खाड़ी देशों की धार्मिक कट्टरता से पूरी दुनिया वाकिफ है. इस्लामिक तौर तरीकों को मानने वाले यहां के देश अपने धर्म और वसूलों से कभी समझौता नहीं करते हैं. यही वजह है कि फीफा विश्व कप 2022 जैसे वैश्विक खेल आयोजन के बावजूद फेडरनेशन के हर नियम को अपनी कसौटी पर कसा है. विदित है कि फुटबॉल विश्व कप का आयोजन इस वक्त कतर में किया जा रहा है. इसमें दुनियाभर के देशों की फुटबॉल टीमें हिस्सा ले रही हैं. लेकिन फीफा के अधिकारियों और विश्व कप में शामिल होने आए खिलाड़ियों को उतनी ही आजादी दी गई है, जो उनकी धार्मिक मान्यता पर खरी उतरती है. इन सबके बावजूद ईरान की फुटबॉल टीम ने एक नजीर पेश की है. एक कट्टर इस्लामिक देश की जमीन खड़े होकर उन्होंने अपने देश के इस्लामी हुकूमत का विरोध करते हुए हिजाब विरोधी प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया है. इसके लिए मैच के दौरान अपने ही देश का राष्ट्रगान गाने से इंकार कर दिया है.
आइए पहले ये जानते हैं कि ईरान के खिलाड़ियों के विरोध की असली वजह क्या है? जिस जमीन पर खड़े होकर, जिस मंच का इस्तेमाल करके इन खिलाड़ियों ने विरोध दर्ज कराया है, उसका वैश्विर स्तर पर क्या संदेश जाएगा? दरअसल, ईरान में लंबे समय से हिजाब का विरोध किया जा रहा है. यहां साल 1979 से हिजाब ना पहनना एक दंडनीय अपराध है. यह केवल ईरानी मुसलमानों पर ही नहीं बल्कि सभी धर्मों को मानने वालों पर लागू होता है. इसके तहत ईरान में रहने वाली महिलाओं को अपने बालों और गर्दन को कपड़े से छुपाना होता है. इस नियम के खिलाफ वहां की महिलाएं विरोध कर रही हैं. इस विरोध प्रदर्शन में धीरे-धीरे राजनीति, फिल्म और खेल की हस्तियां भी शामिल हो गई हैं. कतर में फुटबॉल विश्व कप के लिए आई ईरान की टीम ने भी फैसला किया कि वो इस मंच का इस्तेमाल करके अपनी सरकार को कड़ा संदेश देंगे. इसका असर वैश्विक स्तर पर भी होगा.
दोहा के खलीफा इंटरनेशनल स्टेडियम में अपने ही देश के खिलाफ मौन विरोध करते ईरानी खिलाड़ी.
यही वजह है कि सोमवार को दोहा के खलीफा इंटरनेशनल स्टेडियम में इंग्लैंड के खिलाफ मैच के दौरान मैदान में जब ईरान का राष्ट्रगान बजाया गया, तो ईरानी खिलाड़ियों ने अपने-अपने मुंह बंद रखे. यहां तक कि उनके चेहरे पर भी कोई भाव नजर नहीं आ रहा था. इधर स्टेडियम से लोगों की लगातार आवाज आ रही थीं, लेकिन खिलाड़ियों की चुप्पी देखकर पहले तो कोई कुछ समझ नहीं पाया, लेकिन बाद में पता चला कि ऐसा विरोध प्रदर्शन करने के लिए किया गया है. हालांकि, मैच से पहले ही ईरानी फुटबाल टीम के कप्तान अलीरेजा जहानबख्श ने इस बात के संकेत दे दिए थे कि ऐसा कुछ मैदान में देखने को मिल सकता है. उनका कहना था कि हमारी टीम के खिलाड़ी एकजुट होकर तय करेंगे कि ईरान में सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में राष्ट्रगान गाने से इनकार किया जाए या नहीं? लेकिन जब उनकी टीम ने ऐसा किया तो वहां मौजूद हर कोई हैरान रह गया.
एक मजबूत संदेश है!
यहां सबसे बड़ी बात ये है कि ईरानी खिलाड़ियों ने जिस तरह के मंच और जमीन को अपने विरोध के लिए चुना वो काबिले-तारीफ है. क्योंकि कतर में एक तरफ मुस्लिम धर्म के प्रचार प्रसार के नाम पर जाकिर नाइक जैसे कट्टर मुस्लिम उपदेशक मेहमान बनकर पहुंच चुके हैं. सभी जानते हैं कि जाकिर नाइक फीफा विश्व कप के दौरान इस्लाम का प्रचार करने के लिए अपनी मजहबी तकरीरें पेश करने वाला है. यहां फुटबॉल खेलने और देखने आए दुनिया के लोगों को मुस्लिम मजहबी मकसदों की ओर मोड़ने की कोशिश करेगा. वहीं दूसरी तरफ कतर के तमाम मजहबी मंसूबों से इतर ईरान ने इस्लाम के ही एक कट्टर नियम का विरोध उसी की जमीन पर खड़े हो कर दिया है. इसका संदेश साफ है कि धार्मिक कट्टरता के नाम पर लोगों की आजादी पर किसी भी तरह से प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है. ऐसा करने वाला ईरान भी गलत है. ऐसी नियत रखने वाले खाड़ी देश भी गलत हैं.
हिजाब विवाद क्या है?
ईरान सहित कई मुस्लिम मुल्कों में महिलाओं को सावर्जनिक स्थानों पर हिजाब पहनने का कानून है. इसमें महिलाओं को कपड़े से अपने बाल, गर्दन और चेहरे को ढ़कना पड़ता है. ऐसा नहीं करने वाली महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाती है. ईरान में लंबे समय से हिजाब पहनने संबंधित इस कानून का विरोध किया जा रहा है. ऐसे ही एक विरोध प्रदर्शन के दौरान कुर्द मूल की महसा अमिनी (22) की मौत हो गई, जिसके बाद ये आंदोलन और ज्यादा व्यापक हो गया है. महसा के परिजनों का आरोप है कि पुलिस हिरासत में उसके साथ इतनी मारपीट की गई थी कि उसकी मौत हो गई. इसके बाद प्रदर्शन की धार तीखी हो गई. इसमें बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हो रही हैं. यहां तक महिलाओं ने ईरान की सड़कों पर नग्न प्रदर्शन तक किया है. विरोध की ये आग ईरान की सरहद पार कर चुकी है. कई अन्य देशों में भी हिजाब के खिलाफ आंदोलन हो रहे हैं.
दूसरी तरफ कट्टरपंथी जाकिर नाइक!
मुंबई पैदा हुआ, पला-बढ़ा जाकिर नाइक खुद को इस्लामी उपदेशक बताता है. मुंबई के टीएन मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने के दौरान उसका झुकाव इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार की तरफ होने लगा था. यही वजह है कि उसने अपने पिता की मदद से डोंगरी में एक स्कूल की स्थापना की थी. उसके पिता अब्दुल करीम नाइक एनसीपी नेता शरद पवार के करीबी माने जाते थे. इस तरह राजनीतिक मदद मिलने के साथ ही उसने अपने स्कूल का मदरसे के रूप में विस्तार करना शुरू कर दिया. इस दौरान वो मजहबी तकरीरें भी पेश करता था. जो लोगों को बहुत पसंद आती थीं. उसकी बातों से प्रभावित होकर खाड़ी के कई देशों ने आर्थिक मदद करनी शुरू कर दी. इस तरह उसने इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की, ताकि फंडिंग को दूसरे रूप में पेश किया जा सके. इसके साथ ही पीस टीवी नेटवर्क की भी स्थापना की, ताकि उसकी धार्मिक तकरीरें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाई जा सके.
आतंकी हमले में नाम
इस तरह हिंदुस्तान में बैठे-बैठे जाकिर नाइक दुनिया के कई मुल्कों में अपनी तकरीरें पहुंचाने लगा. उसके प्रशंसक कट्टर होते हैं. उसकी विचारधारा के पोषक धार्मिक कट्टरता में विश्वास करते हैं. साल 2016 की बात है. बांग्लादेश की राजधानी ढ़ाका के एक कैफे में आतंकी हमला हुआ, जिसमें कई लोग मारे गए. इस केस की जांच के दौरान ये बात सामने आई कि हमलावर जाकिर नाइक के फॉलोअर थे. हालांकि, महाराष्ट्र सरकार की जांच में उसे क्लीनचिट दे दिया गया था, लेकिन बांग्लादेश में उसके चैनल को बैन कर दिया गया. इसी दौरान 2006 में हुए मुंबई धमाकों में पकड़े गए एक शख्स ने खुलासा किया कि वो जाकिर के विचारों से प्रभावित था. उसकी संस्था के लिए काम करता था. इसके बाद आतंकी गतिविधियों में जाकिर का नाम आया. इस घटना के बाद नाइक मलेशिया भाग गया. वहां जाकर उसने नागरिकता ले ली है. उसके संगठन और चैनल को भारत में बैन कर दिया गया है.
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