध्यान रहे शिवसेना का शुमार देश की उन गिनी चुनी पार्टियों में है जो अपने को हिंदुत्व का झंडाबरदार बताती हैं. ऐसे में अब जब शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस से हाथ मिलाने की कगार पर है तो प्रलय निश्चित है.
बहरहाल अब जबकि शिवसेना और अब्दुल्ला की दोस्ती के रूप में हालात क़यामत वाले बन गए यहीं तो आदमी ज्यादा फ्रस्ट्रेट न हो और पीएफ या जीवन बीमा के पैसे निकाल कर छुट्टी मनाने विदेश चला जाए. नहीं तो फिर शॉपिंग कर ली जाए यूं भी सब ख़त्म हो जाएगा और जो है वो यहीं छूट जाएगा. बाकी जिस तरह फारूक अब्दुल्ला का ये मामला है कोई बड़ी बात नहीं आने वाले समय में हम महबूबा मुफ़्ती को जय श्री राम का नारा लगाते या गायत्री मंत्र का उच्चारण करते देख लें.
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