1966 के विश्वकप में ब्राज़ील के लज्जास्पद प्रदर्शन के बाद पेले ने अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल से संन्यास ले लिया था. अलबत्ता वे सान्तोस के लिए क्लब फ़ुटबॉल खेलते रहे. नवम्बर 1969 में जब उन्होंने ऐतिहासिक मराकाना स्टेडियम में वास्को के विरुद्ध खेलते हुए अपना 1000वां कॅरियर गोल किया तो 20 मिनटों के लिए खेल रोक दिया गया और इस अभूतपूर्व उपलब्धि का जश्न मनाया गया. उस उत्सव में विदाई सरीखे संकेत थे. पेले को कंधों पर बिठाकर घुमाया गया. जिस गेंद से गोल किया गया था, उसे पेले ने हाथों में उठा लिया और उसे दर्शकों को दिखाते हुए उनका अभिवादन स्वीकारा. विपक्षी टीम के प्रशंसक पेले के लिए विशेष जर्सी बनाकर लाए थे. इस पर पेले के नम्बर 10 के बजाय 1000 लिखा था, जिसे पेले ने सदाशयतापूर्वक पहन लिया. समाचार-मीडिया मैदान में दौड़ा चला आया और पेले को माइक्रोफ़ोन्स ने घेर लिया. पेले ने कहा, 'मैं अपना यह विशिष्ट गोल ब्राज़ील के बच्चों को समर्पित करता हूं' और ऐसा कहकर वे रो पड़े. उस दिन उनकी मां का जन्मदिन था! उस क्षण में कुछ ऐसा था, जिसे पवित्र, विलक्षण कहा जा सकता है. वह हर मायनों में विशिष्ट था. नवम्बर की 19वीं तारीख़ थी और उस दिन ब्राज़ील का नेशनल फ़्लैग डे होता है. मराकाना में एक लाख दर्शक मौजूद थे. मिलिट्री बैंड वहां पर था. आसमान में ग़ुब्बारे उड़ाए जा रहे थे. मानो नियति ने ही उस दिन को पेले के 1000वें गोल के लिए चुन लिया था. तब पेले ने मन ही मन सोचा तो होगा कि यह उत्कर्ष है. कि इससे अधिक मैं फ़ुटबॉल से कुछ नहीं चाह सकता. ऐसा सोचने के जायज़ कारण थे.
पेले पहले ही दो विश्वकप जीत चुके थे. वे ब्राज़ील और सान्तोस के सर्वकालिक महान गोलंदाज़ थे. वे दुनिया के सबसे प्रसिद्ध, लोकप्रिय फ़ुटबॉल खिलाड़ी थे...
1966 के विश्वकप में ब्राज़ील के लज्जास्पद प्रदर्शन के बाद पेले ने अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल से संन्यास ले लिया था. अलबत्ता वे सान्तोस के लिए क्लब फ़ुटबॉल खेलते रहे. नवम्बर 1969 में जब उन्होंने ऐतिहासिक मराकाना स्टेडियम में वास्को के विरुद्ध खेलते हुए अपना 1000वां कॅरियर गोल किया तो 20 मिनटों के लिए खेल रोक दिया गया और इस अभूतपूर्व उपलब्धि का जश्न मनाया गया. उस उत्सव में विदाई सरीखे संकेत थे. पेले को कंधों पर बिठाकर घुमाया गया. जिस गेंद से गोल किया गया था, उसे पेले ने हाथों में उठा लिया और उसे दर्शकों को दिखाते हुए उनका अभिवादन स्वीकारा. विपक्षी टीम के प्रशंसक पेले के लिए विशेष जर्सी बनाकर लाए थे. इस पर पेले के नम्बर 10 के बजाय 1000 लिखा था, जिसे पेले ने सदाशयतापूर्वक पहन लिया. समाचार-मीडिया मैदान में दौड़ा चला आया और पेले को माइक्रोफ़ोन्स ने घेर लिया. पेले ने कहा, 'मैं अपना यह विशिष्ट गोल ब्राज़ील के बच्चों को समर्पित करता हूं' और ऐसा कहकर वे रो पड़े. उस दिन उनकी मां का जन्मदिन था! उस क्षण में कुछ ऐसा था, जिसे पवित्र, विलक्षण कहा जा सकता है. वह हर मायनों में विशिष्ट था. नवम्बर की 19वीं तारीख़ थी और उस दिन ब्राज़ील का नेशनल फ़्लैग डे होता है. मराकाना में एक लाख दर्शक मौजूद थे. मिलिट्री बैंड वहां पर था. आसमान में ग़ुब्बारे उड़ाए जा रहे थे. मानो नियति ने ही उस दिन को पेले के 1000वें गोल के लिए चुन लिया था. तब पेले ने मन ही मन सोचा तो होगा कि यह उत्कर्ष है. कि इससे अधिक मैं फ़ुटबॉल से कुछ नहीं चाह सकता. ऐसा सोचने के जायज़ कारण थे.
पेले पहले ही दो विश्वकप जीत चुके थे. वे ब्राज़ील और सान्तोस के सर्वकालिक महान गोलंदाज़ थे. वे दुनिया के सबसे प्रसिद्ध, लोकप्रिय फ़ुटबॉल खिलाड़ी थे और कुछ समय के लिए दुनिया के सबसे महंगे एथलीट भी रह चुके थे. वे एक जीवित किंवदंती बन चुके थे. बालिग़ होने से पहले ही उन्हें सरकार ने राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया गया था. उनका खेल देखने के लिए एक बार एक युद्ध (नाइजीरिया-बायफ्रा) को दो दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया था. उनकी शैली चमत्कृत कर देने वाली थी ('जोगा बनीतो' यानी द ब्यूटीफ़ुल गेम) और फ़ुटबॉल ने उनसे पहले उन जैसा दृढ़निश्चयी गोलस्कोरर नहीं देखा था.
वे सम्पूर्ण फ़ॉरवर्ड थे. वे ड्रिबल कर सकते थे, दायें और बायें दोनों पैरों से गोल कर सकते थे, हेडर कर सकते थे, लहराती हुई फ्री-किक दाग़ सकते थे, ओवरहेड किक मार सकते थे, और प्लेमेकिंग के भी उस्ताद थे. पेले का बचपन साओ पाओलो की गलियों में फ़ुटबॉल खेलते बीता था, जब वे डीको कहलाते थे और ब्राज़ील की जिन्गा खेल तकनीक का मुज़ाहिरा करते थे. ग़ुरबत के दिन थे, उनके पास फ़ुटबॉल ख़रीदने के पैसे नहीं हुआ करते थे. वे एक मोज़े में काग़ज़ के टुकड़े भरकर उसे डोरी से बांध देते और उसी को फ़ुटबॉल बनाकर खेलते.
उनके पिता दोन्दीनियो भी फ़ुटबॉलर थे, लेकिन वे कभी ब्राज़ील के लिए नहीं खेल सके. जबकि पेले ने महज़ 16 साल की उम्र में राष्ट्रीय टीम में पदार्पण कर लिया था और 17 वर्ष के होते-होते तो वे विश्व-चैम्पियन बन चुके थे. यह एक परीकथा थी! और इस परीकथा का उत्कर्ष मराकाना में नवम्बर, 1969 में आया था, जब पेले ने अपना हज़ारवां गोल दाग़ा और दुनिया में उनका नाम गूंजने लगा. लेकिन क्या वास्तव में वही उत्कर्ष था?
पेले के दिमाग़ की कोई नस ज़रूर उस समय फड़की होगी और उन्होंने ख़ुद से यही सवाल पूछा होगा कि क्या सच में ही कुछ और पाने को शेष नहीं रह गया है? उन्हें भूला तो नहीं होगा कि 1962 के विश्वकप में अलबत्ता ब्राज़ील चैम्पियन बना था, लेकिन पेले आरम्भिक दौर में ही चोटिल होकर बैठ गए थे. 1966 में तो उनकी टीम पहले ही राउंड से बाहर हो गई थी. कहीं न कहीं कुछ कमी थी, कुछ खटक रहा था, विश्वकप पेले के लिए एक अनफ़िनिश्ड बिज़नेस था. वह 1969 का साल था और अगले साल फिर विश्वकप होने जा रहा था. पेले ने सोचा, क्यों न संन्यास का प्रण तोडूं, राष्ट्रीय टीम में वापसी करूँ, एक और विश्वकप खेलूं?
आज जब पेले की जीवन-गाथा सुनाई जाती है तो कहा जाता है कि 1970 की विश्व-विजय पेले के जीवन का सर्वोच्च-बिंदु था, जिसमें पेले ने न केवल सारे मैच खेले, बल्कि जीते भी. उन्होंने गोल किए, असिस्ट किए, खेल के मौक़े बनाए और जिस टीम में वे खेल रहे थे, उसे फ़ुटबॉल के इतिहास की सर्वकालिक महान टीम कहकर पुकारा गया. लेकिन यह कहानी दूसरी भी हो सकती थी, अगर पेले ने वापसी करने का निर्णय नहीं लिया होता और मराकाना के उस जयघोष को ही अपने खेल-जीवन का चरम मानने से इनकार नहीं किया होता.
जीवन में जब हमें लगता है कि अब कुछ शेष नहीं, तब भी कितना कुछ शेष रहता है? कई बार तो सर्वोच्च क्षण. यह पेले की कहानी हमें बताती है! एक बार मन बना लेने के बाद पेले प्राण-पण से विश्वकप की तैयारियों में जुट गए थे. उन्हें एक बेहतरीन टीम मिली. टूर्नामेंट के पहले मैच में चेकोस्लोवाकिया के विरुद्ध पेले ने 65 गज की दूरी से वह चर्चित लॉन्ग-रेंज शॉट लगाया था, जो गोल होते-होते रह गया था. आजीवन पेले को उस चूके हुए अवसर के सपने आते रहे, नींद के पैरेलल यूनिवर्स में वे उस गेंद को गोलचौकी में प्रवेश करते देखते रहे.
दूसरा मैच विश्वविजेता इंग्लैंड से था, जिसमें पेले के एक नायाब पास पर जाइरज़िनियो ने गोल करके ब्राज़ील को जीत दिलाई. इस गोल के लिए एदुआर्दो गालेआनो की यादगार कमेंट्री सुनिये : 'एवरीवन वॉज़ इन द बॉक्स, ईवन द क्वीन वॉज़ देयर! थ्री प्लेयर्स वर सफ़ोकेटिंग पेले ऑन द स्पॉट. ही मूव्ड टु राइट देन टर्न्ड टु लेफ़्ट एंड थ्री इंग्लिशमेन वेंट फ़ॉर अ स्मोक!' सेमीफ़ाइनल उरुग्वे के विरुद्ध था. 1950 के विश्वकप फ़ाइनल में हार यानी 'मराकानाज़ो के शाप' का हिसाब चुकता करने का अवसर आया था. एक नर्वस-शुरुआत के बाद टीम दूसरे हाफ़ में लय में आई और 3-1 से यह मैच जीत लिया.
1970 की उस विश्वजयी टीम के बारे में पेले ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'इट वॉज़ ऑल अटैक, अटैक, अटैक...' ब्राज़ील ने उस टूर्नामेंट में वर्टिकल-मूवमेंट वाली कमाल की आक्रामक फ़ुटबॉल खेली थी और गोलों की झड़ी लगा दी थी. इटली के विरुद्ध खेले गए फ़ाइनल की स्टार्टिंग इलेवन पर नज़रें दौड़ाएं. टीम में चार-चार फ़ॉरवर्ड खेल रहे थे- पेले और तोस्ताओ सेंटर फ़ॉरवर्ड थे, वहीं रीवेलीनियो और जाइरज़िनियो विंग में आसन्न ख़तरे की तरह मंडरा रहे थे.
ज़रूरत पड़ने पर मिडफ़ील्डर जेर्सन और क्लोदोआल्दो भी आगे बढ़कर खेलते थे. फ़ाइनल में चौथा और यादगार गोल तो राइट-बैक कार्लोस एल्बेर्तो ने किया था, जिन्होंने पेले के पास पर एक थंडरबोल्ट गोल दाग़ा था. यह इस विश्वकप में पेले का सातवां असिस्ट था. उन्होंने चार गोल भी किए, जिनमें से एक सधा हुआ हेडर फ़ाइनल में था. उस विश्वकप में पेले अपने शीर्ष पर थे, और वह भी अपनी संध्यावेला में!
1970 का फ़ाइनल मैच खेलने वाले इटली के डिफ़ेंडर तार्चीसियो बुर्गनिच ने तब पेले के बारे में कहा था - 'मैंने ख़ुद से कहा, आख़िर वह हाड़मांस का एक आदमी ही तो है, ठीक मेरी तरह. लेकिन मैं ग़लत था!' पेले ने एक वर्ष बाद स्वदेश की धरती पर ब्राज़ील के लिए अपना अंतिम मैच खेला. किंतु सही मायनों में उनकी कहानी जून 1970 में मुकम्मल हो चुकी थी!
कहते हैं हंस अपनी मृत्यु से पूर्व अपना सबसे मीठा गीत गाता है. उसी तर्ज़ पर हर फ़नकार की अंतिम और श्रेष्ठ प्रस्तुति 'स्वैन-सॉन्ग' कहलाई है. आप कह सकते हैं कि 1970 की विश्व-विजय पेले का 'स्वैन-सॉन्ग' थी. इस अनुकूल-अंत के बिना उनके जीवन की दंतकथा में कुछ बहुत महत्व का अपूर्ण रह जाता. यह वही अपूर्णता थी, जो पेले को मराकाना में खटक रही थी, जब उनके 1000वें गोल का उत्सव मनाया जा रहा था. हर फ़नकार चाहता है कि वह अपनी बात को चाहे जैसे कहे, लेकिन उसका अंत समुचित सुंदरता से करे. विदाओं को सुंदर होना चाहिए. पेले ने अपने लिए एक सुंदर विदा चुनी- यह उनका सौभाग्य था, और नियति भी!
(लेखक ने अपनी किताब मिडफील्ड में यह लेख प्रकाशित किया है)
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.