सच कहूं तो, कर्नाटक में जो कर्रा नाटक चल रहा है उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं. इसलिए नहीं कि मुझे राजनीति में कोई रुचि नहीं और यह रत्ती भर समझ नहीं आती बल्कि इसलिए भी कि परिणाम चाहे कुछ भी निकले, जनता को तो उल्लू बनना ही है.
सोचकर देखो, आख़िर चुनाव है क्या?
अब जान लो, “चुनाव वह परीक्षा है जहाँ दिल को सात फुट अंदर गाड़कर नेताओं के दिमाग की बत्ती इस सोच के साथ जलती है कि जनता के दिमाग़ की आशान्वित मोमबत्तियों को उम्मीदों की घुमावदार सीएफएल के साथ कैसे गुल किया जाए. यह झूठे वायदों की गहरी-अंधेरी खाई है जिसमें सिर के बल गिरने के बाद मतदाता को जैसे-तैसे, हाथ-पांव मार बाहर निकलकर अपनी मरहम-पट्टी स्वयं ही करनी होती है. यह एक बड़ी और शानदार दावत की तस्वीर दिखाकर हाथ में थमाई चूरन की चटपटी गोली है जो हमें खाली पेट ही हजम करना है”.
क्या है यह प्रक्रिया?
पूरी चुनावी प्रक्रिया का प्रारम्भ उम्मीदवारों के चयन (माने उठापटक) से होता है. सर-फुटौवल और प्यार-मनुहार, ये दोनों विरोधाभासी गुण इसी महत्त्वपूर्ण समय एक-साथ गलबहियां करते दिखते हैं और ब्याह में रूठे फूफा की तरह मुँह फुलाए कुछ लोगों की उपस्थिति कोने में भी दर्ज की जाती रही है. आपसी ख़ुन्नस निकालने और छीनाझपटी के बाद अंततः तय हो ही जाता है कि फलाने-ढिमके को ‘मैदान में उतारा जाएगा’. जी, हां. सही पढ़ा आपने, यह कुश्ती टाइप ही होता है. यह जंग का जंग खाया ऐसा मैदान है जहां कांटे की टक्कर से कहीं अधिक गुलाबी धन उछाल मारता है.
प्रचार, आवागमन, खान-पान, होटल इत्यादि की व्यवस्था में लगा पैसा कहां से आता है? यह जानकर हमारी आत्मा को क्षति पहुंच सकती है अतः किसी गणितीय सूत्र की तरह चलो यह मान लेते हैं (suppose) कि वह एक बड़े बरगद के वृक्ष से टपकता है. तो, इस बरगद की टपकन से आए पैसे को जी-भरकर इस तरह खर्च किया जाता है जैसे कोई पिता अपनी बेटी के ब्याह में ‘कोई कमी नहीं रहनी चाहिए, भैया.’ की आत्मिक पुकार के साथ करता...
सच कहूं तो, कर्नाटक में जो कर्रा नाटक चल रहा है उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं. इसलिए नहीं कि मुझे राजनीति में कोई रुचि नहीं और यह रत्ती भर समझ नहीं आती बल्कि इसलिए भी कि परिणाम चाहे कुछ भी निकले, जनता को तो उल्लू बनना ही है.
सोचकर देखो, आख़िर चुनाव है क्या?
अब जान लो, “चुनाव वह परीक्षा है जहाँ दिल को सात फुट अंदर गाड़कर नेताओं के दिमाग की बत्ती इस सोच के साथ जलती है कि जनता के दिमाग़ की आशान्वित मोमबत्तियों को उम्मीदों की घुमावदार सीएफएल के साथ कैसे गुल किया जाए. यह झूठे वायदों की गहरी-अंधेरी खाई है जिसमें सिर के बल गिरने के बाद मतदाता को जैसे-तैसे, हाथ-पांव मार बाहर निकलकर अपनी मरहम-पट्टी स्वयं ही करनी होती है. यह एक बड़ी और शानदार दावत की तस्वीर दिखाकर हाथ में थमाई चूरन की चटपटी गोली है जो हमें खाली पेट ही हजम करना है”.
क्या है यह प्रक्रिया?
पूरी चुनावी प्रक्रिया का प्रारम्भ उम्मीदवारों के चयन (माने उठापटक) से होता है. सर-फुटौवल और प्यार-मनुहार, ये दोनों विरोधाभासी गुण इसी महत्त्वपूर्ण समय एक-साथ गलबहियां करते दिखते हैं और ब्याह में रूठे फूफा की तरह मुँह फुलाए कुछ लोगों की उपस्थिति कोने में भी दर्ज की जाती रही है. आपसी ख़ुन्नस निकालने और छीनाझपटी के बाद अंततः तय हो ही जाता है कि फलाने-ढिमके को ‘मैदान में उतारा जाएगा’. जी, हां. सही पढ़ा आपने, यह कुश्ती टाइप ही होता है. यह जंग का जंग खाया ऐसा मैदान है जहां कांटे की टक्कर से कहीं अधिक गुलाबी धन उछाल मारता है.
प्रचार, आवागमन, खान-पान, होटल इत्यादि की व्यवस्था में लगा पैसा कहां से आता है? यह जानकर हमारी आत्मा को क्षति पहुंच सकती है अतः किसी गणितीय सूत्र की तरह चलो यह मान लेते हैं (suppose) कि वह एक बड़े बरगद के वृक्ष से टपकता है. तो, इस बरगद की टपकन से आए पैसे को जी-भरकर इस तरह खर्च किया जाता है जैसे कोई पिता अपनी बेटी के ब्याह में ‘कोई कमी नहीं रहनी चाहिए, भैया.’ की आत्मिक पुकार के साथ करता आया है.
इन सब तैयारियों के बीचों-बीच स्क्रिप्ट राइटर पूरी तन्मयता के साथ अपना काम लगातार कर रहा होता है. इस स्क्रिप्ट राइटर का प्रमुख गुण न केवल उसका उत्तम इतिहासकार होना है जिससे वह समय-समय पर हड़प्पा की ख़ुदाई की तरह विरोधी दल की सभी पीढ़ियों का ज्ञान उपलब्ध करा सके बल्कि अपशब्दों और गरिमाहीन शब्दों की जानकारी रखने वालों को भी चयन में प्राथमिकता दी जाती है. थोड़ी-बहुत कमी तो साब लोग बोलते समय पूरी कर लेते हैं. अब, आप उन्हें इतना कम भी न समझो. उनके पास भी अपना एकदम मौलिक शब्दकोष है भई.
खैर, इस सबके बाद वोटिंग, एडजस्टिंग, आरोप-प्रत्यारोप के बीच गिनती शुरू होती है. उसके बाद का मनभावन दृश्य बिल्कुल वही है जिसके लिए तमाम चैनल पलक-पाँवड़े बिछाए प्रतीक्षारत होते हैं. असाधारण प्रतिभा के धनी रायचंदों का एक समूह पूरी गंभीरता के साथ इस पर विस्तृत चर्चा करता है और फिर लड़ाई करते-करते वीरगति (बाहर निकाल दिया जाता है) को प्राप्त होता है. कभी-कभी बुद्धिमान एंकर, समय समाप्ति की घोषणा के साथ विराम लगा दिया करते हैं.
कुल मिलाकर अपार धन, मन, समय और मान हानि के बाद चुनाव का कोई परिणाम सामने आता भी है तो, वो मासूम जनता जो अब तक चुप थी, अब प्रश्न करती है. शक़ करने लगती है. यद्यपि इस सारे ड्रामे में उसकी भूमिका ‘अतिथि कलाकार’ की ही रहती है. जिसे फ़िल्म के हिट या फ्लॉप हो जाने पर एक कौड़ी का भी लाभ नहीं मिलता. लेकिन अब जनता की सुप्त इन्द्रियां चेतनावस्था को प्राप्त करती हैं.
मेरा कहना बस ये है कि इतना सब कुछ बर्बाद करने की आवश्यकता ही क्या है? जब ये तय है कि देश की किसी को पड़ी ही नहीं और न ही कोई देशसेवा के लिए यहां आया है. सबको पद की भूख है या पैसे की. तो फिर पहले ही सब लोग आपस में मिलकर सारा मामला क्यों नहीं सुलटा लेते? ‘बरगद’ तो सदैव तैयार रहता ही है उसके खींसे से दस-दस करोड़ (इतने में ही बिक जाओगे, सौ ज़्यादा लग रहे) खींचते रहो और प्रेम से बांट लो. यही लेने तो आये हो. सत्ता में आने का भत्ता.
ठीक है. अब जनता को माफ़ करो. क्योंकि हमारी नाक में तो दर्द (कृपया इसे ‘दम’ पढ़ें) होना ही है आप सीधे पकड़ो या घुमाके. उफ़्फ़. काहे सब टीवी से चिपके पड़े? कोई हारे-जीते, हमारी बला से. हमने तो बेवकूफ ही बनना है न, जी.. अब और कितनी सहिष्णुता चईये तुमको? हां, नहीं तो !
अचानक धरम पाजी और महमूद साब की बहुत जोर वाली याद आ रही है, एक कहते थे "चुन-चुन के बदला लूंगा". और दूसरे ने बताया था कि "The whole thing is that कि भइया...सबसे बड़ा रुपैया' आप अन्तर्यामी हो.
नमन.
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