उसने तो उस छोटे से बच्चे को एक गाली देने पर दौड़ने की सजा देकर बस इतना कहा था कि जब तक मैं ना कहूं दौड़ते रहना. वो तो कह कर भूल गया लेकिन मासूम बच्चा एक जुनून की तरह दौड़ता रहा...सुबह से शाम तक दौड़ता रहा. और तभी से उसने उस बच्चे के भीतर के एक महान धावक को पहचान लिया था. और बुन लिया था एक सपना कि 2016 के ओलंपिक में ये मासूम देश का गौरव बनेगा.
लेकिन उफ्फ ये वक्त....जाने क्या क्या दिखाता है. रियो में ओलंपिक का आगाज हो चुका है और उस मासूम बच्चे के अंदर का धावक शायद मर चुका है. यही नहीं उस बच्चे को एक महान एथलीट बनाने का सपना देखने वाला भी अब इस दुनिया में नहीं है.
इसे भी पढ़ें: मैराथन बॉय बुधिया सिंहः कैसे एक सितारा चमकने से पहले ही डूब गया!
मैं बात कर रही हूं वन्डर ब्वॉय बुधिया सिंह की जिस पर निर्देशक सौमेंद्र पाधी ने फिल्म बनाई है बुधिया सिंह-बॉर्न टू रन. फिल्म में मयूर पटोले बना है बुधिया और मनोज बाजपेयी बने हैं उसके कोच बिरंची दास. अलीगढ़ के बाद मनोज बाजपेयी एक बार फिर बेहतरीन एक्टर के रुप में सामने आए हैं. मयूर ने भी बुधिया के रुप से सबको रिझाया है. इस फिल्म को 2016 की सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. फिल्म का नाम बहुत सोच समझकर रखा गया है “बुधिया सिंह-बॉर्न टू रन”. सचमुच जब वो पांच साल की उम्र में दौड़ता था तो यही लगता था कि वो सिर्फ और सिर्फ दौड़ने के लिए ही जन्मा है.
जिंदगी की मैराथन में हार गया... उसने तो उस छोटे से बच्चे को एक गाली देने पर दौड़ने की सजा देकर बस इतना कहा था कि जब तक मैं ना कहूं दौड़ते रहना. वो तो कह कर भूल गया लेकिन मासूम बच्चा एक जुनून की तरह दौड़ता रहा...सुबह से शाम तक दौड़ता रहा. और तभी से उसने उस बच्चे के भीतर के एक महान धावक को पहचान लिया था. और बुन लिया था एक सपना कि 2016 के ओलंपिक में ये मासूम देश का गौरव बनेगा. लेकिन उफ्फ ये वक्त....जाने क्या क्या दिखाता है. रियो में ओलंपिक का आगाज हो चुका है और उस मासूम बच्चे के अंदर का धावक शायद मर चुका है. यही नहीं उस बच्चे को एक महान एथलीट बनाने का सपना देखने वाला भी अब इस दुनिया में नहीं है. इसे भी पढ़ें: मैराथन बॉय बुधिया सिंहः कैसे एक सितारा चमकने से पहले ही डूब गया! मैं बात कर रही हूं वन्डर ब्वॉय बुधिया सिंह की जिस पर निर्देशक सौमेंद्र पाधी ने फिल्म बनाई है बुधिया सिंह-बॉर्न टू रन. फिल्म में मयूर पटोले बना है बुधिया और मनोज बाजपेयी बने हैं उसके कोच बिरंची दास. अलीगढ़ के बाद मनोज बाजपेयी एक बार फिर बेहतरीन एक्टर के रुप में सामने आए हैं. मयूर ने भी बुधिया के रुप से सबको रिझाया है. इस फिल्म को 2016 की सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. फिल्म का नाम बहुत सोच समझकर रखा गया है “बुधिया सिंह-बॉर्न टू रन”. सचमुच जब वो पांच साल की उम्र में दौड़ता था तो यही लगता था कि वो सिर्फ और सिर्फ दौड़ने के लिए ही जन्मा है.
उड़ीसा की झुग्गियों से जूडो कोच बिरंची दास ने बुधिया को निकाला था और उसके हुनर को पहचान कर उसे मैराथन दौड़ने के लिए प्रेरित किया. महज 5 साल की उम्र में 48 मैराथन दौड़ कर बुधिया ने अपने कोच बिरंची दास के सपनों को और पंख दे दिए. बुधिया ने पुरी से भुवनेश्वर तक 65 किलोमीटर की मैराथन दौड़ कर अपना नाम वर्ल्ड्स यंगेस्ट मैराथन रनर के तौर पर लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल करा लिया था. इसे भी पढ़ें: कहीं राजनीति के मैराथन में बुधिया की तरह पिछड़ न जाएं कन्हैया फिल्म में बुधिया का कोच बिरंची दास पहले हॉफ तक एक संवदेनशील, जुझारु, जुनूनी कोच दिखाई देता है. वहीं दूसरे हॉफ में वो दर्शकों को एक ऐसा महत्वाकांक्षी, स्वार्थी शख्स जान पड़ता है जो बुधिया को दौड़ाकर अपना सपना पूरा करना चाहता है और उसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है. असमंजस ये कि बिरंची को सही कहें या गलत कहें. मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि बिरंची दास एक ऐसे कोच थे जो देश को एक अच्छा एथलीट देना चाहते थे. वो जानते थे कि देश ने आज तक एक भी मैराथन एथलीट को जन्म नहीं दिया है. वो एक ऐसे कोच थे जिसने गरीब बुधिया की प्रतिभा को पहचाना, उसे गोद लेकर अपना बेटा बनाया और रात-दिन तराशा. नन्हे बुधिया की लोकप्रियता ने तत्कालीन प्रशासन और सरकार को हिला दिया. बिरंची दास की विपक्ष के नेता से जान-पहचान सरकार और प्रशासन को फूटी आंख नहीं सुहाई. उन्हें लगा कि बुधिया के जरिए बिरंची राजनीति में आऩा चाहते हैं. या कोई बड़ा पद चाहते हैं. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. बिरंची दास जुनूनी थे पर बिकाऊ नहीं. वो झुग्गी के बच्चों को मुफ्त में जूडो सिखाते थे. लेकिन सरकार को बुधिया से उनके प्यार में जुनून में राजनैतिक स्वार्थ दिख रहा था. तत्कालीन चाइल्ड वेलफेयर डिपार्टमेंट ने बुधिया के दौड़ने पर पाबंदी लगा दी. वो आज तक लगी हुई है. 2008 में बिरंची दास की हत्या कर दी गई. बुधिया को स्पोर्ट्स हॉस्टल में डाल दिया गया. आज कहते हैं कि बुधिया दौड़ना चाहता है लेकिन अपने मनोबल को बढ़ाने के लिए, प्रेरित करने के लिए एक और बिरंची की तलाश है. सुनने में आया है अब तो वो ये कहता है कि मुझे तो ये पता ही नहीं था कि मैं इतना खास था. बेचारा बुधिया शायद ये जानता ही नहीं कि वो न सिर्फ ओलंपिक में नहीं खेल पाया बल्कि वो जिंदगी की मैराथन भी इस राजनीति के सामने हार गया है. इसे भी पढ़ें: ओलंपिक में भारतीय टेनिस की लुटिया डुबोने की जिम्मेदारी कौन लेगा? हमारे देश के नेता, हमारे अफसर, हमारा समाज आखिर क्या चाहता है? ओलंपिक खेलकर देश का नाम रोशन कर सकने वाले एक बच्चे के भविष्य को राजनीति ने खा लिया. शर्म आती है मुझे कि मैं एक ऐसे देश में रहती हूं जहां के राजनीतिज्ञ देश के बारे में कुछ सोचना ही नहीं चाहते. क्यों बेवकूफ बनाते हैं ये लोग भोली भाली जनता को. आज सिर्फ उड़ीसा की बेहूदा राजनीति के चलते देश को एक बड़ा एथलीट नहीं मिल पाया. मेरा सभी खेल के कोच लोगों से विशेष आग्रह है कि वो आगे आएं. बुधिया को दौड़ने के लिए प्रेरित करें. उसके अंदर ऐसा विश्वास, भूख और जुनून भरें जो बिरंची दास ने भरा था ताकि वो बिरंची की कमी महसूस न करे और फिर दौड़े. खुद के लिए, देश के लिए, बिरंची दास के लिए. इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये भी पढ़ेंRead more! संबंधित ख़बरें |