इस देश में अगर राष्ट्रविरोधी कार्यक्रम आयोजित करने वालों अथवा उन्हें समर्थन देने वालों को भी पुलिस गिरफ़्तार कर ले, तो बड़ी संख्या में लोग सरकार और पुलिस का विरोध करने लगते हैं. अगर किसी बड़ी आतंकवादी घटना के बाद जांच एजेंसियों को किसी पर शक हो जाए और वह उसे गिरफ्तार कर ले, तो भी अक्सर लोग बवाल काटना शुरू कर देते हैं. लेकिन फिनलैंड-प्रेमी किसी नेताजी पर अगर कोई स्याही मात्र भी फेंक दे, तो उसे फौरन गिरफ्तार कर लिया जाता है. कोई इसकी आलोचना तक नही करता.
हालांकि फिलहाल मैं अच्छे-बुरे किसी भी नेताजी पर स्याही फेंके जाने का समर्थन नहीं कर रहा. लेकिन स्याही फेंकने वाले की बात सुनें और समझे बिना उसकी गिरफ़्तारी की आलोचना ज़रूर करता हूं. अगर स्याही फेंकने वाले की मंशा बुरी नहीं है तो कपड़े गंदे होने की स्थिति में नेताजी को मुआवजे में साबुन के पैसे दिलवाए जा सकते हैं. और अगर स्याही से नेताजी को खुजली हो जाती है, तो उन्हें खुजली की दवा भी दिलवाई जा सकती है. लेकिन गिरफ़्तारी तो कुछ ज़्यादा ही सख्त कदम है.
दरअसल, राजनीति में कई बार ऐसा भी होता है कि चर्चा में आने के लिए या किसी मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए या विरोधियों को बदनाम करने के लिए अलग किस्म की राजनीति करने वाले लोग ख़ुद ही अपने ऊपर जूते-चप्पल चलवा लेते हैं या स्याही फिंकवा लेते हैं. ऐसे मामलों में गिरफ्तारी स्याही फेंकने वाले की नहीं, बल्कि अपने ऊपर फिंकवाने वाले की होनी चाहिए.
सवाल है कि अगर कोई नागरिक राज्य में डेंगू, चिकनगुनिया आदि फैले होने और उसकी रोकथाम के उचित इंतज़ाम न किये जाने से सरकार के किसी फिनलैंड-प्रेमी नेताजी से नाराज़ हो, तो उसके विरोध को ग़लत कैसे कहा जा सकता है? हां, विरोध के तरीके पर चर्चा ज़रूर की जा सकती है. आख़िर, जनता जिसे कसूरवार मानती है, उसे उसकी ग़लतियों का अहसास कैसे कराए?
इस देश में अगर राष्ट्रविरोधी कार्यक्रम आयोजित करने वालों अथवा उन्हें समर्थन देने वालों को भी पुलिस गिरफ़्तार कर ले, तो बड़ी संख्या में लोग सरकार और पुलिस का विरोध करने लगते हैं. अगर किसी बड़ी आतंकवादी घटना के बाद जांच एजेंसियों को किसी पर शक हो जाए और वह उसे गिरफ्तार कर ले, तो भी अक्सर लोग बवाल काटना शुरू कर देते हैं. लेकिन फिनलैंड-प्रेमी किसी नेताजी पर अगर कोई स्याही मात्र भी फेंक दे, तो उसे फौरन गिरफ्तार कर लिया जाता है. कोई इसकी आलोचना तक नही करता. हालांकि फिलहाल मैं अच्छे-बुरे किसी भी नेताजी पर स्याही फेंके जाने का समर्थन नहीं कर रहा. लेकिन स्याही फेंकने वाले की बात सुनें और समझे बिना उसकी गिरफ़्तारी की आलोचना ज़रूर करता हूं. अगर स्याही फेंकने वाले की मंशा बुरी नहीं है तो कपड़े गंदे होने की स्थिति में नेताजी को मुआवजे में साबुन के पैसे दिलवाए जा सकते हैं. और अगर स्याही से नेताजी को खुजली हो जाती है, तो उन्हें खुजली की दवा भी दिलवाई जा सकती है. लेकिन गिरफ़्तारी तो कुछ ज़्यादा ही सख्त कदम है. दरअसल, राजनीति में कई बार ऐसा भी होता है कि चर्चा में आने के लिए या किसी मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए या विरोधियों को बदनाम करने के लिए अलग किस्म की राजनीति करने वाले लोग ख़ुद ही अपने ऊपर जूते-चप्पल चलवा लेते हैं या स्याही फिंकवा लेते हैं. ऐसे मामलों में गिरफ्तारी स्याही फेंकने वाले की नहीं, बल्कि अपने ऊपर फिंकवाने वाले की होनी चाहिए. सवाल है कि अगर कोई नागरिक राज्य में डेंगू, चिकनगुनिया आदि फैले होने और उसकी रोकथाम के उचित इंतज़ाम न किये जाने से सरकार के किसी फिनलैंड-प्रेमी नेताजी से नाराज़ हो, तो उसके विरोध को ग़लत कैसे कहा जा सकता है? हां, विरोध के तरीके पर चर्चा ज़रूर की जा सकती है. आख़िर, जनता जिसे कसूरवार मानती है, उसे उसकी ग़लतियों का अहसास कैसे कराए?
क्या पब्लिक पुलिस में जाकर यह एफआईआर दर्ज कराए कि राज्य में डेंगू चिकनगुनिया फैले होने के बावजूद कोई नेताजी फिनलैंड घूमने के लिए क्यों चले गये? या फिर कोर्ट में जाकर पीआईएल दाखिल करे कि उक्त नेताजी से डेंगू चिकनगुनिया के बीच फिनलैंड दौरे की मस्ती वाले वाले पल वापस छीन लेने का महाकाल देवता को आदेश जारी करें? जिसने मस्ती कर ली, वो तो कर ली. उसे वापस कैसे छीनेंगे उससे? ज़ाहिर है, जनता न तो हर बात के लिए पुलिस और कोर्ट के पास जा सकती है, न ही पुलिस और अदालतें उसे हर समस्या का समाधान दे सकती हैं. इसलिए व्यवस्था में बैठे लोगों का विरोध करने के लिए वह कई दूसरे तरीके भी अपनाती रही है. मसलन, नारेबाज़ी करना, काले झंडे दिखाना, घेराव करना, पुतले जलाना या पर्चे-पोस्टर बंटवााना लेकिन इस तरह के विरोधों से अक्सर वह व्यक्ति, जिसका विरोध किया जाता है, अपने आप को और अधिक महत्वपूर्ण समझने लगता है. उसका नशा और बढ़ जाता है. ऐसी स्थिति में स्याही फेंकना विरोध का एक कारगर तरीका हो भी सकता है, क्योंकि यह फेंकी भले तन पर जाती है, लेकिन लगती जाकर मन पर है. अच्छे-अच्छे बेशर्म लोग भी अपने ऊपर स्याही फेंके जाने से शर्मिंदा हो सकते हैं. यह भी पढ़ें- बुखार से लड़ने को एक नहीं अनेक दिल्ली... स्याही क्या है? रंग ही तो है. होली में तो सभी एक-दूसरे के ऊपर इसे फेंकते ही हैं. अब आम दिनों में इसका फेंका जाना अगर सही नहीं है, तो इसपर खुलकर चर्चा कर ली जाए. प्यार से फेंकना सही है और विरोध में फेंकना गलत है, तो इसपर भी चर्चा कर ली जाए, लेकिन बिना चर्चा के स्याही फेंकने वालों को इस तरह दंडित न किया जाए, क्योंकि स्याही फेंके जाने से न तो कोई घायल होता है, न उसे खरोंच आती है. जैसा कि हमने पहले ही कहा कि स्याही से अगर कपड़े गंदे हो रहे हैं, तो नेताजी को साबुन दिलवा दो. अगर खुजली होती है, तो खुजली की दवा दिलवा दो। चाहो तो, स्याही फेंकने वालों के लिए होली की तरह एक एडवायज़री भी जारी करवा दो कि वे सिर्फ़ हर्बल स्याही का प्रयोग करें. बाबा रामदेव से भी कहा जा सकता है कि वे पतंजलि हर्बल स्याही बाज़ार में लाएं, ताकि लोग खुजली वाली स्याही का प्रयोग न करे. बाकी यह ज़रूर कहूंगा कि नेताजी को बिल्कुल काग़ज़ की पुड़िया भी मत बना दो, कि ज़रा-सी स्याही फेंकने से वे गल जाएंगे. अगर उनके कर्मों से किसी की जान जा रही हो, तो क्या वह नाराज़ होकर उन्हें ज़रा-सी स्याही भी नहीं लगा सकता? सोचकर देखिए. यह भी पढ़ें- तो ये मेडिकल लोचा था करते भी क्या केजरीवाल... इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये भी पढ़ेंRead more! संबंधित ख़बरें |