जिंदगी को बिंदास और बेफिक्र तरीके से जीने की कला सीखनी हो तो भारत आइए. भारत में इंसान के पैदा होने से लेकर उसके मरने तक (100 ऊपर वालों के लिए) पर जश्न सा माहौल रहता है. हमारे एक मित्र के दादा जी 106 साल की उम्र में भगवान को प्यारे हुए और उनकी तेरहवीं के कार्यक्रम का इंतजाम किसी शादी के प्रोग्राम की तरह किया गया था. मेरा मतलब ये है कि उत्सवधर्मिता हर भारतीय की रगों में खून बनकर दौड़ती है. उत्सव मनाने का कोई भी मौका भारतीय कभी छोड़ते नही हैं. साल की शुरुआत में मकर संक्रांति से लेकर दिसंबर के अंत में क्रिसमस तक भारतीय धर्म-जाति-वर्ग आदि से ऊपर ऊठकर मोटे तौर पर करीब 36 त्योहार मनाते हैं. राज्यों के हिसाब में जाएंगे, तो ये लिस्ट और भी लंबी हो जाती है.
ये कहना गलत नहीं होगा कि साल के 365 दिनों में भारतीय हर रोज कोई न कोई उत्सव मनाने का मौका खोज ही लेते हैं. अभी दो दिन पहले ही महाशिवरात्रि थी और इसी महीने होली भी है. हमारे यहां कानपुर में तो होली सात दिनों तक खेली जाती है. दीपावली का भी हिसाब कुछ ऐसा ही है, ये भी 5 दिनों का फुल एंज्वायमेंट पैकेज है. भारत में बर्थडे पार्टी का चलन भी अब काफी बढ़ गया है. लोग अब बच्चों से लेकर बुजर्गों का जन्मदिन भी मनाने लगे हैं. वैवाहिक वर्षगांठ (Anniversary) के कार्यक्रमों का भी अब बोलबाला काफी बढ़ गया है. लेकिन, बीते साल आई कोरोना महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन ने इन सभी कार्यक्रमों पर एकदम से ब्रेक लगा दिया था. हालांकि, भारतीयों में कोरोना की उतनी दहशत नहीं थी, जितनी पुलिस के डंडे की थी. लेकिन, इसके बावजूद लोग अपने घरों में ही सिमट गए थे.
अब लॉकडाउन हट गया है और कोरोना के मामले फिर से बढ़ने लगे हैं. भारतीय उत्सवधर्मिता एक बार फिर से उफान मारने लगी है. शादी-बारात तक तो ठीक है, लोग अपनी भैंस का जन्मदिन मनाने लग पड़े हैं. महाराष्ट्र के ठाणे में एक भाई साहब को पार्टी करने की इतनी चुल थी कि उन्होंने अपनी भैंस का जन्मदिन मनाने के लिए लोगों की भीड़ जुटा ली. पार्टी में सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों से ठीक...
जिंदगी को बिंदास और बेफिक्र तरीके से जीने की कला सीखनी हो तो भारत आइए. भारत में इंसान के पैदा होने से लेकर उसके मरने तक (100 ऊपर वालों के लिए) पर जश्न सा माहौल रहता है. हमारे एक मित्र के दादा जी 106 साल की उम्र में भगवान को प्यारे हुए और उनकी तेरहवीं के कार्यक्रम का इंतजाम किसी शादी के प्रोग्राम की तरह किया गया था. मेरा मतलब ये है कि उत्सवधर्मिता हर भारतीय की रगों में खून बनकर दौड़ती है. उत्सव मनाने का कोई भी मौका भारतीय कभी छोड़ते नही हैं. साल की शुरुआत में मकर संक्रांति से लेकर दिसंबर के अंत में क्रिसमस तक भारतीय धर्म-जाति-वर्ग आदि से ऊपर ऊठकर मोटे तौर पर करीब 36 त्योहार मनाते हैं. राज्यों के हिसाब में जाएंगे, तो ये लिस्ट और भी लंबी हो जाती है.
ये कहना गलत नहीं होगा कि साल के 365 दिनों में भारतीय हर रोज कोई न कोई उत्सव मनाने का मौका खोज ही लेते हैं. अभी दो दिन पहले ही महाशिवरात्रि थी और इसी महीने होली भी है. हमारे यहां कानपुर में तो होली सात दिनों तक खेली जाती है. दीपावली का भी हिसाब कुछ ऐसा ही है, ये भी 5 दिनों का फुल एंज्वायमेंट पैकेज है. भारत में बर्थडे पार्टी का चलन भी अब काफी बढ़ गया है. लोग अब बच्चों से लेकर बुजर्गों का जन्मदिन भी मनाने लगे हैं. वैवाहिक वर्षगांठ (Anniversary) के कार्यक्रमों का भी अब बोलबाला काफी बढ़ गया है. लेकिन, बीते साल आई कोरोना महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन ने इन सभी कार्यक्रमों पर एकदम से ब्रेक लगा दिया था. हालांकि, भारतीयों में कोरोना की उतनी दहशत नहीं थी, जितनी पुलिस के डंडे की थी. लेकिन, इसके बावजूद लोग अपने घरों में ही सिमट गए थे.
अब लॉकडाउन हट गया है और कोरोना के मामले फिर से बढ़ने लगे हैं. भारतीय उत्सवधर्मिता एक बार फिर से उफान मारने लगी है. शादी-बारात तक तो ठीक है, लोग अपनी भैंस का जन्मदिन मनाने लग पड़े हैं. महाराष्ट्र के ठाणे में एक भाई साहब को पार्टी करने की इतनी चुल थी कि उन्होंने अपनी भैंस का जन्मदिन मनाने के लिए लोगों की भीड़ जुटा ली. पार्टी में सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों से ठीक वैसे ही दूरी बनाई गई थी, जैसी सड़क पर पड़े गोबर को देखकर कोई भी आम शख्स बनाता है. हम भारतीय होते बड़े 'जियाले' किस्म के हैं. बात सीमा पर चीनी सैनिकों से निपटने की हो या लॉकडाउन में सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचने की भारतीय कभी हार नहीं मानते हैं. कोरोना वायरस को तो भारतीयों ने लॉकडाउन हटने के खुली शराब की दुकानों में लगी लाइनों में ही पैरों के नीचे कुचल कर निपटा दिया था.
भारतीयों की इस जीवटता को देखने के बाद कोरोना भी दुबकने लगा था. थोड़ा-बहुत जो कोरोना बच गया था, किसी तरह खुद को छिपाता फिर रहा था. लेकिन, अब वह फिर से सक्रिय हो गया है और देश में कोरोना के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. महाराष्ट्र में स्थिति भयावह है, फिर भी भैंस का बड्डे तो बहुत जरूरी चीज है. अगर भैंस का बर्थडे नहीं मना तो हो सकता है, वो बुरा मानकर दूध कम देने लगे. ये वाला लॉजिक उन भाई साहब का नहीं मेरा है. लेकिन, उनके इस अप्रतिम साहस को देख के लग यही रह है कि उन्होंने शायद इसी वजह से ही इतना दमदार फैसला किया होगा. जन्मदिन मनाने की और कोई वजह मुझे तो समझ नहीं आ रही है. हां, पशु प्रेम की वजह से ऐसा किया गया हो, यह भी कारण हो सकता है. लेकिन, अपने पशु प्रेम के चक्कर में दूसरों की जान क्यों सांसत में डाली, ये थोड़ा अजीब है.
घर में बने अन्न की पहली रोटी गाय को देने जैसी परंपरा आज भी कई परिवारों में होती है. शायद ये भी एक वजह हो सकती है कि वह अपनी भैंस को गाय के सामने कमतर न महसूस करवाना चाह रहे हों. भारत जैसे देश में 'रंग' बहुत ही महत्वपूर्ण है. बच्चों के पैदा होने से लेकर उनकी शादी तक 'रंग' का विशेष ध्यान रखा जाता है. ऐसे में हो सकता है कि उन भाई साहब ने एक अच्छी पहल करते हुए भैंस का बड्डे मनाया हो. लेकिन, उनसे सही समय चुनने में गलती हो गई. खैर, अब लोगों में कोरोना का उतना डर रह नहीं गया है. उन्हें पता है कि भारत में ही दो वैक्सीन बन रही हैं और WHO भी किसी न किसी टीके को आए दिन मंजूरी दे ही रहा है.
भारत के दो वैक्सीन बना लेने के साथ ही लोगों का बचा-खुचा डर भी किनारे लग गया है. वैक्सीन के नाम से ही लोगों ने 'हर्ड इम्युनिटी' डेवलप कर ली है. सड़क और बाजारों में लोग आराम से टहलबाजी कर रहे हैं. चुनावी राज्यों में राजनीतिक दलों की रैलियों में आई भीड़ देखकर कोई भी बता सकता है कि कोरोना ने भारत में कदम रखा ही नहीं था. भारत में लोग अपनी जान हथेली पर रखकर चलते हैं. किसी को समझाओ, तो वो उल्टा ज्ञान देने लगता है कि कोरोना से अभी तक जितनी मौतें हुई हैं, उससे ज्यादा हर साल रोड एक्सीडेंट में लोग मर जाते हैं. लेकिन, मैं तो यही कहूंगा कि सोशल डिस्टेंसिंग के साथ मास्क और सैनिटाइजर का उपयोग करते रहिए. वैक्सीन लग जाए फिर भी, क्योंकि अच्छी आदतें अपनाना बुरा नही है.
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