पिछले हफ्ते सुनील छेत्री ने फुटबॉल प्रेमियों से स्टेडियम में आने की अपील करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया था, जिसने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा. भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान का भावुक कर देने वाला मैसेज लोगों के दिल को छू गया. नतीजतन उसके बाद के मैचों में भारतीय का समर्थन करने के लिए बड़ी संख्या में फुटबॉल प्रेमी स्टेडियम पहुंचे.
हमारे कप्तान के संदेश बिल्कुल सरल था- "हमें तौलिए, जज कीजिए, हमें गालियां दीजिए, लेकिन भगवान के लिए कम से कम आइए और हमें खेलते हुए देखिए."
भारत के फुटबॉल टीम का कप्तान, देश के लिए 100 मैच खेलने वाला व्यक्ति और अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल में लियोनेल मेसी के बराबर गोल करने वाला खिलाड़ी. इन्होंने मुंबई के 7000 लोगों की जगह वाले स्टेडियम को भरने के लिए अपने 25 लाख फॉलोअर से इस बात की प्रार्थना की.
संख्याओं की वह विसंगति ही बताती है कि वास्तव में हमारे यहां भारतीय फुटबॉल की हालत क्या है. मुंह से तो लोग खूब बोलते हैं लेकिन जमीन पर ठोस काम बहुत कम होता है. इस तरह के भावनात्मक संदेशों को "शेयर" और "लाइक" सामाजिक रूप से कूल माना जाता है, लेकिन जब वर्चुअल को रियल में बदलने की बात आती है, तो कड़वी सच्चाई सामने आ जाती है. मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लोगों ने जनता से अपील की वो छेत्री की बात सुनें. उन्होंने छेत्री का समर्थन किया और उनके समर्थन में ट्वीट किया. लेकिन जब स्टेडियम में जाकर खेल देखने की बात आई तो फिल्म इंडस्ट्री से सिर्फ अभिषेक बच्चन मौजूद थे. अभिषेक बच्चन आईएसएल टीम चेन्नई इन एफसी के मालिक हैं. दिखावा करना भी कूल होता है.
लेकिन कम से कम लोगों ने बातें तो कीं. कुछ लोग तो इतना भी नहीं करते. और फिर निश्चित रूप से एक दूसरा पक्ष भी है. बचकाना संपादकीय लिखने वाले लोग, जो खाली स्टेडियमों और प्रशंसकों की कमी का कारण "यूरोपीय लीग देखने" को बताते हैं, उनके अनुसार लोग...
पिछले हफ्ते सुनील छेत्री ने फुटबॉल प्रेमियों से स्टेडियम में आने की अपील करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया था, जिसने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा. भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान का भावुक कर देने वाला मैसेज लोगों के दिल को छू गया. नतीजतन उसके बाद के मैचों में भारतीय का समर्थन करने के लिए बड़ी संख्या में फुटबॉल प्रेमी स्टेडियम पहुंचे.
हमारे कप्तान के संदेश बिल्कुल सरल था- "हमें तौलिए, जज कीजिए, हमें गालियां दीजिए, लेकिन भगवान के लिए कम से कम आइए और हमें खेलते हुए देखिए."
भारत के फुटबॉल टीम का कप्तान, देश के लिए 100 मैच खेलने वाला व्यक्ति और अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल में लियोनेल मेसी के बराबर गोल करने वाला खिलाड़ी. इन्होंने मुंबई के 7000 लोगों की जगह वाले स्टेडियम को भरने के लिए अपने 25 लाख फॉलोअर से इस बात की प्रार्थना की.
संख्याओं की वह विसंगति ही बताती है कि वास्तव में हमारे यहां भारतीय फुटबॉल की हालत क्या है. मुंह से तो लोग खूब बोलते हैं लेकिन जमीन पर ठोस काम बहुत कम होता है. इस तरह के भावनात्मक संदेशों को "शेयर" और "लाइक" सामाजिक रूप से कूल माना जाता है, लेकिन जब वर्चुअल को रियल में बदलने की बात आती है, तो कड़वी सच्चाई सामने आ जाती है. मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लोगों ने जनता से अपील की वो छेत्री की बात सुनें. उन्होंने छेत्री का समर्थन किया और उनके समर्थन में ट्वीट किया. लेकिन जब स्टेडियम में जाकर खेल देखने की बात आई तो फिल्म इंडस्ट्री से सिर्फ अभिषेक बच्चन मौजूद थे. अभिषेक बच्चन आईएसएल टीम चेन्नई इन एफसी के मालिक हैं. दिखावा करना भी कूल होता है.
लेकिन कम से कम लोगों ने बातें तो कीं. कुछ लोग तो इतना भी नहीं करते. और फिर निश्चित रूप से एक दूसरा पक्ष भी है. बचकाना संपादकीय लिखने वाले लोग, जो खाली स्टेडियमों और प्रशंसकों की कमी का कारण "यूरोपीय लीग देखने" को बताते हैं, उनके अनुसार लोग यूरोपीय लीग का पूरा सीजन देखकर थक गए हैं और अब रुस में होने वाले वर्ल्ड कप का इंतजार कर रहे हैं इसलिए स्टेडियम में नहीं जा रहे. साथ ही वो भारतीय टीम के "साधारण" खेल को भी प्रशंसकों में भारतीय फुटबॉल की उदासीनता के लिए दोषी ठहराते हैं. छेत्री इस पर कोई बहस नहीं की. बल्कि उन्होंने इसे प्रोत्साहित किया. उन्होंने यूरोपीय फुटबॉल के प्रशंसकों से पूछा, उन हजारों किलोमीटर दूर स्थित टीमों के उन मजबूत समर्थकों, से कहा कि अपनी टीम के लिए भी कुछ समय निकालें जो आपके पड़ोस में खेल रही है. "प्लीज आइए और हमें गालियां दें. लेकिन कम से कम हमें देखें."
"मेरा दूसरा देश". भारत के विश्व कप देखने वाले दर्शकों के लिए ब्रॉडकास्टर ने ये टैगलाइन रखा है.
किसी और दुनिया में ये बात राष्ट्र विरोधी हो सकती है. नहीं? सऊदी अरब का समर्थन करने वाला एक युवा कश्मीरी मुस्लिम लड़का, #MeriDoosriCountry. लेकिन दूसरा देश क्यों? क्योंकि आपके पास अपने देश के लिए समय नहीं है. वीकेंड पर भी खर्च करने के लिए 90 मिनट नहीं हैं कि अपने लीग फुटबॉल को देखें. ये वो टीमें हैं जिनसे आप खुद को जुड़ा भी महसूस कर सकते हैं. क्योंकि ये वो टीमें हैं जहां आप गए होंगे. घूमने. वहां रहते होंगे.
जून के महीने में मुंबई में टूर्नामेंट का आयोजन करने का फैसला करने वाला कोई जीनियस ही होगा. और 7,000 सीट वाले स्टेडियम में पानी से भरे हुए फील्ड पर अपने बेस्ट प्लेयर के सौवें मैच को कराने वाला भी जीनियस ही होगा. एक भारतीय प्रशंसक के लिए भारतीय फुटबॉल देखने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता है. ये एक आम शिकायत है. खेल की गुणवत्ता की बात तो रहने ही देते हैं. ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) ने देश में खेल को बढ़ावा देने के लिए कुछ भी नहीं किया है.
आईपीएल (और आईएसएल) जिस सूचना को देने के लिए लाखों खर्च करते हैं वो कहां है? और निश्चित रूप से टूर्नामेंट का समय. भारत और केन्या के बीच खेला गया फाइनल जिसे भारत ने 2-0 जीत लिया. वो मैच फ्रेंच ओपन फाइनल के शुरु होने के ठीक एक घंटे पहले शुरु हुआ. इसमें तो कोई शक नहीं कि फुटबॉल प्रेमी नडाल को देखने के बजाए अपनी टीम का मैच देखेंगे. लेकिन अगर हम दूसरे खेल को पसंद करने वाले को अपनी खींच पाते तो क्या दिक्कत थी?
लेकिन फिर यह वही प्रबंधन है जिसे मैच फीस बढ़ाने और और खेलने जाते समय यात्रा के लिए औपचारिक सूट दिलाने के लिए मान मनौव्वल की जरुरत पड़ती है. (अक्टूबर 2017 में, छेत्री के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल एआईएफएफ के महासचिव कुशल दास से इस मामले पर मिलने गया था). हमारे क्रिकेटरों के विपरीत, फुटबॉल खिलाड़ी केंद्रीय अनुबंध की सुरक्षा के तहत काम नहीं करते हैं. उनका वेतन उनके क्लब द्वारा तय किया और दिया जाता है. एआईएफएफ उनका तभी ख्याल रखता है जब वे राष्ट्रीय टीम के साथ होते हैं, और उन्हें 600 रुपये प्रति दिन का भुगतान करते हैं. जाहिर है, प्रतिनिधिमंडल ने इसे प्रति दिन 1000 रुपये तक बढ़ाने के लिए कहा. यह सब तब, जब एक लीग पीआर गतिविधियों पर एक करोड़ रुपये खर्च करता है. क्या आईएसएल जागेगा?
फुटबॉल प्लेयर एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एफपीएआई), भारत में पेशेवर फुटबॉलरों के हितों की रक्षा और प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन है और इसे अभी तक एआईएफएफ द्वारा मान्यता तक नहीं मिली है. 2006 में बनने के बाद से, उन्होंने कई मामलों को उठाया- अनुबंध, भुगतान न होना, चोट लगना और उनके साथ खिलाड़ियों की मदद भी की. लेकिन आधिकारिक मान्यता नहीं होने के कारण खिलाड़ियों को अक्सर अपने ही उपकरणों से काम चलाना पड़ता है.
निष्कर्ष यह है कि भारत वास्तव में विश्व कप खेलने का सपना देख रहा है लेकिन उसपर खर्च नहीं करना चाहता है. ये कोई बिल्डर अपार्टमेंट नहीं है. इस महल को बनाने के लिए आप खुद ही जिम्मेदार हैं. इसका सबसे सटीक उदाहरण वाइकिंग क्लैप है-
डाई-हार्ड इंडियन फैन (जाहिर है वेस्ट ब्लॉक ब्लू से प्रभावित हैं) जब टीम जीतती है तो इस तरीके से उसका समर्थन करते हैं. वाइकिंग क्लैप आइसलैंड की परंपरा है. रूस में, आइसलैंड कभी भी विश्व कप में भाग लेने वाला सबसे छोटा राष्ट्र बन जाएगा. क्लैप अपने आप में ही जोश दिलाने वाला है और इसे वर्ल्ड कप में रहना भी चाहिए. अब देखते हैं कि ये वहां कैसा चलता है.
(ये लेख वैभव रघुनंदन ने DailyO के लिए लिखा था)
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