यह एक कैऑटिक मैच था. 80वें मिनट के बाद तो अराजकता थी. इस तरह के मैचों के साथ समस्या यह है कि दर्शकों- विशेषकर तटस्थ दर्शकों- को उतार-चढ़ाव के रोमांच का चाहे जितना आनंद आए, फ़ुटबॉलिंग-औचित्य की क्षति होती है. खेल कसा हुआ नहीं रह जाता. वह रणनीतियों के दायरे के बाहर चला जाता है और भाग्य मुख्य भूमिका में आ जाता है. कौशल के बजाय जीवट का महत्व बढ़ जाता है. जिस टीम ने ज़्यादा जीवट दिखाया, वह अंत में विजेता बनती है. किन्तु अगर श्रेष्ठता के मानदण्ड पर भी निर्णय लिया जाता तो कल अर्जेंटीना ही श्रेष्ठ टीम थी. पहले हाफ़ में तो उन्होंने फ्रांस को गेंद को छूने नहीं दिया. हर चीज़ प्लान के मुताबिक जा रही थी. फ़ाइनल मैच में एन्ख़ेल डी मारिया को मैदान में उतारा गया था, जो चोटिल होने के कारण इससे पहले के मैचों में स्टार्ट नहीं कर रहे थे. एन्ख़ेल के कारण फ़ॉर्मेशन 4-4-2 से बदलकर 4-3-3 हो गया. अटैकिंग-थर्ड में रचनात्मकता आई. एन्ख़ेल ने ही पहले गोल के लिए पेनल्टी जीती थी जिसे लियो मेस्सी ने स्कोर किया. एक ख़ूबसूरत काउंटर अटैकिंग टीम-मूवमेंट को एन्ख़ेल ने दूसरे गोल में बदला. इस तरह के गोल शानदार फुटबॉल का मुजाहिरा हैं. आप देखें कैसे महज़ चंद टचेस में उन्होंने फ्रांस की मिडफील्ड को खोलकर रख दिया था. प्रॉपर फुटबॉल.
सनद रहे कि एन्ख़ेल डी मारिया ने हमेशा ही बड़े मैचों में अहम गोल किए हैं. इससे पूर्व ओलिम्पिक फ़ाइनल, कोपा अमरीका फ़ाइनल और फ़िनालिस्सीमा में भी वे गोल कर चुके थे. 2014 के विश्व कप फ़ाइनल में वे नहीं खेले थे. कहते हैं अगर वे खेलते तो अर्जेंटीना तभी विश्व कप जीत चुकी होती. दमखम और तकनीकी कुशलता- दोनों मेयार पर अर्जेंटीना फ्रांस से लम्बे समय तक बेहतर बनी रही थी, लेकिन 80वें मिनट के बाद खेल...
यह एक कैऑटिक मैच था. 80वें मिनट के बाद तो अराजकता थी. इस तरह के मैचों के साथ समस्या यह है कि दर्शकों- विशेषकर तटस्थ दर्शकों- को उतार-चढ़ाव के रोमांच का चाहे जितना आनंद आए, फ़ुटबॉलिंग-औचित्य की क्षति होती है. खेल कसा हुआ नहीं रह जाता. वह रणनीतियों के दायरे के बाहर चला जाता है और भाग्य मुख्य भूमिका में आ जाता है. कौशल के बजाय जीवट का महत्व बढ़ जाता है. जिस टीम ने ज़्यादा जीवट दिखाया, वह अंत में विजेता बनती है. किन्तु अगर श्रेष्ठता के मानदण्ड पर भी निर्णय लिया जाता तो कल अर्जेंटीना ही श्रेष्ठ टीम थी. पहले हाफ़ में तो उन्होंने फ्रांस को गेंद को छूने नहीं दिया. हर चीज़ प्लान के मुताबिक जा रही थी. फ़ाइनल मैच में एन्ख़ेल डी मारिया को मैदान में उतारा गया था, जो चोटिल होने के कारण इससे पहले के मैचों में स्टार्ट नहीं कर रहे थे. एन्ख़ेल के कारण फ़ॉर्मेशन 4-4-2 से बदलकर 4-3-3 हो गया. अटैकिंग-थर्ड में रचनात्मकता आई. एन्ख़ेल ने ही पहले गोल के लिए पेनल्टी जीती थी जिसे लियो मेस्सी ने स्कोर किया. एक ख़ूबसूरत काउंटर अटैकिंग टीम-मूवमेंट को एन्ख़ेल ने दूसरे गोल में बदला. इस तरह के गोल शानदार फुटबॉल का मुजाहिरा हैं. आप देखें कैसे महज़ चंद टचेस में उन्होंने फ्रांस की मिडफील्ड को खोलकर रख दिया था. प्रॉपर फुटबॉल.
सनद रहे कि एन्ख़ेल डी मारिया ने हमेशा ही बड़े मैचों में अहम गोल किए हैं. इससे पूर्व ओलिम्पिक फ़ाइनल, कोपा अमरीका फ़ाइनल और फ़िनालिस्सीमा में भी वे गोल कर चुके थे. 2014 के विश्व कप फ़ाइनल में वे नहीं खेले थे. कहते हैं अगर वे खेलते तो अर्जेंटीना तभी विश्व कप जीत चुकी होती. दमखम और तकनीकी कुशलता- दोनों मेयार पर अर्जेंटीना फ्रांस से लम्बे समय तक बेहतर बनी रही थी, लेकिन 80वें मिनट के बाद खेल बदल गया. एक पेनल्टी अर्जेंटीना ने नाहक ही कन्सीड की, जिसके बाद स्कोर 2-1 हो गया.
जब भी किसी नॉकआउट मैच में स्कोर 2-1 होता है, तब एक और गोल का मतलब एक्स्ट्रा टाइम या पेनल्टी शूटआउट होता है, जो खेल की लय और लीड कर रही टीम की सोच को बदल देता है. इसी विश्व कप में अर्जेंटीना इससे पहले नीदरलैंड्स के विरुद्ध दो गोलों की बढ़त गंवा चुकी थी, वहीं ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध खेले गए मैच में वैसा होते-होते बचा था. 81वें मिनट में एमबाप्पे ने एक तूफ़ानी वॉली शॉट लगाया. स्कोर 2-2 हो गया. कहानी बदल चुकी थी. कहां तो विश्व विजय अर्जेंटीना के सामने थी, कहां अब हार उनसे एक किक दूर थी.
अनेक मित्रों का कहना है कि फ्रांस बहुत अच्छा खेली, जबकि सच यह है कि वो 80 मिनटों तक खेल में नहीं थी और कोच को ताबड़तोड़ बदलाव करके गेम की रिदम को बदलना पड़ा था. उन्होंने ऊर्जावान खिलाड़ी मैदान में उतारे, जो थक रही अर्जेंटीना पर हावी हुए. ये फ्रांस का प्लान बी था. अंतिम पलों में मेस्सी के एक बेहतरीन मूवमेंट के बाद बॉक्स के बाहर से मारे गए शॉट को फ्रांस के गोलची ने रोक लिया. अगर वह गोल हो जाता तो 3-2 से अर्जेंटीना विश्व कप जीत जाती.
1986 के फ़ाइनल में भी ऐसा ही हुआ था. अर्जेंटीना दो गोल से आगे थी, फिर जर्मनों ने वापसी कर बराबरी की, अंतिम मिनटों में बुरुचागा ने विजयी गोल करके अर्जेंटीना को जिताया. वैसा होता तो वह एक परफ़ेक्ट स्क्रिप्ट होती और मेस्सी के नाम विजयी गोल होता. पर वैसा हो न सका. खेल अराजक हो गया. उससे दर्शकों को यह भ्रम हुआ कि कड़ी कशमकश हो रही है, जबकि ऐसा नहीं था.
क्रिकेट से उदाहरण दूं तो अगर एक टीम पचास ओवर में 400 से ज़्यादा रन बना ले और दूसरी टीम लक्ष्य का सफलतापूर्वक पीछा कर ले तो आप कहेंगे बड़ी जद्दोजहद वाला मैच हुआ, जबकि सच यह है कि अराजक मैच हुआ है क्योंकि गेंद और बल्ले के बीच बराबरी का संघर्ष नहीं हुआ, बल्ला गेंद पर हावी हो गया. कल के मैच में भी आख़िरी के पच्चीस-तीस मिनट डिफेंडरों के लिए दु:स्वप्न जैसे थे और कॉम्पैक्ट फुटबाल की अभ्यस्त आंखों को खटकने वाले थे.
अतिरिक्त समय में मेस्सी के और एक गोल ने अर्जेंटीना को लीड दिलाई, जो दस मिनटों बाद फिर उतर गई. 119वें मिनट में फ्रांस ने विश्व कप लगभग जीत ही लिया था, अगर अर्जेंटीना के गोलची मार्तीनेज़ ने एक यादगार बचाव नहीं किया होता. वन ऑन वन की सिचुएशन में कुछ भी हो सकता था पर गोल बच गया. उसके बाद तो भाग्य ही मैन ऑफ द मैच था. जबकि मैं यह ज्यादा पसन्द करता कि अर्जेंटीना अपने शुरुआती 80 मिनटों के कसे हुए खेल के बूते जीत दर्ज़ करती.
खेल जब पेनल्टी शूटआउट में गया तो मनोवैज्ञानिक बढ़त अर्जेंटीना के पास थी, क्योंकि निकट-अतीत में उन्होंने कुछ बेहतरीन मुक़ाबले शूटआउट में जीते हैं और उनका गोलची मार्तीनेज़ ऐसे अवसरों पर अपने चरम पर होता है. मार्तीनेज़ ने एक गोल बचाया, जबकि फ्रांस के चुआमेनी ने एक गेंद को पोस्ट से बाहर दे मारा. इसके बाद अर्जेंटीना की जीत तय हो गई थी.
अंततः मेस्सी ने विश्व कप जीत ही लिया. वे दो बार गोल्डन बॉल पाने वाले पहले खिलाड़ी भी बने. उनका ट्रॉफ़ी कैबिनेट पूर्ण हो गया. उनकी जर्सी पर तीन सितारे जड़ गए, जो अर्जेंटीना की तीन विश्व-विजय के परिचायक हैं. यह उनके खेल-जीवन का उत्कर्ष है. उनकी सुदीर्घ यात्रा का स्वाभाविक पारितोषिक भी. कुछ उपकथाएं भी सामने आई हैं. जैसे कि अर्जेंटीना के मिडफ़ील्डर मैक एलीस्टर, जो इंग्लिश प्रीमियर लीग में ब्राइटन के लिए खेलते हैं.
ब्राइटन ने कभी लीग टाइटिल नहीं जीता, लेकिन आज उनकी स्क्वाड में एक विश्व विजेता है. उन्होंने इसका भावभीना उत्सव मनाया. यही अनुभूति एस्टन विला क्लब की भी है, जिनके लिए मार्तीनेज़ गोलची के रूप में खेलता है. रोद्रिगो डी पॉल एटलेटिको मैड्रिड में हैं. उनके ग्रीज़मन हार गए लेकिन डी पॉल जीत गए. लीसान्द्रो के कारण मैनचेस्टर यूनाइटेड को ख़ुशियां मिलीं. डिबाला के लिए रोम और परीडेस के लिए यूवेन्तस को. मेस्सी को उनके पुराने क्लब बार्सीलोना ने बधाई दी तो खेलप्रेमियों की आंखें भीग गईं.
मेस्सी और एमबाप्पे दोनों ही पेरिस के लिए खेलते हैं. आज वे विश्व कप फ़ाइनल में एक-दूसरे से कांटे की लड़ाई लड़ रहे थे, दस दिनों बाद पीएसजी के लिए साथ-साथ लीग फ़ुटबॉल खेल रहे होंगे. नेमार भी उनके साथ होंगे. फ़ुटबॉल की अंतर्कथाएं जारी रहेंगी. अब जब मेस्सी ने विश्व कप जीत लिया है तो इस बात को कहने का यही सबसे सही समय है- अगर मेस्सी ने विश्व कप नहीं जीता होता तो भी वो सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी कहलाते.
क्योंकि खिलाड़ी का मूल्यांकन उसके खेल से होना चाहिए, उसके द्वारा जीती गई ट्रॉफ़ियों से नहीं. और जैसा कि बीती रात हमने देखा, चंद इंचों के फेर से और चंद अतार्किक संयोगों के बल पर खेल में जीत-हार का फ़ैसला होता है, वैसे में जीतने वाला मुक़द्दर का सिकन्दर ही होता है. जबकि श्रेष्ठता का निर्णय लम्बी तपस्या के आधार पर करना चाहिए, जो प्रतिभा और परिश्रम से सज्जित हो.
डी स्तेफ़ानो, पुस्कस, यूसेबीयो, क्राएफ़, प्लातीनी, ज़ीको, सोक्रेटीज़, बैजियो, रूमीनिग्गा : ये तमाम नाम उन महानतम फ़ुटबॉल खिलाड़ियों के हैं, जिन्होंने कभी विश्व कप नहीं जीता. ऐन अभी तक लियो मेस्सी का नाम भी इस फ़ेहरिस्त में था. अगर कल रात 119वें मिनट में मार्तीनेज़ ने निर्णायक गोल नहीं रोका होता तो मेस्सी का नाम आज भी इसी सूची में होता. वह एक डिवाइन-इंटरवेंशन वाला बचाव था, जिसने मेस्सी के सिर पर ताज रख दिया.
मेस्सी ने विश्व कप जीत लिया- इस ख़बर का सबसे बड़ा संदेश यही है कि आइंदा से हम किसी भी खिलाड़ी की महानता का निर्णय केवल इस ट्रॉफ़ी के आधार पर न करें. ये और बात है कि जो सुनहरी चमक इस विश्व कप ट्रॉफी की है, वैसी किसी और की नहीं!यह विश्व कप मेस्सी के ताज में लगी कलगी है. स्वर्ण में सुगंध है. पद्म में मणि है. सर्वश्रेष्ठ वो इसके बिना भी थे, पर अब श्रेष्ठता के लौकिक परिप्रेक्ष्य भी उनके अनुरूप हैं. खेल को पूर्णता मिल गई है. फ़ुटबॉल ज़िंदाबाद.
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