क्रिकेट के इतिहास में आज का दिन बेहद खास है. आज से भारत और बांग्लादेश (India vs Bangladesh) के बीच डे-नाइट टेस्ट मैच (Day Night Test Match) शुरू हो गया है. बता दें कि दोनों ही टीमें पहली बार कोई डे-नाइट टेस्ट मैच (India vs Bangladesh Pink Ball Day Night Test Match) खेल रही हैं. साथ ही, भारत की सरजमीं पर खेला जाने वाला ये पहला डे-नाइट टेस्ट मैच है. एक और वजह से ये मैच बेदह खास है. इसी मैच में पहली बार भारत पिंक बॉल यानी गुलाबी गेंद (Pink Ball) से खेल रहा है. जब से इस गुलाबी गेंद की बात सामने आई थी, तब से तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि इससे खेलना थोड़ा मुश्किल होगा. हां ये भी कहा जा रहा था कि इससे पेसर्स को गेंदबाजी में फायदा मिलेगा. हुआ भी यही, शुरुआती 12 ओवरों के खेल में ही बांग्लादेश के 4 विकेट गिर गए, जबकि वह सिर्फ 26 रन ही बना सके. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि ये गुलाबी गेंद जिस तरह बांग्लादेश के लिए मुसीबत का सबब बन गई है, भारत जब खेलेगा तो क्या होगा. बता दें कि इस बॉल को SG यानी सैंसपरेल्स ग्रीनलैंड्स (Sanspareils Greenlands) कंपनी ने बनाया है. अधिकतर लोग इस बॉल के बारे में जानना चाहते हैं तो India Today पहुंचा SG फैक्ट्री के अंदर और इस गुलाबी गेंद के बारे में सब कुछ जाना. चलिए आपको भी बताते हैं इसकी हर बारीकी.
दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर दूर यूपी के मेरठ में SG फैक्ट्री है. इस फैक्ट्री में घुसते ही पता चलता है कि यह बिल्कुल ऑस्ट्रेलिया की कूकाबुर्रा (Kookaburra) क्रिकेट बॉल फैक्ट्री जैसी है, जो ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में मूरैबिन में स्थित है. कूकाबुर्रा भी SG की तरह ही खेल के सामान बनाती है. बस फर्क इतना ही है कि फैक्ट्री के सामने घास के मैदान में कूकाबुर्रा के सामने दाएं हाथ के बल्लेबाज का पुतला है, जबकि SG फैक्ट्री के सामने बाएं हाथ के बल्लेबाज का पुतला लगाया गया है. और बस यहीं पर कूकाबुर्रा और SG में समानताएं खत्म होती हैं.
गेंद बनाने वाली मेरठ की SG फैक्ट्री और ऑस्ट्रेलिया की कूकाबुर्रा एक ही जैसी हैं. (फोटो: इंडिया टुडे)
जैसे ही आप फैक्ट्री के अंदर घुसेंगे, आपको छोटे-छोटे स्टूल पर बैठे कुछ कारीगर मिलेंगे, जो अलग-अलग चरणों में बॉल बनाने के काम में लगे हैं. कुछ अंडाकार लैदर काट रहे होंगे, जिनके दो टुकड़ों को आपस में सिलकर गेंद बनेगी, जबकि कुछ कारीगर तेजी से बॉल की सिलाई करते हुए दिखेंगे. आपको मिलेगा कि यहां गेंद बनाने का अधिकतर काम हाथों से होता है, जबकि कूकाबुर्रा में आपको ऐसा देखने को नहीं मिलेगा. ऐसे में ये सवाल उठना लाजमी है कि सिर्फ हाथों से खेल के सामान बनाकर कैसे SG फैक्ट्री भारत के इतने बड़े खेल के बाजार को सामान की पूर्ति कर पा रहा है?
SG भारत में खेले जाने वाले टेस्ट और फर्स्ट क्लास क्रिकेट में 1990 से ही गेंद की सप्लाई कर रहा है. लेकिन इसकी कहानी 90 के दशक से पहले शुरू होती है. SG मार्केटिंग डायरेक्टर और परिवार के इस बिजनेस की तीसरी पीढ़ी पारस आनंद बताते हैं कि ये कंपनी 1931 में पाकिस्तान के सियालकोट में शुरू हुई थी. इसे पारस के दादा केदारनाथ आनंद ने शुरू किया था, जो बंटवारे के बाद सियालकोट से आगरा शिफ्ट हो गई और फिर मेरठ शिफ्ट हो गई. यूं तो कपंनी फुटबॉल, हॉकी, टेनिस आदि के सामान बनाती थी, लेकिन 50 का दशक खत्म होते होते और 60 के दशक की शुरुआत में कंपनी का फोकस क्रिकेट की ओर मुड़ गया. हालांकि, उसके बाद भी करीब 2 दशकों तक उनकी कंपनी ने संघर्ष किया. उसके बाद उन्होंने सुनील गावस्कर और कपिल देव के साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन किया.
SG फैक्ट्री में अलग-अलग लेवल पर बहुत सारे कारीगर मिलकर क्रिकेट की गेंद बनाते हैं. (फोटो: इंडिया टुडे)
पारस आनंद बताते हैं- सुनाल गावस्कर के साथ कॉन्ट्रैक्ट साइन करने के बाद 4-5 सालों में ही SG देश की नंबर-1 क्रिकेट उपकरण बनाने वाली कंपनी बन गई. उस समय भारत में टेस्ट मैच के दौरान अंग्रेजी गेंदों का इस्तेमाल किया जाता था, क्योंकि भारत में अच्छी क्वालिटी की गेंद नहीं होती थीं. इसलिए 90 के दशक में हमने तय किया कि हमारी टॉप-ग्रेड बॉल इंटरनेशनल लेवल पर खेलने के लिए उपयुक्त हो. उस समय वो गेंदें कपिल देव को दी गईं. उन्होंने प्रैक्टिस करना शुरू किया और अपना फीडबैक दिया. कुछ सालों तक इस पर काम करने के बाद बॉल के क्रिकेट में शामिल करने की इजाजत मिल गई. और अब करीब 30 साल हो चुके हैं, जब से SG की बॉल इस्तेमाल की जा रही है.
गुलाबी गेंद की चुनौती
हाल ही में सौरव गांगुली बीसीसीआई के प्रेसिडेंट बने हैं, जिन्होंने कोलकाता में डे-नाइट टेस्ट मैच कराने का फैसला लिया है. आनंद बताते हैं कि इस घोषणा से पहले बीसीसीआई ने उनसे संपर्क किया था और पूछा था कि क्या वह इतने कम समय में गुलाबी गेंद डेलिवर कर पाएंगे. आनंद बताते हैं कि जब पहली बार 2016 में गुलाबी गेंद इस्तेमाल की गई थी, तब से ही उन्होंने इस पर काम करना शुरू कर दिया था. यही वजह है कि जब बीसीसीआई ने उनसे पूछा तो वह बेझिझक हां कह सके.
हालांकि, आनंद थोड़ा नर्वस जरूर हैं क्योंकि कोलकाता टेस्ट मैच के दौरान इस पिंक बॉल पर सबकी नजर होगी. उनके नर्वस होने की एक वजह ये भी है कि पिछले 3 सालों से दिलीप ट्रॉफी में कूकाबुर्रा की जो गुलाबी गेंद इस्तेमाल हो रही है, उसकी भी आलोचना हो चुकी है. बल्लेबाजों की शिकायतें आईं कि गेंद को लाइट्स में देखना थोड़ा मुश्किल होता है, गेंदबाज कहते हैं कि गेंद सही से रिवर्स स्विंग नहीं करती है. खैर, आनंद मानते हैं कि SG ने जो गुलाबी गेंद बनाई है, उससे पहले उस पर पूरा रिसर्च किया और टेस्टिंग भी की है, जिसके चलते इन परेशानियों से निजा पाई जा सकती है.
आनंद बनाते हैं- हमने इस बॉल पर खूब काम किया है, ताकि 80 ओवरों तक ये गेंद अपना रंग ना खोए. लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस गेंद से खेलना सफेद और लाल गेंद से खेलने के अनुभव से काफी अलग होगा. हमारा फोकस इस गेंद को अधिक से अधिक चमकदार बनाने पर रहा, क्योंकि मैच दोपहर के समय शुरू होगा और जब तक शाम होगी और लाइटें जलेंगे, तब तक गेंद करीब 60 ओवर पुरानी हो चुकी होगी. कोशिश यही रही कि गेंद अपना गुलाबी रंग अधिक से अधिक देर तक संभाल सके. आपको बता दें कि गेंद पर सीम बनाने के लिए जंगली सुअरों के बाल को सुई की तरह इस्तेमाल किया जाता है.
गेंद पर सीम बनाने के लिए जंगली सुअरों के बाल को सुई की तरह इस्तेमाल किया जाता है.
गुलाबी vs लाल vs सफेद गेंद
SG के पारस आनंद बताते हैं कि उन्हें इस बार लाल और सफेद गेंद के बीच की तकनीक पर काम करना पड़ा. गुलाबी गेंद के बारे में अधिक जानने से पहले हमें लाल और सफेद गेंद को बनाने के तरीके को समझना होगा. लाल गेंद बनाने में डाई किया हुआ लैदर इस्तेमाल किया जाता है, ताकि गेंद के चकमदार लाल रंग दिया जा सके. इसके अलावा, हाथों से सिली जाने के चलते लाल गेंद अपनी सीम के लिए भी जानी जाती है. वहीं दूसरी ओर, सफेद गेंद की सीम उतनी अच्छी नहीं होती है. हार्ड सीम की वजह से पेस बॉलर्स को फायदा मिलता है. जैसे-जैसे गेंद पुरानी होती जाती है, रिवर्स स्विंग में फायदा मिलता है. यह फिंगर स्पिनर्स को भी मदद करती है, क्योंकि गेंद पर उनकी ग्रिप अच्छी बनती है.
गुलाबी गेंद क्रिकेट में इस्तेमाल होने वाली लाल गेंद और सफेद के मिश्रण वाली है. (फोटो: इंडिया टुडे)
लेकिन गुलाबी गेंद के मामले में लैदर को डाई करना काम नहीं आता है, क्योंकि हल्के रंग लैदर में अच्छे से नहीं चमकते. इसलिए SG ने पिगमेंटेशन करने की सोची, जिसमें लैदर पर कलर कोटिंग कर दी जाती है, जैसा कि सफेद गेंद बनाने में किया जाता है. इसे रंग देने की प्रक्रिया सफेद बॉल से मिलती है, तो इसकी सीम लाल गेंद जैसी होती है. यही वजह है कि गुलाबी गेंद को लाल और सफेद गेंद की तकनीक का मिश्रण कहा जा रहा है.
दुनिया के सबसे पहले डे-नाइट टेस्ट मैच में गेंद का आकार लंबे समय तक बनाए रखने के मकसद से 11mm मोटी घास रखी जाती है. हालांकि, ईडन गार्डन के पिच को 6mm रखने का फैसला किया गया है, ताकि गुलाबी गेंद लंबे समय तक चल सके. पारस बताते हैं कि ऐसी पिच पर गुलाबी गेंद अच्छा प्रदर्शन करेगी. पारस आनंद के अनुसार इस गेंद को बनाने के लिए विलो जैसा कुछ कच्चा माल इंग्लैंड से आया है, तो कुछ कश्मीर से कुछ विलो, ग्लव्स और पैड लाए गए हैं. कॉर्क पुर्तगाल का है और लैदर यूरोप और ऑस्ट्रेलिया से लाया गया है. यानी ये कहा जा सकता है कि इस गेंद को बनाने के लिए सामान दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से लाया गया है.
(यह लेख इंडिया टुडे वेबसाइट के लिए अजय तिवारी ने लिखा है)
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