29 अगस्त.....ये वो तारीख़ है जब देश में नेशनल स्पोर्टस डे मनाया जाता है. ये ही वो तारीख़ है जब 1905 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में देश में हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का जन्म हुआ. पिता समेश्वर सिंह फ़ौज में थे. 16 साल की उम्र में ध्यान सिंह भी फ़ौज में भर्ती हो गए. लेकिन उनमें हॉकी का जुनून इस क़दर था दिन भर की ड्यूटी करते थे और रात को चांद की रौशनी में हॉकी प्रैक्टिस करते थे.
चांद की रौशनी में प्रैक्टिस करने वाले ध्यान सिंह के जोश को देखते हुए उनके साथियों ने ध्यान सिंह से उनका नाम बदल कर ध्यान चंद रख दिया. राष्ट्रीय स्पोर्टस दिवस ध्यानचंद की हॉकी की जादूगरी को ही समर्पित है. और ऐसा हो भी क्यों न. देश ने अब तक 1920 से 2016 तक यानी 96 साल और 23 ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेकर 26 पदक जीते हैं, जिनमें 9 स्वर्ण पदक हैं. इनमें से 8 स्वर्ण पदक राष्ट्रीय खेल हॉकी में जीते गए हैं. इस जीत की नींव रखने वाले ख़ुद ध्यानचंद थे, जिन्होंने 1928, 1932 में बतौर बेहतरीन खिलाड़ी और 1936 में बतौर कप्तान भारतीय टीम को ओलंपिक गोल्ड मेडल जिताया.
1936 में हिटलर की मौजूदगी में भारतीय टीम ने फाइनल में जर्मनी को 8-1 से हराया। इसमें तीन गोल ख़ुद कप्तान ध्यान चंद ने दाग़े थे। फ़ील्ड में ध्यानचंद की हॉकी से जिस तरह से बॉल चिपक जाती थी उसको देख कर कहा जाता है कि उनकी हॉकी भी बदली गई. हिटलर ने मैच के बाद ध्यान चंद से मुलाक़ात करके उन्हें जर्मनी में बसने के ऑफ़र के साथ जर्मन फ़ौज में फ़ील्ड मार्शल के ओहदे की पेशकश की. जिसे ध्यान चंद ने बेहद नम्रता से ठुकरा दिया.
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अपने 22 साल के करियर में ध्यान चंद ने 400 से ज़्यादा गोल किये. एक बार तो उनकी हॉकी तोड़ कर ये भी पड़ताल की गई कि...
29 अगस्त.....ये वो तारीख़ है जब देश में नेशनल स्पोर्टस डे मनाया जाता है. ये ही वो तारीख़ है जब 1905 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में देश में हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का जन्म हुआ. पिता समेश्वर सिंह फ़ौज में थे. 16 साल की उम्र में ध्यान सिंह भी फ़ौज में भर्ती हो गए. लेकिन उनमें हॉकी का जुनून इस क़दर था दिन भर की ड्यूटी करते थे और रात को चांद की रौशनी में हॉकी प्रैक्टिस करते थे.
चांद की रौशनी में प्रैक्टिस करने वाले ध्यान सिंह के जोश को देखते हुए उनके साथियों ने ध्यान सिंह से उनका नाम बदल कर ध्यान चंद रख दिया. राष्ट्रीय स्पोर्टस दिवस ध्यानचंद की हॉकी की जादूगरी को ही समर्पित है. और ऐसा हो भी क्यों न. देश ने अब तक 1920 से 2016 तक यानी 96 साल और 23 ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेकर 26 पदक जीते हैं, जिनमें 9 स्वर्ण पदक हैं. इनमें से 8 स्वर्ण पदक राष्ट्रीय खेल हॉकी में जीते गए हैं. इस जीत की नींव रखने वाले ख़ुद ध्यानचंद थे, जिन्होंने 1928, 1932 में बतौर बेहतरीन खिलाड़ी और 1936 में बतौर कप्तान भारतीय टीम को ओलंपिक गोल्ड मेडल जिताया.
1936 में हिटलर की मौजूदगी में भारतीय टीम ने फाइनल में जर्मनी को 8-1 से हराया। इसमें तीन गोल ख़ुद कप्तान ध्यान चंद ने दाग़े थे। फ़ील्ड में ध्यानचंद की हॉकी से जिस तरह से बॉल चिपक जाती थी उसको देख कर कहा जाता है कि उनकी हॉकी भी बदली गई. हिटलर ने मैच के बाद ध्यान चंद से मुलाक़ात करके उन्हें जर्मनी में बसने के ऑफ़र के साथ जर्मन फ़ौज में फ़ील्ड मार्शल के ओहदे की पेशकश की. जिसे ध्यान चंद ने बेहद नम्रता से ठुकरा दिया.
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अपने 22 साल के करियर में ध्यान चंद ने 400 से ज़्यादा गोल किये. एक बार तो उनकी हॉकी तोड़ कर ये भी पड़ताल की गई कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं है. क्रिकेट के महान खिलाड़ी डॉन ब्रेडमेन ने ध्यान चंद को ऑस्ट्रेलिया के एडलेड में हॉकी खेलते हुए देख कर कहा था, 'हॉकी में ध्यानचंद ऐसे गोल करते हैं जैसे क्रिकेट में रनों की बौछार की जाती है.'
हॉकी के बहुत से खिलाड़ी और ध्यानचंद के फ़ैन्स मौजूदा वक्त में ध्यानचंद के लिये भारत रत्न की मांग भी कर रहे हैं. ध्यान चंद के करिश्माई खेल को देखते हुए ये मांग हर कसौटी पर जायज़ भी नज़र आती है.
ध्यानचंद की जयंती पर मनाया जाता है राष्ट्रीय खेल दिवस |
29 अगस्त को यूं भी ध्यान चंद जैसे महान खिलाड़ी की याद आना इसलिये ही नहीं ज़रूरी है क्योंकि आज उनकी सालगिरह है या फिर नेशनल स्पोर्ट्स डे है. बल्कि इसलिये भी ध्यान चंद को याद करना ज़रूरी है क्योंकि अभी से लगभग हफ्ते भर पहले ही भारतीय खिलाड़ियों का दल रियो ओलंपिक से लौटा है. कम से कम दस पदकों की उम्मीद के साथ गया अब तक का सबसे बड़ा 118 खिलाड़ियों का भारतीय दल सिर्फ़ दो पदक लेकर लौटा.
जिमनास्टिक में दीपा कर्माकर के शानदार प्रदर्शन के बावजूद एक और कांस्य पदक से हम चूक गए. बाक़ी के तमाम खिलाड़ी कुश्ती से लेकर, बॉक्सिंग, शूटिंग, यहां तक कि हॉकी में भी ख़ाली हाथ लौटे.
एक अजीब सच ये भी है कि 3 दिसंबर 1979 को हॉकी के जादूगर ध्यान चंद ने दुनिया को अलविदा क्या कहा मानो ओलंपिक में भारतीय हॉकी से मेडल की उम्मीद भी विदा हो गई. ध्यानचंद के गुज़रने के एक साल बाद यानी 1980 में मॉस्को ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने के बाद आज तक एक भी ओलंपिक मेडल भारत की झोली में नहीं आया. लगता है कि ध्यान चंद के जाते ही मानो भारतीय हॉकी से जीत का जादू ही छिन गया.
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सवाल यहां ये उठता है कि कब तक भारत किसी एक खिलाड़ी के करिश्मे का सहारा लेता रहेगा. कब वो दिन आएगा जब पूरा का पूरा भारतीय दल करिश्माई खिलाड़ियों से भरा होगा. अभिनव बिन्द्रा ने 2008 बीजिंग ओलंपिक में शूटिंग में स्वर्ण पदक जीता. और ये चलन बताता है कि हमारे देश में इस वक़्त खिलाड़ियों को कुछ करना है तो उनको अकेले के ही करिश्माई होना पड़ेगा.
सानिया मिर्ज़ा, पीवी सिंधू, साक्षी मलिक, जीतू राय, वीजेन्द्र सिंह, सायना नेहवाल, सुशील कुमार, दीपा करमाकर जैसे खिलाड़ियों का गाहे-ब-गाहे ख़ुद के बूते दम दिखाना इस धारणा को और पुख्ता कर देता है. कुछ लोगों का मानना है कि भारत में खेल में राजनीति भी बहुत ज़्यादा हैं.
शायद यही वजह है कि हालात अब ये हैं कि 96 वर्षों में और 23 ओलंपिक में भारत केवल 26 पदक अपने नाम कर सका. ये आंकड़ा अमेरिकी तैराक माइकल फ़ेल्प्स के अकेले के महज़ 16 वर्षों में 28 ओलंपिक मेडल के आगे बेहद अदना नज़र आता है. तो वहीं साढ़े 4 करोड़ की आबादी वाले केन्या ने महज़ 14 ओलंपिक खेलों में 91 पदक जीते हैं. तो हिसार से ज़रा से बड़े और 27 लाख आबादी वाले जमैका तक ने 17 ओलंपिक खेलों से 68 पदक जीते हैं.
ओलंपिक खेलों में भारत के ख़राब प्रदर्शन के पीछे बहुत बड़ी वजह देश में खेल के लिये कल्चर का ना होना माना जा रहा है. इसका अंदज़ा हम इस बात से लगा सकते हैं कि रियो ओलंपिक में 67 वें नंबर पर आये हमारे देश में रोज़ाना प्रति व्यक्ति आय का 3 पैसा खेल पर ख़र्च होता है. वहीं अव्वल रहे अमेरिका में 22 रुपये और दूसरे नंबर पर रहे यूके में प्रति व्यक्ति आय का 50 रुपया रोज़ाना खेल पर ख़र्च होता है. भोपाल में हॉकी के ऐस्ट्रो टर्फ़ और दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में ट्रैक्स के हालात ऐसे हैं कि इन पर प्रैक्टिस तो दूर, यदि खिलाड़ी दौड़ें तो चोट का डर रहता है.
पैसै ख़र्च करने से ज़्यादा माना जाता है कि किसी भी देश को स्पोर्ट्स में आगे निकलना है तो वहां स्पेर्ट्स कल्चर को बढ़ावा देना ज़रूरी है. और इसके लिये बहुत से देशों में हर दो किलोमीटर पर खेल का मैदान है या फिर ओपन एयर जिम हैं. हमारे यहां खुले मैदान रियल एस्टेट और बिल्डरों की भेंट चढ़ रहे हैं. और किसी को खेलना है तो महंगे क्लब ज्वाइन करने की औक़ात पहले रखने पड़ेगी, शौक़ तो बाद की चीज़ है.
शायद यही वजह है कि जीडीपी के लिहाज़ से बेहद पिछड़े देश बहामास और ग्रेनेडा रियो ओलंपिक की मेडल तालिका में सबसे ऊपर हैं.
अब हालांकि छोटी उम्र से टैलेंट पकड़ने के लिये एसीटीएन 3 स्पोर्टस जीन भी टेस्ट किया जा रहा है. ऑस्ट्रेलिया ने इस टेस्ट की शुरूआत की और जापान और यूरोप में भी इसका चलन शुरू हो गया है. भारत में बैंगलोर में एक लैब में 2000 रुपये में ये टेस्ट शुरू कर दिया गया है.
साधन भी हैं, टैलेंट भी और रास्ते भी. मंज़िल तक पहुंचने का जुनून चाहिये. राष्ट्रीय खेल दिवस पर हमें इस हक़ीक़त को समझना पड़ेगा. वर्ना ये खेल यूं ही चलता रहेगा.
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