रहिमन साबुन राखिए बिन साबुन सब सून. रहीम दास जी अगर आज होते तो पानी से पहले साबुन के लिए ऐसा कोई दोहा ज़रूर लिखते. आम जीवन में पवित्रतम वस्तु का दर्जा प्राप्त साबुन हर गुसलखाने में शान से बैठा है. कोई अप्सरा ब्रांड है तो कोई माचो मैन ब्रांड है. हम लोग भी सुबह सवेरे बिना साबुन को मस्तक पर पोते कहां पवित्र हो पाते है भला. वैसे आम आदमी का जीवन हमेशा आम नहीं कभी कभी नींबू भी हो जाता है भाई साहब. मैं सदैव जल संरक्षण का स्वयंभू ब्रांड एंबेसडर बनकर पेट्रोल की माफिक पानी बचाता हूं. यहां तक कि नहाने वहाने जैसे अनुत्पादक कार्यों से खुद को भरसक बचाने का उपक्रम तब तक करता हूं जब तक कि हमारी मलकिन यानि श्रीमती जी शास्त्र ग्रंथ से एकाध श्लोक या दोहा मेरे मुंह पर मार न दे.
अब देखिए एक किताब है प्रायश्चित तत्त्व उसमें एक श्लोक है...
स्नातोधिकारी भवति दैवे पैत्रे च कर्मणि
अस्नातस्य क्रिया सर्वा भवंति हि यातोफला
प्रातः समाचरेत्स्नानमतो नित्यमतिंद्रत:
इसका कुल जमा अर्थ यही है कि बिना स्नान सब कर्म निष्फल है. यही सुनाकर मेरी अर्धांगिनी जब भी जल के दुरूपयोग के लिए हूंचती हैं तो मैं भी स्नान के सात प्रकार में मानस स्नान यानि नारायण के नाम का मानसिक जाप से आत्मा से शरीर तक की शुद्धि वाला राग छेड़ देता हूं. लेकिन जब अति हो जाती है तो इस नश्वर देह के प्रक्षालन हेतु गुसलखाना का रुख लेना ही पड़ता है. अच्छा आम आदमी की जिंदगी में कितनी खटाई भरी पड़ी है कि आपसे क्या कहूं.
मेरी जिंदगी में कितना खटराग है कि पूछिए ही मत. वैसे ही नहाने धोने की औचारिकता यदा कदा ही होती...
रहिमन साबुन राखिए बिन साबुन सब सून. रहीम दास जी अगर आज होते तो पानी से पहले साबुन के लिए ऐसा कोई दोहा ज़रूर लिखते. आम जीवन में पवित्रतम वस्तु का दर्जा प्राप्त साबुन हर गुसलखाने में शान से बैठा है. कोई अप्सरा ब्रांड है तो कोई माचो मैन ब्रांड है. हम लोग भी सुबह सवेरे बिना साबुन को मस्तक पर पोते कहां पवित्र हो पाते है भला. वैसे आम आदमी का जीवन हमेशा आम नहीं कभी कभी नींबू भी हो जाता है भाई साहब. मैं सदैव जल संरक्षण का स्वयंभू ब्रांड एंबेसडर बनकर पेट्रोल की माफिक पानी बचाता हूं. यहां तक कि नहाने वहाने जैसे अनुत्पादक कार्यों से खुद को भरसक बचाने का उपक्रम तब तक करता हूं जब तक कि हमारी मलकिन यानि श्रीमती जी शास्त्र ग्रंथ से एकाध श्लोक या दोहा मेरे मुंह पर मार न दे.
अब देखिए एक किताब है प्रायश्चित तत्त्व उसमें एक श्लोक है...
स्नातोधिकारी भवति दैवे पैत्रे च कर्मणि
अस्नातस्य क्रिया सर्वा भवंति हि यातोफला
प्रातः समाचरेत्स्नानमतो नित्यमतिंद्रत:
इसका कुल जमा अर्थ यही है कि बिना स्नान सब कर्म निष्फल है. यही सुनाकर मेरी अर्धांगिनी जब भी जल के दुरूपयोग के लिए हूंचती हैं तो मैं भी स्नान के सात प्रकार में मानस स्नान यानि नारायण के नाम का मानसिक जाप से आत्मा से शरीर तक की शुद्धि वाला राग छेड़ देता हूं. लेकिन जब अति हो जाती है तो इस नश्वर देह के प्रक्षालन हेतु गुसलखाना का रुख लेना ही पड़ता है. अच्छा आम आदमी की जिंदगी में कितनी खटाई भरी पड़ी है कि आपसे क्या कहूं.
मेरी जिंदगी में कितना खटराग है कि पूछिए ही मत. वैसे ही नहाने धोने की औचारिकता यदा कदा ही होती है. उसमे भी एक दिन गुसलखाना में जब हम साहब नहा रहे थे तो नहाते वक्त साबुनदानी से मैंने शरीर पर रगड़ने के लिए साबुन उठाया तो वह भी सर्र से सरक लिया. बेचारा साबुन मेरी विशालकाय देह से वैसे ही डरा था उस पर उसकी खुद की काया भी जीरो फिगर को प्राप्त कर चुकी थी. तो साहब मेरी हथेली में आते साबुन ने जो कल्टी मारी कि पूछिए ही मत.
भला हो कमोड से टकरा कर वह फिर मेरे निकट आकर शवासन की मुद्रा में लेट गया. अच्छा हम मैंगो पीपल भी बड़े चीमड़ टाइप के लोग होते है. छः महीने दांतों से रगड़कर यूज किए ब्रश को भी सहेज कर इसलिए सहेज लेते है कि पायजामा में नाड़ा डालने के काम आएगा. फिलहाल फर्री जैसे साबुन के फिसलने और उसे फिर से कब्जे में लेकर उसे अंतिम दम तक देह से रगड़ने की प्रक्रिया हर घर में सामान्य है.
बड़े लोग क्या करते होंगे मैं नहीं जानता. वैसे भी बड़े लोग सुनते है अब साबुन की बट्टी की जगह कोई शॉवर जेल शेल लगाते है . अपना क्या था भाई ...मैने भी नए साबुन के खर्च को एकाध दिन और टालते लुटी पिटी काया समेत फर्श पर चिपके पड़े साबुन महाशय को अंततः खुरचकर उठाया और देह का स्पर्श कराकर उन्हें शौच उपरांत हस्त प्रक्षालन के कार्य में नियोजित कर दिया. लेकिन गुरु बात इतनी ही नहीं है.
हम मिडिल क्लास वालों के यहां गुसलखाना रचनात्मकता का केंद्रीय संस्थान होता है. प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्किमिडीज का यूरेका यूरेका तो आपने सुना ही होगा. लेकिन मैं गुसलखाने से एक प्रश्न लेकर निकला कि यार नहाने में साबुन की अनिवार्यता कैसे और क्यों आई. नदी घाटी सभ्यता और तालाब कुंआ और बावड़ी में तैर तार के नहाने वाले अपने देश में जो तालाब की मिट्टी से अपनी देह रगड़ कर सालों साल निरोग काया प्राप्त करता था आज क्यों साबुन की शरण में बाथरूम में नतमस्तक पड़ा है.
सही कहें तो हमे साहब इसमें पूंजीवादी साजिश की घनघोर महक सुंघाई देने लगी. बताइए भला गंगा की धारा में डुबकी मारने वाले देश में बाथ टब में लेटकर हाथ में साबुन रगड़कर चेहरे को गोरा बनाने का ज्ञान हर दस मिनट पर टेलीविजन पर ऐसे बांटा जा रहा जैसे कि यह साबुन न होकर कायाकल्प वटी हो. अपन को क्या बचपन से मां पिताजी ने रगड़ रगड़कर ऐसे ही साबुन के संस्कार दिमाग में भर दिए कि अब दुनियां की सबसे पवित्र वस्तु के रूप में यह जीवन का हिस्सा बन चुकी है.
यह संस्कार अब इतना गहरा हो चुका है कि अब नहाते वक्त अगर साबुन हाथ से छिटक जाता है तो लगता है कि जैसे कि कोई प्रेमिका हाथ छिटककर चली गई. सही बताएं इसी क्रम में मैंने साबुन के इतिहास समेत स्नान की प्रथा का भी गूगल बाबा के आश्रम समेत कई संदर्भ ग्रंथों को उलट पलट डाला.
शास्त्रों में स्नान के कई प्रकार बताएं गए हैं. बात मिट्टी, रेत, हल्दी चन्दन के उबटन से होती हुई साबुन और अब बॉडी जेल की परंपरा पर समाप्त हुई. कितना बदल गया न सब कुछ. एक साबुन का हाथ से फिसलना कितना कुछ बता गया.
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