जब मैंने पहली बार शाहरुख खान की दिलवाले दुल्हनियां देखी तो बड़ा अफसोस हुआ. शाहरुख मेरे पसंदीदा अभिनेता हैं. लेकिन जैसे-जैसे उनकी फ़िल्में देखता गया, 'कमतरी' को लेकर मेरा अफसोस भी बढ़ता गया. पिछड़े गांव देहात में बचपन गुजारकर पढ़ाई लिखाई करने शहर पहुंचे मेरे जैसे तमाम बच्चे भी अफसोस करते रहे होंगे. अफसोस इस बात का कि काश हमारे पिता भी 'बॉलीवुड के पॉप्स' जितने लोकतांत्रिक होते. साथ बैठकर सिगरेट के दो चार कश खींच लेते. छलक छलक छलकाकार कम से कम एकाध कप बियर ही चियर्स कर लेते. और नशे के दौर में हमारे पिता कहते- 'जा मेरे बेटे और जो लड़की तुझे पसंद आए, उसे न्यूईयर कार्ड, लव लेटर- जो मन करे दे आ. हम तुमको पीटेंगे नहीं. और किसी को पीटने भी नहीं देंगे.'
किसी लड़की से प्यार का इजहार करना, उसे न्यूईयर कार्ड देना जुर्म नहीं है. इसके लिए पिताओं की पिटाई का हमेशा विरोध होते रहना चाहिए. जवानी पर जोर चलता है क्या. वो दौर ही दूसरा था, लेकिन भला हो शाहरुख खान और बॉलीवुड का. जिनकी फिल्मों ने समाज को उसकी जड़ता से बहुत हद तक बाहर निकाला. बॉलीवुड ने कुछ सिखाया हो या ना सिखाया हो. मगर मनुष्य बनने की दिशा में प्रेम के मामले में हमारी संकीर्ण भारतीय मानसिकता को कमजोर किया है. ये दूसरी बात है कि हमारी पीढ़ी शाहरुख के सुझाए रास्ते की वजह से गुणसूत्र में मिले तमाम 'दकियानूसी' चीजों से बाहर है. अब यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पिताओं के दौर में शाहरुख नहीं थे. अगर तब शाहरुख होते तो इन पंक्तियों का लेखक भी अपने 'बाप जी' को पापा की जगह 'पॉप्स' या 'डूड' कहता पाया जाता और उसकी जिंदगी में कोई 'सिमरन' होती. जिन्हें जिंदगी में अपने हिस्से की सिमरन ना मिली हो वो खुद को दोष देना बंद करें अब. दोष तो पिताओं का है जो 'पॉप्स' वे नहीं बन पाए थे.
आधुनिक बनने का फील लेने निकले तो ढाई ढाई किलो के प्रहार से तोड़ा गया मनोबल
हमारी पीढ़ी के तमाम बच्चों की हालत धोबी के कुत्ते जैसी ही मानी जाएगी. जो ना घर का रहा और ना घाट का. बाप डूड नहीं बन पाया. रामयाण महाभारत से प्रेरित...
जब मैंने पहली बार शाहरुख खान की दिलवाले दुल्हनियां देखी तो बड़ा अफसोस हुआ. शाहरुख मेरे पसंदीदा अभिनेता हैं. लेकिन जैसे-जैसे उनकी फ़िल्में देखता गया, 'कमतरी' को लेकर मेरा अफसोस भी बढ़ता गया. पिछड़े गांव देहात में बचपन गुजारकर पढ़ाई लिखाई करने शहर पहुंचे मेरे जैसे तमाम बच्चे भी अफसोस करते रहे होंगे. अफसोस इस बात का कि काश हमारे पिता भी 'बॉलीवुड के पॉप्स' जितने लोकतांत्रिक होते. साथ बैठकर सिगरेट के दो चार कश खींच लेते. छलक छलक छलकाकार कम से कम एकाध कप बियर ही चियर्स कर लेते. और नशे के दौर में हमारे पिता कहते- 'जा मेरे बेटे और जो लड़की तुझे पसंद आए, उसे न्यूईयर कार्ड, लव लेटर- जो मन करे दे आ. हम तुमको पीटेंगे नहीं. और किसी को पीटने भी नहीं देंगे.'
किसी लड़की से प्यार का इजहार करना, उसे न्यूईयर कार्ड देना जुर्म नहीं है. इसके लिए पिताओं की पिटाई का हमेशा विरोध होते रहना चाहिए. जवानी पर जोर चलता है क्या. वो दौर ही दूसरा था, लेकिन भला हो शाहरुख खान और बॉलीवुड का. जिनकी फिल्मों ने समाज को उसकी जड़ता से बहुत हद तक बाहर निकाला. बॉलीवुड ने कुछ सिखाया हो या ना सिखाया हो. मगर मनुष्य बनने की दिशा में प्रेम के मामले में हमारी संकीर्ण भारतीय मानसिकता को कमजोर किया है. ये दूसरी बात है कि हमारी पीढ़ी शाहरुख के सुझाए रास्ते की वजह से गुणसूत्र में मिले तमाम 'दकियानूसी' चीजों से बाहर है. अब यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पिताओं के दौर में शाहरुख नहीं थे. अगर तब शाहरुख होते तो इन पंक्तियों का लेखक भी अपने 'बाप जी' को पापा की जगह 'पॉप्स' या 'डूड' कहता पाया जाता और उसकी जिंदगी में कोई 'सिमरन' होती. जिन्हें जिंदगी में अपने हिस्से की सिमरन ना मिली हो वो खुद को दोष देना बंद करें अब. दोष तो पिताओं का है जो 'पॉप्स' वे नहीं बन पाए थे.
आधुनिक बनने का फील लेने निकले तो ढाई ढाई किलो के प्रहार से तोड़ा गया मनोबल
हमारी पीढ़ी के तमाम बच्चों की हालत धोबी के कुत्ते जैसी ही मानी जाएगी. जो ना घर का रहा और ना घाट का. बाप डूड नहीं बन पाया. रामयाण महाभारत से प्रेरित होकर जब कभी बाप को 'तात' कहने की कोशिश हुई तो दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की पीढ़ी के हमारे महाशयों ने उसे मजाक मां लिया. तात के संबोधन पर हम जमकर पेले गए. 'जब चली ठंडी हवा, जब उठी काली घटा' अकेले में गुनगुनाने वाले पिताओं ने पीठ पर जो ढाई ढाई किलो के प्रहार का बोझ थोपा, आज भी दर्द महसूस होता है. उस बोझ की वजह से वे सदा सर्वदा 'पापा' ही बनकर आधुनिक होने का फील लेते रहे.
इधर हम भी 'बाप' की भूमिका में हैं. चूंकि हम शाहरुख से ट्रेंड पीढ़ी हैं तो हमारे बच्चे हमें पापा पुकारते हैं. कभी कभार डैडी कह देते हैं. डैडी ज्यादा इलीट लगता है और झेंप में खुद का निरीक्षण करने लगते हैं. अपनी चेचिस में डैड जैसे लक्षण हैं भी क्या? डैडी सुनकर परदेस में शाहरुख के डैडी अनुपम खेर से तुलना करते वक्त ध्यान तब भंग होता है जब पत्नी तुरंत दो किलो आलू बाजार से लाने या मंगाने का आदेश दे डालती है.
उधर, निम्न मध्यवर्ग की भारतीय महिलाओं को अपने बच्चों से शौहर को 'डैडी' कहलवाने में वही खुशी मिलती है जो 'गरीब' पतियों की तरफ से गिफ्ट में सोने की जुलरी मिलने पर प्राय: होती है. आज के बच्चे ज्यादा खुले हैं. मेरे भी. प्रसन्न हुए तो कभी कभार 'तात' कहा और ज्यादा मस्त हुए तो 'अब्बाजान' भी. वैसे रेगुलर पापा ही कहते हैं. 'पॉप्स' नहीं कहा. शायद कॉलेज ऑलेज जाने के बाद उनमें पॉप्स कहने की हैसियत आए. मैं लालायित हूं. खैर, उनने जब दिल्लगी के मूड में होते हैं- दूसरे संबोधन मिलते ही रहते हैं.
अच्छा है. इसमें कोई बुराई नहीं. भारतीय समाज को बॉलीवुड का एहसानमंद होना चाहिए कि उसने तमाम टैबू ख़त्म किए हैं. अब बताइए, भला पिता के साथ बालिग़ बेटों के शराब और सिगरेट पीने पर मनाही क्यों? बालिग़ हैं तो अच्छी और बुरी चीजों की समझ कोई अपने पिता के आधार पर ही बनाए क्यों?
शाहरुख की फिल्मों को भी श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने समाज के इस पूर्वाग्रह को भी दूर करने में योगदान दिया. पिता और पुत्र साथ में शराब भी पी सकते हैं. एकसाथ डांस कर सकते हैं. और लड़कियों को एकसाथ फ्लर्ट करने में भी ज्यादा बुराई नहीं है. इसका बहुत थोड़ा असर शहर से गांव देहात तक दिखता है. बाप बेटे साथ-साथ तो नहीं मगर अपनी अपनी सोहबत में बैठकर पी ही रहे हैं. आर्केस्ट्रा में डांसर के साथ झूमने का मौका भी निकाल लिया गया है. पिता डांस फ्लोर पर रहेगा तो बेटा गायब और बेटा रहेगा तो पिता गायब. अभी टैबू है थोड़ा इस बारे में मगर बॉलीवुड की 'जवानी जानेमन' जैसी फ़िल्में देखकर भरोसा जिंदा है कि यह टैबू भी टूटेगा. पिता पुत्र एक ही लड़की को साथ फ्लर्ट करेंगे और पिता बेटी की सहेली के साथ फ्लर्ट करता नजर आ सकता है.
मौसी मुंहबोली है तो प्यार करने में हर्ज थोड़े ना है
अब जबकि पिता पुत्र ट्रेन हो गए तो बॉलीवुड भला अपनी जिम्मेदारी को और आगे क्यों ना बढ़ाए, यह जरूरी भी था. पिता पुत्र के साथ पीने में हर्ज नहीं है तो भला हीरोइन की बूढ़ी दादी अपने होने वाले दामाद के साथ क्यों नहीं पी सकती है. वह भी मथुरा जैसे कस्बाई शहरों की. शाहरुख की पत्नी गौरी खान को ईश्वर दुनिया जहान की खुशियां दे. उन्होंने ना जाने कितने कंवारे, बिधुर विधवा, सधवाओं की जिंदगी में उम्मीद की रोशनी जलाई है. उन्होंने प्रेम को लेकर एक और टैबू तोड़ने की कोशिश की है डार्लिंग्स के जरिए. मौसी अगर मुंहबोली है तो प्यार करने में गुनाह नहीं. वैसे भी किसी प्रेम में पार्टनर के बीच उम्र के अंतर को लेकर खामखा बातें होती ही रहती हैं. इस बारे में प्रशिक्षण जरूरी था. अगर बहन, मौसी, बुआ या चाची सगी नहीं हैं और मुंहबोली हैं तो उनसे प्यार करने में कोई गुनाह नहीं है- अगर दोनों राजी हैं. और उनका प्रेम सहज है.
अभी कुछ दिन पहले सैफ अली खान करीना कपूर खान और उनके बेटे तैमूर का एक बहुत ही क्यूट वीडियो देखने को मिला. तैमूर बहुत ही क्यूट बच्चा है. प्यारा सा, गोलू टाइप का. जबसे पैदा हुआ है- लोगों की आंखों का तारा बना हुआ है. हालांकि उसे आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा. जब तैमूर पैदा हुआ था तो कुछ लोगों ने उसके नाम को लेकर भयंकर टाइप की आलोचनाएं की थीं. लोगों ने कहा कि क्या सैफ को कोई और नाम नहीं मिला जो उन्होंने तैमूर जैसे आततायी के नाम पर अपने बेटे का नाम रखा. वे तैमूर नाम के जरिए क्या सिद्ध करना चाहते हैं. हालांकि लोगों के सवालों पर तब सैफ भाई ने भी यही बताया कि यार मैंने इतना नहीं सोचा था जितना आप सोच रहे हैं. ये नाम मेरे को पसंद था. और जहां तक तैमूर के आततायी होने का सवाल है. अशोक जिसे महान कहा जाता है- वह क्या कम क्रूर था.
काजल की कोठारी में रहने के बावजूद तैमूर बेरंगा नहीं हुआ
खैर बात वीडियो की. वीडियो में तैमूर की मासूमियत सच में बहुत प्यारी है. सैफ कार से उतरकर निकल आते हैं. उनके पीछे भागते तैमूर 'अब्बा' 'अब्बा' चिल्लाकर उन्हें बुलाते दिखते हैं. तैमूर की मासूमियत की वजह से ही वीडियो वायरल है और स्वाभाविक रूप से मेरी भी नजर उस पर पड़ी. लेकिन मेरे लिए हैरानी का विषय तैमूर की मासूमियत की बजाए सैफ को डैडी, डूड, डूडू, पाप्स आदि ना कहने की बजाए 'अब्बा' कहना था. अभी कुछ महीने पहले सारा अली खान ने भी सैफ को जन्मदिन की बधाई देते हुए 'अब्बाजान' ही कहा था. तब मुझे लगा कि यार हो सकता है सारा, जब पैदा हुई थीं उनके ग्रैंड पा पटौदी साब थे. पुराने ख्याल के 'सांस्कृतिक' आदमी रहे होंगे. इस वजह से नाती पोतों को उन्होंने 'अब्बाजान' संबोधन के लिए प्रेरित किया हो. बॉलीवुड में बिकनी लाने वाली शर्मिला जी ने जरूर बच्चों को ऐसा नहीं सिखाया होगा.
तैमूर का वीडियो देखने के बाद मेरा दिमाग चकरघिन्नी का शिकार हो गया है. अब पटौदी साब नहीं हैं. सैफ के परिवार में ब्याहकर आने वाली तीन महिलाएं (शर्मिला टैगोर, अमृता सिंह और करीना कपूर) गैर मुस्लिम हैं. दूसरे घर जाने वाली सैफ की बहन का पति गैर मुस्लिम है. उनके परिवार को मिलाजुला ही कहा जाएगा. आमतौर पर महिलाएं ही बच्चों को दुनियादारी से परिचय करवाती हैं. वही शब्द सिखाती हैं कि कौन अब्बा, कौन अम्मा, कौन खाला कौन ताया-ताऊ आदि आदि हैं. मेरे लिए हैरान करने वाली बात थी, लेकिन संतुष्टि भी है कि चलो मुंबई जैसे महानगर में सैफअली खान जैसे सितारों के घर में सांस्कृतिक माहौल मजबूत हैं. कम से कम उनके बच्चे डैडी-डूडू-पाप्स नहीं पुकारते. और आज फील हो रहा है कि चलो अपुन भले अपने बच्चों को अपने जैसा नहीं बना पाए मगर तैमूर एक अलग और मेरी पहुंच की दुनिया से ना होने की बावजूद मेरे जैसा है. सांस्कृतिक तैमूर को देखकर लग रहा कि सैफ ने अपने घर में बॉलीवुड फिल्मों पर बैन कर रखा है.
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