इधर कुछ दिनों से सिलबट्टे को लेकर जो तथाकथित विमर्श चल रहा है उसमें गुट भले ही दो बन गए हैं लेकिन किसी का साथ न दे पाने के कारण हम अफ़सोस और ग्लानि में मरे जा रहे हैं. उन फेमिनिस्टों की तो क्या ही कहें जी, जिन्होंने केवल अपनी सोची. उस बेचारी सिल के दिल का हाल जानने की फुर्सत ही किसे है? जालिम समाज में उस भोली के दर्द की बात कौन करेगा? जिसकी छाती पे ये कमबख्त पुल्लिंग बट्टा सदियों से मूंग दल रहा है! सच कहें तो हमारी सहानुभूति सिलबट्टे के साथ भी आधी ही है. व्यथा तो असल में सिल की है. क्या आपने देखा नहीं कि बट्टा सिल पर कितना अत्याचार करता आ रहा है? टांकी, सिल ही जाती है. घिसाई भी उसी पर होती है. हम समझा रहे हैं न कि ये प्रजाति ही दुष्ट है. इसलिए मैं सरकार से मांग करती हूं कि इस नामुराद बट्टे पर प्रतिबंध लगे, जिसने वर्षों से हमारी मासूम सिल को सिवाय पीड़ा के कुछ न दिया. जब चाहा आकर चटनी पीसी, दाल पीसी, तीखे मिर्च मसालों से इसके पोर-पोर को भर दिया. इतने गहरे ज़ख्म देता रहा, जो भरने का नाम ही नहीं लेते!
कभी अल्लाह के फ़ज़ल से वो घाव भरने भी लगे तो तुरंत ही उन्हें फिर से टांककर छलनी कर दिया गया. नुकीली कीलें चुभोकर जो निर्मम प्रहार किये गए हैं न, उसकी आवाजें अब तक कानों में गूंजती हैं. उन आहों को सुन मेरा कलेजा मुंह को आता है, जी दर्द से लबालब भर आता है. लेकिन नहीं, स्वार्थी लोगों को तो बस अपना दरद नज़र आता है. सिल की चिंता कौन करे? वो तो अच्छा हुआ, कि हम पैदा हो गए, वरना इस मासूम के पक्ष में आवाज़ कौन बुलंद करता?
अच्छा, समाज की एक और भयंकर बेईमानी भी देखिए कि जब शादी में परछन किया जाता है तब भी ये अत्याचारी बट्टा ही उपयोग में लाया जाता है. उधर सिल किसी...
इधर कुछ दिनों से सिलबट्टे को लेकर जो तथाकथित विमर्श चल रहा है उसमें गुट भले ही दो बन गए हैं लेकिन किसी का साथ न दे पाने के कारण हम अफ़सोस और ग्लानि में मरे जा रहे हैं. उन फेमिनिस्टों की तो क्या ही कहें जी, जिन्होंने केवल अपनी सोची. उस बेचारी सिल के दिल का हाल जानने की फुर्सत ही किसे है? जालिम समाज में उस भोली के दर्द की बात कौन करेगा? जिसकी छाती पे ये कमबख्त पुल्लिंग बट्टा सदियों से मूंग दल रहा है! सच कहें तो हमारी सहानुभूति सिलबट्टे के साथ भी आधी ही है. व्यथा तो असल में सिल की है. क्या आपने देखा नहीं कि बट्टा सिल पर कितना अत्याचार करता आ रहा है? टांकी, सिल ही जाती है. घिसाई भी उसी पर होती है. हम समझा रहे हैं न कि ये प्रजाति ही दुष्ट है. इसलिए मैं सरकार से मांग करती हूं कि इस नामुराद बट्टे पर प्रतिबंध लगे, जिसने वर्षों से हमारी मासूम सिल को सिवाय पीड़ा के कुछ न दिया. जब चाहा आकर चटनी पीसी, दाल पीसी, तीखे मिर्च मसालों से इसके पोर-पोर को भर दिया. इतने गहरे ज़ख्म देता रहा, जो भरने का नाम ही नहीं लेते!
कभी अल्लाह के फ़ज़ल से वो घाव भरने भी लगे तो तुरंत ही उन्हें फिर से टांककर छलनी कर दिया गया. नुकीली कीलें चुभोकर जो निर्मम प्रहार किये गए हैं न, उसकी आवाजें अब तक कानों में गूंजती हैं. उन आहों को सुन मेरा कलेजा मुंह को आता है, जी दर्द से लबालब भर आता है. लेकिन नहीं, स्वार्थी लोगों को तो बस अपना दरद नज़र आता है. सिल की चिंता कौन करे? वो तो अच्छा हुआ, कि हम पैदा हो गए, वरना इस मासूम के पक्ष में आवाज़ कौन बुलंद करता?
अच्छा, समाज की एक और भयंकर बेईमानी भी देखिए कि जब शादी में परछन किया जाता है तब भी ये अत्याचारी बट्टा ही उपयोग में लाया जाता है. उधर सिल किसी कोने में चुपचाप खड़ी 'तुमने मेरी क़दर न जानी' टाइप गीत गाते हुए आंसू बहा रही होती है और इधर घर की औरतें इसी बट्टे को सात बार घुमाकर दूल्हे की बलैयां लेती खिलखिलाती घूमती हैं.
कल एक वीडियो देखा जिसमें दूल्हे महाराज टशन में कार में ही बैठे हुए थे और स्त्रियों द्वारा उनकी आरती (परिछन) हो रही थी. बोले तो, नज़र उतारी जा रही थी. अब साब, कल तक जिस दूल्हे की भैल्यू बाजार से धनिया, मिर्च लाना या किचन में सिलेंडर लगाने तक की थी अब वो काहे न इठलाये! सिर पे तो हमीं ने चढ़ा रखा हैगा. उसे वीआईपी बनने का इकलौता मौका मिला है तो पैर तो जमीन पे नहीं ही न पड़ेंगे उसके!
एक ज्ञान और देना चाहूंगी कि इस दृश्य को देखकर हमारे बुद्धिमान मस्तिष्क से ये बात भी आई कि हो न हो, 'नज़रबट्टू' शब्द की उत्पत्ति इसी प्रथा का दुष्परिणाम है. जैसे बच्चों को लाड़ में बबलू, गुड्डू, बेटू कह देते हैं वैसे ही लड़ियाते हुए बट्टे को बट्टू कह दिया गया है. खैर! अब इसमें तो कोई दो राय नहीं कि सिलबट्टे पे पिसी चटनी का कोई मुक़ाबला नहीं! लेकिन भिया, कोई जबरदस्ती थोड़े ही न कर रहा आपसे. न ही कोई आपकी मिक्सी छीन, उहां सिलबट्टा धरे दे रहा है.
हर बात पे झंडा काहे लहरा देते हो रे! तुम ना पीसो उसपे. हम तो कहते हैं, जीवन भर चटनी ही न खाओ! कहते क्या, हमने तो कई ऐसे लोग भी देखे जो हमारे घर पे ताजा धनिये/पुदीने की चटनी देख ताज्जुब करते हैं कि आज के जमाने में इतना वक़्त मिल जाता है आपको? हम तो हाथ जोड़ तुरंत ही बता देते हैं कि 'समय की ऐसी की तैसी! जब बेवज़ह बहसबाज़ी में कूदने को घंटों निकाल लेते हैं हम, तो अपने चटकारेपन भरे दिल की काहे न सुनेंगे!
आखिर इन स्वाद इंद्रियों के प्रति भी हमारा कुछ फरज-वरज बनता है कि नहीं! अरे, पैदा कायको हुए हैं हम? मल्लब लड़ाई के चक्कर में स्वाद को ही तिलांजलि दे दें? न रे न! माना कि थोड़े कम सयाने रह गए, पर इत्ते अहमक़ भी न हुए हम! हां, मुखारविंद से फूंक-फूंक के शब्द जरूर निकालते हैं. क्या करें, अपनी तो आदत ही कुछ ऐसी है!
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