गणित होने को तो बड़ी कॉम्प्लिकेटेड है और शायद यही वो कारण है जिसके चलते तमाम लोग इससे दूरी बनाते हैं. वहीं जो लोग गणित को पसंद करते हैं या ये कहें कि गणित में इंटरेस्ट लेते हैं उनका मानना है कि गणित और कुछ नहीं बस संख्या का खेल है. संख्याओं के बारे में पता हो तो गणित बहुत आसान है. भीड़ भी संख्या है मगर भीड़ आसान नहीं होती और ये तब तो बिल्कुल भी आसान नहीं होती जब मामला अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक हो. भीड़ का रूल बहुत सीधा, बहुत सिंपल है. भीड़ के अनुसार अल्पसंख्यक हमेशा बहुसंख्यक के हाथों कूटा जाएगा. भीड़ को कानून की परवाह नहीं है भीड़ का अपना कानून है और इसे विडंबना कहें या कुछ और, जब मौका मिलता है तो ये दुस्साहसी भीड़ कानून को भी कचर के कूट देती है. इन बातों पर विश्वास न हो तो मथुरा से लेकर पंजाब तक कहीं का भी रुख कर लीजिये. मथुरा में हिंदूवादी संगठनों की भीड़ ने पुलिस वालों को कूटा है तो वहीं पंजाब में नए कृषि बिल के विरोध में लंबे समय से प्रदर्शन कर रहे किसानों ने भाजपा विधायक को कचर दिया है. कहने सुनने को बातें तमाम हैं. करने पर आ जाए तो आदमी इनको लेकर लंबा विमर्श भी कर सकता है लेकिन बात फिर वही है कि, सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का.' आइये इधर उधर न निकलते हुए क्यों न सीधे मुद्दे पर ही आया जाए क्या पता हमारे द्वारा लिखते और आप द्वारा पढ़ते हुए विमर्श की गुंजाइश बन जाए और हम और आप दोनों ही किसी तरह के ठोस निष्कर्ष पर पहुंच पाएं.
तो गुरु पहला मामला है वृंदावन के कुंभ क्षेत्र का. यहां किसी बात को लेकर पुलिस वालों और आर एस एस के लोगों के बीच विवाद हो गया. वृंदावन यूपी में है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ हैं जो भाजपा के अलावा संघ के...
गणित होने को तो बड़ी कॉम्प्लिकेटेड है और शायद यही वो कारण है जिसके चलते तमाम लोग इससे दूरी बनाते हैं. वहीं जो लोग गणित को पसंद करते हैं या ये कहें कि गणित में इंटरेस्ट लेते हैं उनका मानना है कि गणित और कुछ नहीं बस संख्या का खेल है. संख्याओं के बारे में पता हो तो गणित बहुत आसान है. भीड़ भी संख्या है मगर भीड़ आसान नहीं होती और ये तब तो बिल्कुल भी आसान नहीं होती जब मामला अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक हो. भीड़ का रूल बहुत सीधा, बहुत सिंपल है. भीड़ के अनुसार अल्पसंख्यक हमेशा बहुसंख्यक के हाथों कूटा जाएगा. भीड़ को कानून की परवाह नहीं है भीड़ का अपना कानून है और इसे विडंबना कहें या कुछ और, जब मौका मिलता है तो ये दुस्साहसी भीड़ कानून को भी कचर के कूट देती है. इन बातों पर विश्वास न हो तो मथुरा से लेकर पंजाब तक कहीं का भी रुख कर लीजिये. मथुरा में हिंदूवादी संगठनों की भीड़ ने पुलिस वालों को कूटा है तो वहीं पंजाब में नए कृषि बिल के विरोध में लंबे समय से प्रदर्शन कर रहे किसानों ने भाजपा विधायक को कचर दिया है. कहने सुनने को बातें तमाम हैं. करने पर आ जाए तो आदमी इनको लेकर लंबा विमर्श भी कर सकता है लेकिन बात फिर वही है कि, सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का.' आइये इधर उधर न निकलते हुए क्यों न सीधे मुद्दे पर ही आया जाए क्या पता हमारे द्वारा लिखते और आप द्वारा पढ़ते हुए विमर्श की गुंजाइश बन जाए और हम और आप दोनों ही किसी तरह के ठोस निष्कर्ष पर पहुंच पाएं.
तो गुरु पहला मामला है वृंदावन के कुंभ क्षेत्र का. यहां किसी बात को लेकर पुलिस वालों और आर एस एस के लोगों के बीच विवाद हो गया. वृंदावन यूपी में है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ हैं जो भाजपा के अलावा संघ के चहीते हैं पुलिस का बैक फुट में आना लाजमी था. यहां पुलिस वाले बैकफुट में आए भी मगर होइ वही जो राम रचि राखा बल भर कूटे गए.
मामले का वीडियो इंटरनेट पर जंगल की आग की तरह वायरल हो रहा है और यदि इस वीडियो का अवलोकन किया जाए तो वृंदावन के पुलिस वालों ने ठीक वैसे ही मार खाई है जैसी मार साउथ की फिल्मों में गुंडों के जरिये पुलिस वालों को पड़ती है और फिर हीरो उन्हें बचाने आता है. अफसोस यहां वृंदावन में पब्लिक के हाथों दौड़ा दौड़ा के पिट रहे पुलिस वालों को बचाने न ही हीरो आया और न ही कोई मां का लाल.
अच्छा हां ये बताना भी बहुत ज़रूरी है कि वृंदावन के इस मामले में पुलिस वाले ही पहले फैंटम बने थे लेकिन शायद उस कहावत को भूल गए जिसमें कहा गया है कि जीवन में कभी न कभी सेर को सवा सेर मिलता जरूर है. बताया जा रहा है कि मनोज कुमार नाम का संघ प्रचारक यमुना में स्नान कर रहा था कि तभी पुलिस वालों ने बदसलूकी कर दी और पुलिस वालों को लेने के देने पड़ गए.
लोगों ने दौड़ा के मारा. हेलमेट फेंक के मारा वहीं महिलाएं तो पुलिस वालों को ऐसे कोस रही थीं कि कितना भी सख्त लड़का क्यों न हो कान के बाल जल जाएं. पत्थर पिघल के मोम हो जाए. जो वीडियो वायरल हुआ है यदि उसे देखें तो साफ है कि पुलिस की हालत भीगी बिल्ली जैसी थी.
पुलिस की बदसलूकी से जनता कितनी आहत थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बीजेपी मेट्रो पॉलिटन प्रेसिडेंट विनोद अग्रवाल जिला अस्पताल के सामने आमरण अनशन पर बैठ गए. यही फ़िल्म की एंडिंग थी इस आमरण अनशन ने होली से ठीक पहले प्रशासन के हाथ पैर फुला दिए.
डीएम, कप्तान सभी मौके पर पहुंच गए और उन लोगों को मनाने का प्रयास किया जो गंभीर रूप से आहत थे. बात आहत की हुई है तो ये एक ऐसी अवस्था होती है जब कभी कभी आदमी इस हद तक बेबस और लाचार हो जाता है कि न तो वो किसी को कूटने से पहले कुछ सोचता है और न ही उसे ये ख्याल रहता है कि जिसे मारा जा रहा है उसके कपड़े फट रहे हैं.
ऐसी स्थिति में मामला किस हद तक पेचीदा होता है गर जो इस बात को समझना हो तो हम पंजाब के मुक्तसर का रुख कर सकते हैं. जहां भाजपा विधायक अरुण नारंग प्रदर्शनकारी किसानों के बीच प्रेस कांफ्रेंस करने पहुंचे थे. विधायक जी किसानों के बीच सरकार का पक्ष रखना चाहते थे. विधायक जी की ये सोच गुनाह थी. दो गुना थी भूल चूक में लेनी की देनी हो गई.
मारते और कपड़े फाड़ते वक़्त जनता ने इन्हें विधायक की तरह नहीं बल्कि एक आम आदमी की तरह देखा और वैसी ही कुटाई की. होने को तो विधायक जी का वीडियो इंटरनेट पर वायरल है. देखें तो मिलता है कि इसमें लोगों ने इन्हें तबियत से मारा है और बिल्कुल आम आदमी की तरह मारा है. जिस तरह पंजाब में बीजेपी वाले विधायक जी पिटे हैं कहना गलत नहीं है कि जनता ने अपने चुने हुए नुमाइंदे को कूटने में लाज शर्म सब ताख पर रख दी.
पंजाब वाले इस मैटर में असली मैटर कुछ यूं था कि प्रदर्शनकारी भाजपा कार्यलय के पास अरुण नारंग के आने की प्रतीक्षा में थे. जैसे ही विधायक जी मौके पर आए प्रदर्शनकारी किसानों ने उनके ऊपर काली इंक डाल दी. विधायक के साथ इस तरह की बदसलूकी हो रही थी इसलिए साथ आए पुलिस वालों ने उन्हें एस्कॉर्ट करने की कोशिश की मगर जनता को कुछ सुनना कहां था उन्होंने उनकी पिटाई की और फिर उनके कपड़े फाड़ दिए.
मामले के मद्देनजर भले ही कांग्रेस, संयुक्त किसान मोर्चा और शिरोमणि अकाली दल ने विधायक के साथ हाथापाई करने वाले प्रदर्शनकारी किसानों की कड़े शब्दों में निंदा कर दी हो लेकिन जो होना था हो गया. विधायक जी प्रदर्शनकारी बहुसंख्यक किसानों के बीच अल्पसंख्यक थे फुटबॉल बना दिये गए जिन्हें लोगों ने जी भरकर खेला भी.
बहरहाल चाहे वो वृंदावन में पुलिसवालों का भाजपा और संघ के लोगों से पिटना हो या फिर पंजाब में विधायक जी के साथ हुई हिंसा साफ है कि बहुसंख्यक कहीं भी हों उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वो अल्पसंख्यक को अपना निशाना बनाते हैं. ख़ैर इन दोनों ही मामलों में प्रशासन क्या फैसला लेता है इसका जवाब तो वक़्त देगा लेकिन जैसा मौजूदा वक्त है भैंस उसी की है जिसके पास लाठी है.
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