संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitharaman) केंद्रीय बजट (nion Budget 2021) पेश कर रही थीं. जहां तक बजट को लेकर मेरी समझ है, उसके हिसाब से बजट एक ऐसी चीज है, जिससे हर आदमी को कुछ ना कुछ मिलता है और इसी के सहारे उनसे बहुत कुछ ले भी लिया जाता है. देश का हर वर्ग इस बजट 2021 की ओर टकटकी लगाए देख रहा था. मध्यम वर्ग (Middle Class) वाले ऐसे पलक-पांवड़े बिछाए इस बजट का इंतजार कर रहे थे. जैसे वित्त मंत्री (Finance Minister) 8 नवंबर 2016 (भूल गए क्या, नोटबंदी हुई थी) की तरह अचानक से सबके सामने आएंगी और कहेंगी- भाईयों-बहनों... मेरे बजट भाषण के बाद से आपके क्रेडिट कार्ड का सारा बिल, आपकी सारी ईएमआई, आपके सारे लोन 'शून्य' हो जाएंगे. सरकार की ओर से आप सभी लोगों के जनधन खातों में 15-15 लाख रुपए भी जमा कराए जाएंगे. मतलब कुछ भी. अरे भाई, जमीन पर रहो, काहे उड़ने लगते हो.
इसी दौरान सोशल मीडिया पर विचरण करते हुए मेरी नजर एक 'ब्रह्म वाक्य' पर पड़ी. इसने मुझे बजट को समझने में सबसे अधिक सहयोग किया. वो था कि 'अपेक्षा दु:ख का कारण है'. दरअसल, जब भी आप किसी चीज को लेकर अपेक्षाएं पाल लेते हैं, तो आपको उसके ना मिलने पर सबसे ज्यादा दु:ख होता है. मिडिल क्लास बेचारा सुबह से सोच रहा था कि बजट में टैक्स स्लैब बढ़ जाएगी. हो सकता है, 80सी के अंतर्गत छूट भी मिल जाए. देशभर में कोरोना फैला है, तो सरकार हमें इंश्योरेंस प्रीमियम की रकम पर भी छूट दे सकती है. लेकिन, मध्यम वर्ग के लिए सरकार ने कोई खास घोषणा नहीं की और मिडिल क्लास पर दु:खों का वज्रपात हो गया. वैसे कोरोनाकाल में इत्ते सारे पैकेज की घोषणा की गई, जब उसमें मिडिल क्लास को कुछ नहीं मिला, तो इस बजट से अपेक्षा क्यों लगाए बैठे थे. भगवद्गीता में कृष्ण भगवान पहले ही कह गए हैं कि केवल कर्म करो, फल की इच्छा कतई न करो. खैर, मेरी सहानुभूति और संवेदनाएं पूरी तरह से मिडिल क्लास के साथ है. और हों भी क्यों ना, मैं कौन सा इससे बाहर हूं, बल्कि मैं तो...
संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitharaman) केंद्रीय बजट (nion Budget 2021) पेश कर रही थीं. जहां तक बजट को लेकर मेरी समझ है, उसके हिसाब से बजट एक ऐसी चीज है, जिससे हर आदमी को कुछ ना कुछ मिलता है और इसी के सहारे उनसे बहुत कुछ ले भी लिया जाता है. देश का हर वर्ग इस बजट 2021 की ओर टकटकी लगाए देख रहा था. मध्यम वर्ग (Middle Class) वाले ऐसे पलक-पांवड़े बिछाए इस बजट का इंतजार कर रहे थे. जैसे वित्त मंत्री (Finance Minister) 8 नवंबर 2016 (भूल गए क्या, नोटबंदी हुई थी) की तरह अचानक से सबके सामने आएंगी और कहेंगी- भाईयों-बहनों... मेरे बजट भाषण के बाद से आपके क्रेडिट कार्ड का सारा बिल, आपकी सारी ईएमआई, आपके सारे लोन 'शून्य' हो जाएंगे. सरकार की ओर से आप सभी लोगों के जनधन खातों में 15-15 लाख रुपए भी जमा कराए जाएंगे. मतलब कुछ भी. अरे भाई, जमीन पर रहो, काहे उड़ने लगते हो.
इसी दौरान सोशल मीडिया पर विचरण करते हुए मेरी नजर एक 'ब्रह्म वाक्य' पर पड़ी. इसने मुझे बजट को समझने में सबसे अधिक सहयोग किया. वो था कि 'अपेक्षा दु:ख का कारण है'. दरअसल, जब भी आप किसी चीज को लेकर अपेक्षाएं पाल लेते हैं, तो आपको उसके ना मिलने पर सबसे ज्यादा दु:ख होता है. मिडिल क्लास बेचारा सुबह से सोच रहा था कि बजट में टैक्स स्लैब बढ़ जाएगी. हो सकता है, 80सी के अंतर्गत छूट भी मिल जाए. देशभर में कोरोना फैला है, तो सरकार हमें इंश्योरेंस प्रीमियम की रकम पर भी छूट दे सकती है. लेकिन, मध्यम वर्ग के लिए सरकार ने कोई खास घोषणा नहीं की और मिडिल क्लास पर दु:खों का वज्रपात हो गया. वैसे कोरोनाकाल में इत्ते सारे पैकेज की घोषणा की गई, जब उसमें मिडिल क्लास को कुछ नहीं मिला, तो इस बजट से अपेक्षा क्यों लगाए बैठे थे. भगवद्गीता में कृष्ण भगवान पहले ही कह गए हैं कि केवल कर्म करो, फल की इच्छा कतई न करो. खैर, मेरी सहानुभूति और संवेदनाएं पूरी तरह से मिडिल क्लास के साथ है. और हों भी क्यों ना, मैं कौन सा इससे बाहर हूं, बल्कि मैं तो निम्न-मध्यम वर्गीय हूं.
निजी तौर पर बजट से मुझे कोई समस्या नहीं हुई. कोरोनाकाल से ही अपना बजट खराब चल रहा था, तो इस बजट से ना मेरा भला हुआ और ना नुकसान. वैसे भी मैं इस लायक नहीं हूं कि इस बजट का विश्लेष्ण या इस पर कोई टिप्पणी दे सकूं. कहा जाता है कि इंसान जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है. ऐसे में 'लर्निंग' लाइसेंस लेकर मैं जेट प्लेन उड़ाने की ख्वाहिश बिलकुल भी नहीं रखता हूं. मुझे 'संजय गांधी' की याद आने लगती है. मैं ठहरा संस्कृत से बीए करने वाला विद्यार्थी, तो 'फिस्कल डेफिसिट' का मेरे बजट पर क्या असर होगा, इसका अंदाजा लगाना मेरे लिए मुश्किल है. सोशल मीडिया के इस दौर में जब हर शख्स ग्रेटा थनबर्ग के यूएन में गुस्सा दिखाने पर पर्यावरणविद है, किसान आंदोलन को लेकर मुकम्मल तौर पर किसान है और बजट आने पर अर्थशास्त्री है, तो मेरे जैसे भी अपना पक्ष रखने को आतुर रहते हैं. अब भई....लोकतंत्र ने आजादी दी है. कोई मामूली बात थोड़े ही हैं. जो मन में आए वो अभिव्यक्त कर दो.
अभिव्यक्ति की आजादी से याद आया कि वित्त मंत्री ने अलग-अलग विभागों व मंत्रालयों को कुल 34,83,235.63 करोड़ की राशि का आवंटन किया है. निर्मला सीतारमण ने 35000 करोड़ रुपए तो केवल कोरोना के टीके के लिए दे दिए हैं. बताओ, ये भी कोई बात हुई. इत्ते सारे पैसों का आवंटन बिना सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और अवमानना के दोषी प्रशांत भूषण से पूछे कर दिया. बजट में ये घोषणा होते ही प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया कि वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि 'हमारे' पैसों से 35000 करोड़ रुपए प्राइवेट वैक्सीन कंपनियों में अनटेस्टेड वैक्सीनों पर उस समय लगाया जाएगा, जब भारत में कोरोना प्राकृतिक रूप से खत्म हो रहा है. मगर यह पैसा वो उन गरीब प्रवासी मजदूरों को नहीं दे सकते, जिन्होंने अपनी नौकरियां खो दीं या उन किसानों को, जो अपनी फसलों के लिए MSP मांग रहे हैं. वाह वित्त मंत्री साहिबा.
मतलब इन्होंने अंग्रेजी में इतना अच्छा लिखा है कि दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया. उसमें भी 'आर मनी', तो ऐसे लिखा है कि जैसे खुद अपने हाथों से सुबह निर्मला सीतारमण को 35000 करोड़ देकर आए हों. अरे भाई...तुमको कोरोना से डर नहीं लगता, बहुत अच्छी बात है, हम ठहरे बीबी-बच्चे वाले आदमी. दो-चार वैक्सीन और आ जाएंगी, तो हम जल्दी लगवाकर ठीक तरह से नौकरी पर जा सकेंगे. बीबी-बच्चे और परिवार के साथ बाहर अच्छे से घूम सकेंगे. लेकिन, नहीं...इनको उसमें भी समस्या है. खैर, समस्याओं का अंत तो कभी होता नहीं है. चीन की दया रही तो, आज कोरोना है, कल कुछ और फैल जाएगा. भगवान भली करें.
केंद्रीय बजट का सीधा प्रसारण 'बुद्धू बक्से' पर हो रहा था. उसके सामने बड़ी संख्या में बैठे लोग इसे देख और समझ रहे थे. मैं भी कोशिश में लगा था कि निर्मला ताई अपनी मधुर आवाज में जो कह रही हैं, उससे थोड़ा-बहुत ही सही कुछ को ज्ञानार्जन कर ही लूं. यहां मैं अपनी बात कहते हुए क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहा हूं, इसके पीछे निहायत ही छोटी सी वजह है. दरअसल, अपने अभी तक के जीवन के एक बड़े हिस्से में हम उस अहसास-ए-कमतरी से दो-चार होते रहे हैं, जिसे हमारे घर वाले 'आंग्लभाषा' कहते हैं. बजट हर साल की तरह इस बार भी 'अंग्रेजी' में ही था. जिसकी वजह से इसे समझ पाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था. लेकिन, येन-केन प्रकारेण मैं समझ ही गया. सीधे और साफ शब्दों में कहूं, तो मुझ जैसा आदमी जो अपनी 'सैलरी स्लिप' ठीक से नहीं समझ सकता, वो बजट क्या समझेगा. लेकिन, इसे लेकर मेरा गुस्सा जायज है. सरकारों को कोई फर्क ही नहीं पड़ता है. बजट में कम से कम किसानों, गरीबों और आम आदमी वाला हिस्सा ही 'हिंदी' में पढ़ दो. 'वी अनाउंस टू इंट्रोज्यूस द मिनिमम वेज कोड फॉर एवरी क्लास ऑफ वर्कर्स'. इस लाइन से एक मजदूर क्या समझ पाएगा. सौ बात की एक बात, मुझे ये बजट पसंद आया, वो बात अलग है कि समझ नहीं आया. ओके..खत्म...बाय-बाय...टाटा...गुड बाय...गया.
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