उम्मीद है कि 2019 नये अंदाज के साथ हम सब की जिन्दगी में शामिल होगा. पुराने तजुर्बे, नयी सोच और नयी फिक्र पैदा करने लगी है. सदी की परिपक्वता का प्रतीक उन्नीसवा साल हम सब की अक्ल को धार देने के संकेत दे रहा है. कुछ गलतियों और रीतियों का अंत और नये फैसलों का जन्म हो रहा है. ये सदी अट्ठारहवां साल पार करके बालिग हो गयी है. हर तरफ परिपक्वता छाने की उम्मीद नजर आ रही है. समाज का आईना बनी सोशल मीडिया से लेकर सियासत भी अब काफी मैच्योर सी दिख रही है. सरकार चलाने के दौरान भाजपा को गलतियां का अहसास हो चुका है. पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं शुरू होने वाली हैं.
पिछले अनुभवों से सबक लेकर केजरीवाल ने ज्यादा बयान देना बंद कर दिये हैं. ममता बनर्जी की राजनीति बंगाल की सरहदों से बाहर आने को बेकरार है. अखिलेश यादव पिता मुलायम सिंह यादव की जातिगत राजनीति की विरासत पर ही अमल करने पर मजबूर हो गये हैं. मायावती ने मान लिया है कि हम अपने आधार दलितों के सिवा सर्व समाज या मुस्लिम समाज पर ज्यादा तवज्जो ना दें तो बेहतर है. कांगेस पुराने ढर्रे पर आकर साफ्ट हिन्दुत्व की तरफ बढ़ रही है. छोटे-छोटे दलों के मुखिया समुंदर में अपना खोया वजूद वापस लाने की शातिराना चालें चलने लगे हैं.
व्यापारी से लेकर कवि हों या कलाकार, साहित्यकार या खिलाड़ी. सब इतने समझदार हो गये हैं कि वो व्यवसायिकता की नयी परिभाषा के हिसाब से अपने-अपने रास्ते तय करने लगे हैं. अंबानी-अडानी और अन्य बड़े पूंजीपतियों के मौजूदा सरकार से घनिष्ठ रिश्ते अब प्रत्यक्ष ना होकर अप्रत्यक्ष होते नजर आने लगे हैं. योग गुरू बाबा राम देव ने अपना सियासी आसन बदल कर भाजपा परस्ती से मुंह मोड़ लिया है.
हिन्दू समाज अब...
उम्मीद है कि 2019 नये अंदाज के साथ हम सब की जिन्दगी में शामिल होगा. पुराने तजुर्बे, नयी सोच और नयी फिक्र पैदा करने लगी है. सदी की परिपक्वता का प्रतीक उन्नीसवा साल हम सब की अक्ल को धार देने के संकेत दे रहा है. कुछ गलतियों और रीतियों का अंत और नये फैसलों का जन्म हो रहा है. ये सदी अट्ठारहवां साल पार करके बालिग हो गयी है. हर तरफ परिपक्वता छाने की उम्मीद नजर आ रही है. समाज का आईना बनी सोशल मीडिया से लेकर सियासत भी अब काफी मैच्योर सी दिख रही है. सरकार चलाने के दौरान भाजपा को गलतियां का अहसास हो चुका है. पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं शुरू होने वाली हैं.
पिछले अनुभवों से सबक लेकर केजरीवाल ने ज्यादा बयान देना बंद कर दिये हैं. ममता बनर्जी की राजनीति बंगाल की सरहदों से बाहर आने को बेकरार है. अखिलेश यादव पिता मुलायम सिंह यादव की जातिगत राजनीति की विरासत पर ही अमल करने पर मजबूर हो गये हैं. मायावती ने मान लिया है कि हम अपने आधार दलितों के सिवा सर्व समाज या मुस्लिम समाज पर ज्यादा तवज्जो ना दें तो बेहतर है. कांगेस पुराने ढर्रे पर आकर साफ्ट हिन्दुत्व की तरफ बढ़ रही है. छोटे-छोटे दलों के मुखिया समुंदर में अपना खोया वजूद वापस लाने की शातिराना चालें चलने लगे हैं.
व्यापारी से लेकर कवि हों या कलाकार, साहित्यकार या खिलाड़ी. सब इतने समझदार हो गये हैं कि वो व्यवसायिकता की नयी परिभाषा के हिसाब से अपने-अपने रास्ते तय करने लगे हैं. अंबानी-अडानी और अन्य बड़े पूंजीपतियों के मौजूदा सरकार से घनिष्ठ रिश्ते अब प्रत्यक्ष ना होकर अप्रत्यक्ष होते नजर आने लगे हैं. योग गुरू बाबा राम देव ने अपना सियासी आसन बदल कर भाजपा परस्ती से मुंह मोड़ लिया है.
हिन्दू समाज अब बहकावे से दूर हो रहा है और मुसलमान कट्टरता त्यागता नजर आ रहा है. मनों के मंदिरों में प्रेम के दीप प्रज्वलित होने के संकेत मिलने लगे हैं और दिलों की मस्जिदों में एकता के चराग रोशन होने की जरूरत महसूस हो रही है. नफरत के शोलों से जलते समाज ने मोहब्बत की बारिश की दुआएं करना शुरू कर दिया है. पत्रकारों की कलम सियासी फायदे-नुकसान की बारीकियां समझते हुए अपना रुख मोड़ रही है. कलमकारों के कलम अपनी-अपनी किताबों में किसी की तारीफ के आखिरी सफे मुकम्मल कर रहे हैं, तो कोई नये उदय की प्रस्तावना का सिलसिला शुरू कर रहा है.
सोशल मीडिया पर आम जनमानस काफी समझदार हो गया है. आईटी सेल को पहचान कर नजरअंदाज किया जाने लगा है. नफरत की बयार को अब लोग स्वीकार नहीं कर रहे हैं. गरीबों की मदद की सराहना में कमी नहीं लेकिन सर्द रातों में कंबल बांटने की तस्वीरें अब बर्दाश्त नहीं की जा रही हैं. सोशल मीडिया के झूठ पर किसी को यकीन नहीं पर सच खूब वायरल होने लगा है. इस सच के आगे व्यवसायिक मीडिया घुटने टेक कर उसे दिखाने पर मजबूर है.
ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता अब दम तोड़ सकती है क्योंकि सोशल मीडिया ने हर किसी को मीडिया का हिस्सा बना दिया है. इसलिए झूठ और ब्लैकमेलिंग को एक्सपोज करने की ताकत सबके हाथों में आ गयी है. टीवी मीडिया और प्रिंट मीडिया पर वेब मीडिया हावी हो रहे है. यही कारण है कि खर्चीली मीडिया पर खर्च करके मीडिया को अपनी मुट्ठी में लेने वाला कार्पोरेट जगत सच्ची पत्रकारिता को अब आसानी से नहीं दबा सकता. लाइजनिंग के चेहरे पर पत्रकारिता का मुखौटा लगाने वाले धनशाली कथित पत्रकारों के आगे गरीब पत्रकारों की कलम धारदार तलवार की तरह चमकने लगा है.
मुफलिसी, तंगहाली, बेरोजगारी, मंहगाई और असुरक्षा से तंग आकर लोग मंदिर-मस्जिद की राजनीति के खिलाफ सुशासन और विकास की तलाश में नये रास्ते खोजने पर मजबूर हो गये हैं. जनता अब कसमों-वादों, बातों और लच्छेदार भाषणों के बजाये जमानी हकीकत पर गौर करने लगी है. सदी व्यस्क हो गयी है. अब जमाना भी नासमझ बच्चा नहीं रहा. बच्चा-बच्चा भी समझदारी के साथ एक कामयाब युग का इतिहास रचने के तेवर में नजर आ रहा है.
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