पहले एक के बाद एक चोटें फिर इन सबके बीच एक तेज गेंदबाज पर टीम में बने रहने का दबाव. इसके बाद रास्ता निकलता है कि आप अपनी मूल गेंदबाजी में परिवर्तन करें. मसलन, स्पीड या अपनी शैली को लेकर. फिर कुछ वर्ष टीम में अंदर-बाहर होते हुए संन्यास तक का सफर. भारतीय तेज गेंदबाजों की कहानी यही है. मोहम्मद शमी भी शायद इसी कहानी के एक और किरदार बनने जा रहे हैं. लेकिन सवाल है कि आखिर क्यों हमारे तेज गेंदबाज अपने करियर में लंबे समय तक टिक नहीं पाते? और क्या हमारे कोच और हमारी कोचिंग पद्धति भी इसके लिए जिम्मेदार हैं.
कुछ दिन पहले ही ऑस्ट्रेलिया दौरे पर रवाना होने से पहले तेज गेंदबाज उमेश यादव ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा था किसी भी हाल में वह अपने पेस से समझौता नहीं करेंगे. उमेश भारत के उन गिने-चुने गेंदबाजों में शामिल हैं जिनकी गिनती सही मायने में फॉस्ट बॉलर्स के तौर पर होती है. दरअसल, भारतीय टीम में तेज गेंदबाजों की कमी हमेशा से महसूस होती रही है. ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि कई बार हमारे ही कोच इसके लिए जिम्मेदार होते हैं.
एक फास्ट बॉलर के टीम में आने के बाद टिके रहने का दबाव, हद से ज्यादा कोच की दखलंदाजी, लाइन-लेंथ पर ज्यादा ध्यान देने की नसीहत कहीं न कहीं उनके मूल प्रवृत्ति को ही बदल देती है. ये सब आगे जाकर उनके खेल को तो बदलते ही हैं. इसका असर उनके शरीर पर भी पड़ना लाजमी है. जाहिर है, छोटी-मोटी चोटें भी गंभीर रूप लेने लगती हैं.
ऐसा नहीं है कि भारत के पास अच्छे तेज गेंदबाज कभी आए ही नहीं. कपिलदेव, मदनलाल, रोजर बिन्नी से लेकर जवागल श्रीनाथ तक के दौर को छोड़ भी दें तो पिछले एक दशक में ही इरफान पठान से लेकर वरुण एरॉन, मोहम्मद शमी जैसे गेंदबाज हमारे सामने आए. लेकिन एक वक्त के बाद सभी अपनी धार खोते नजर आए. उदाहरण के तौर पर एरॉन को ही लें. जब शुरुआत में वह मीडिया और चयनकर्ताओं की नजर में आए तब उनका पेस खूब चर्चित रहा. कई लोगों ने तब उनकी तुलना ब्रेट ली से की लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में ही उनकी गति धीमी होती नजर आई है.
क्या सच...
पहले एक के बाद एक चोटें फिर इन सबके बीच एक तेज गेंदबाज पर टीम में बने रहने का दबाव. इसके बाद रास्ता निकलता है कि आप अपनी मूल गेंदबाजी में परिवर्तन करें. मसलन, स्पीड या अपनी शैली को लेकर. फिर कुछ वर्ष टीम में अंदर-बाहर होते हुए संन्यास तक का सफर. भारतीय तेज गेंदबाजों की कहानी यही है. मोहम्मद शमी भी शायद इसी कहानी के एक और किरदार बनने जा रहे हैं. लेकिन सवाल है कि आखिर क्यों हमारे तेज गेंदबाज अपने करियर में लंबे समय तक टिक नहीं पाते? और क्या हमारे कोच और हमारी कोचिंग पद्धति भी इसके लिए जिम्मेदार हैं.
कुछ दिन पहले ही ऑस्ट्रेलिया दौरे पर रवाना होने से पहले तेज गेंदबाज उमेश यादव ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा था किसी भी हाल में वह अपने पेस से समझौता नहीं करेंगे. उमेश भारत के उन गिने-चुने गेंदबाजों में शामिल हैं जिनकी गिनती सही मायने में फॉस्ट बॉलर्स के तौर पर होती है. दरअसल, भारतीय टीम में तेज गेंदबाजों की कमी हमेशा से महसूस होती रही है. ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि कई बार हमारे ही कोच इसके लिए जिम्मेदार होते हैं.
एक फास्ट बॉलर के टीम में आने के बाद टिके रहने का दबाव, हद से ज्यादा कोच की दखलंदाजी, लाइन-लेंथ पर ज्यादा ध्यान देने की नसीहत कहीं न कहीं उनके मूल प्रवृत्ति को ही बदल देती है. ये सब आगे जाकर उनके खेल को तो बदलते ही हैं. इसका असर उनके शरीर पर भी पड़ना लाजमी है. जाहिर है, छोटी-मोटी चोटें भी गंभीर रूप लेने लगती हैं.
ऐसा नहीं है कि भारत के पास अच्छे तेज गेंदबाज कभी आए ही नहीं. कपिलदेव, मदनलाल, रोजर बिन्नी से लेकर जवागल श्रीनाथ तक के दौर को छोड़ भी दें तो पिछले एक दशक में ही इरफान पठान से लेकर वरुण एरॉन, मोहम्मद शमी जैसे गेंदबाज हमारे सामने आए. लेकिन एक वक्त के बाद सभी अपनी धार खोते नजर आए. उदाहरण के तौर पर एरॉन को ही लें. जब शुरुआत में वह मीडिया और चयनकर्ताओं की नजर में आए तब उनका पेस खूब चर्चित रहा. कई लोगों ने तब उनकी तुलना ब्रेट ली से की लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में ही उनकी गति धीमी होती नजर आई है.
क्या सच में हमारी कोचिंग पद्धति के कारण ही हम बेहतरीन फास्ट बॉलर्स तैयार करने में नाकम रहे?
1. गति से ज्यादा लाइन-लेंथ को तरजीह:
यह सच है कि हमारी क्रिकेट अकादमियों में इसी बात पर शुरू से जोर दिया जाता रहा है कि पेस से ज्यादा जरूरी किसी बॉलर की लाइन और लेंथ है. इसके अलावा रिवर्स स्विंग पर भी खूब जोर दिया जाता रहा है. जबकि सही मायनों में तेज गेंदबाज का पहला काम बल्लेबाज को अपनी गति और भावभंगिमा से डराना होता है. उसका काम होता है कि वह बल्लेबाज को अपनी गति से उलझाए और रिस्की शॉट खेलने पर मजबूर करे. रिचर्ड हेडली से लेकर कर्टली एंब्रोस, कर्टनी वॉल्श और फिर ब्रेट ली, शेन बॉन्ड, डेल स्टेन इसी के उदाहरण हैं. हम ऐसे गेंदबाज तैयार करने में नाकाम रहे.
2. तेज गेंदबाजों पर रन रोकने का भी दबाव:
एक तेज गेंदबाज के लिए जरूरी होता है कि वह विकेट हासिल करे. पूरी दुनिया की क्रिकेट में इसी पर ध्यान दिया जाता है. हम इसके उलट सोचते हैं और उम्मीद करने लगते हैं कि वह बहुत इकोनॉमिकल भी साबित हो. वसीम अकरम या ग्लेन मैकग्राथ जैसे कुछ नाम जरूर अपवाद हैं जिन्होंने विकेट लेने के साथ-साथ रनों पर भी अंकुश लगाया. लेकिन ऐसा सभी के लिए कर पाना मुश्किल है. जब गति होगी तो यह अपने आप में रनों को रोकने में भी कारगर साबित होगी. जरूरत है कि उसे और मौका दिया जाए.
इन सबके अलावा हमारा जोर कहीं न कहीं इस पर भी होता है कि हमारे खिलाड़ी मैदान पर ज्यादा आक्रामक हावभाव न दिखाएं. यह सीख भी हमारी कोचिंग से ही आती है. जबकि एक तेज गेंदबाज के लिए बेहद जरूरी है कि वह मैदान पर भी आक्रामक दिखे. हालांकि यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि शालीनता भी बनी रहे. लेकिन कहीं न कहीं उसे अत्याधिक शालीन तरीके से पेश करने के प्रयास में हम अपने ही गेंदबाज की सहज प्रवृत्ति को भी छीन लेते हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.