आज का दिन 'अखिल भारतीय गोलगप्पा कमेटी' के लिए 'काला दिन' घोषित किया गया है. विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार 'खिचड़ी' को राष्ट्रीय भोजन के रूप में परोसे जाने पर देश के कोने-कोने, हर गली, मोहल्ले में खड़े गोलगप्पा उपभोक्ताओं ने गहरा दुःख व्यक्त किया है. उनका कहना है कि ये अपने चुनाव के लिए आश्वस्त थे और सरकार के इस ऐतिहासिक निर्णय से देशभर की स्वाद कलिकाओं को करारा झटका लगा है. कुछ तो गश खाकर सुन्न ही हो गई हैं.
कई महिलाएं और बच्चे तो फफकते हुए यहां तक कह रहे हैं कि 'गोलगप्पा विक्रेता' ही इस ग्रह का एकमात्र प्राणी है, जिसके लिए ये किसी भी स्थान पर खड़े होकर अपने नंबर की प्रतीक्षा करते आये हैं. पर इन्होंने इस बात की कभी कोई शिकायत की? नहीं न! क्योंकि ये प्राणी उनकी हर मांग (सुहागन वाली नहीं) पूरी करता है. नंबर न आने पर चटोरे, भुक्खड़ों को न केवल पिचके, टूटे गोलगप्पे जी भरकर ठूंसने देता है बल्कि GST की तरह इन्हें बिल में भी नहीं जोड़ता. कम नमक हो तो तुरंत ऐड कर देता है. खट्टा, मीठा, तीखा, चटपटा सब स्वादानुसार मुस्कुराते हुए बना देता है. खिचड़ी के साथ तो ये सारी संभावनाएं एक ही झटके में दफ़न हो जाती हैं. इस अखिल भारतीय सुलभ उपलब्ध अल्पाहार से आख़िर किसी को क्या परेशानी हो सकती है? जबकि पूरे देश की जनता हर मौसम में इसके साथ खड़ी रहती है, वो भी बेझिझक कटोरा लेके.
इस घटना ने मां को बच्चों पर इमोशनल अत्याचार करने का बहाना दे दिया है. वो मां, जो किसी मॉडल की तरह 'बस, दो मिनट' कह मैगी बना लाती थी. अब 'बस, दो सीटी' कह बच्चों की नाजुक भावनाओं से भयंकर खिलवाड़ करेगी. क्या होगा उन कोमल कल्पनाओं का जहां पिज़्ज़ा, बर्गर की गुदगुदी घाटियों में बच्चों का मन और तन दोनों ही फूल जाते थे.
आज का दिन 'अखिल भारतीय गोलगप्पा कमेटी' के लिए 'काला दिन' घोषित किया गया है. विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार 'खिचड़ी' को राष्ट्रीय भोजन के रूप में परोसे जाने पर देश के कोने-कोने, हर गली, मोहल्ले में खड़े गोलगप्पा उपभोक्ताओं ने गहरा दुःख व्यक्त किया है. उनका कहना है कि ये अपने चुनाव के लिए आश्वस्त थे और सरकार के इस ऐतिहासिक निर्णय से देशभर की स्वाद कलिकाओं को करारा झटका लगा है. कुछ तो गश खाकर सुन्न ही हो गई हैं.
कई महिलाएं और बच्चे तो फफकते हुए यहां तक कह रहे हैं कि 'गोलगप्पा विक्रेता' ही इस ग्रह का एकमात्र प्राणी है, जिसके लिए ये किसी भी स्थान पर खड़े होकर अपने नंबर की प्रतीक्षा करते आये हैं. पर इन्होंने इस बात की कभी कोई शिकायत की? नहीं न! क्योंकि ये प्राणी उनकी हर मांग (सुहागन वाली नहीं) पूरी करता है. नंबर न आने पर चटोरे, भुक्खड़ों को न केवल पिचके, टूटे गोलगप्पे जी भरकर ठूंसने देता है बल्कि GST की तरह इन्हें बिल में भी नहीं जोड़ता. कम नमक हो तो तुरंत ऐड कर देता है. खट्टा, मीठा, तीखा, चटपटा सब स्वादानुसार मुस्कुराते हुए बना देता है. खिचड़ी के साथ तो ये सारी संभावनाएं एक ही झटके में दफ़न हो जाती हैं. इस अखिल भारतीय सुलभ उपलब्ध अल्पाहार से आख़िर किसी को क्या परेशानी हो सकती है? जबकि पूरे देश की जनता हर मौसम में इसके साथ खड़ी रहती है, वो भी बेझिझक कटोरा लेके.
इस घटना ने मां को बच्चों पर इमोशनल अत्याचार करने का बहाना दे दिया है. वो मां, जो किसी मॉडल की तरह 'बस, दो मिनट' कह मैगी बना लाती थी. अब 'बस, दो सीटी' कह बच्चों की नाजुक भावनाओं से भयंकर खिलवाड़ करेगी. क्या होगा उन कोमल कल्पनाओं का जहां पिज़्ज़ा, बर्गर की गुदगुदी घाटियों में बच्चों का मन और तन दोनों ही फूल जाते थे.
या ख़ुदा! आज का दिन बेहद भारी है. हेल्थ के लिए योग को हाईलाइट करके भी चैन न मिला इनको! आय, हाय! यही दिन दिखाने के लिए पास्ता, नूडल का आविष्कार किया था!
आंखों के सामने रह-रहकर वो मार्मिक दृश्य घूम रहा है, जब दादाजी बच्चों को बस स्टॉप से घर लाते समय कान में फुसफुसाकर कहेंगे, "आज मम्मी ने राष्ट्रीय फ़ूड बनाया है" और बच्चे पछाड़ें खाकर, रोते-चीखते वहीं औंधे गिर पड़ेंगे.
इधर बच्चे मुंह फुलाए बैठे हैं, तो उधर बूढ़ी काकी न्यूज़ रीडर की बलैयां ले गदगद हो कह रही हैं, "देख लो, मैं न कहती थी एक दिन तुम सबको भी यही खाना पड़ेगा".
प्राप्त जानकारी के अनुसार अभी-अभी 'राष्ट्रीय गोलगप्पा संघ' ने खिचड़ी के ख़िलाफ़ ताजा-ताजा फ़तवा जारी कर अपने कर्त्तव्य का पूर्ण जिम्मेदारी से निर्वहन कर दिया है.
जो भी हो, सोशल मीडिया तक यह सकारात्मक संदेश (मिठाई नहीं रे) पहुंचना ही चाहिए कि इस 'व्यंजन' (ये कहते मेरी जुबान कट क्यों न गई) ने अमीर-गरीब के बीच की गहरी खाई को एक ही झटके में पाट दिया है. वो खिचड़ी जिसे बीमारों का खाना, बेस्वाद और उबला भोजन कह देश भर में अपमानित किया जाता रहा. जिसने न जाने कितनी तिरस्कृत नज़रों के वार सहे. आज अपने खोये हुए सम्मान को पाकर जी उठी है. यह राष्ट्रीय उद्धार हुआ है, जी!
जाओ, मिठाई बांटो.. गीत गाओ, इसे 'राष्ट्रीय स्लोगन' बनाओ-
"जलाओ धीमी सिगड़ीरोज खाओ खिचड़ी.
दिल्ली रहो या जलपाईगुड़ी लो पतंजलि खिचड़ी की पुड़ी"
"बस, दो सीटी में तैयार! भरा है, मां का छलकता प्यार!"
दीन-दुनिया की सारी ख़बरों से बेख़बर दाल-चावल गलबहियां कर भावविह्वल हैं. चावल, दाल को कोहनी मार कर बोल रहा है.. देखा, न पगली! तू यूं ही पिज़्ज़ा-बर्गर, मैगी देख परेशान होती थी. भगवान् के घर देर है, अंधेर नहीं!
दाल के राष्ट्रीय पुष्प जैसे मुखमण्डल से भी तुरंत प्यार भरी 'धत्त' निकली. लजाती हुई छिलके में मुंह छिपाकर बोली, "तू भी निकम्मा नहीं है रे!"
दोनों मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं. पार्श्व में बजता यह गीत इस माहौल का पूरा राजनीतिक लाभ उठाते हुए बड़े स्नेह से देशभक्ति और रोमांस की गरमागरम खिचड़ी परोस रहा है. मुए देसी घी की सुगंध वातावरण को मदहोश किये जा रही है-
"मेरे देश में पवन चले पुरवाई, मेरे देश में... ओ ओ मेरे देश में"
दूर किसी शहर में 'खिचड़ी मुक्ति संघ' जन्म ले रहा है.
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