आगामी टोक्यो ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए भारत के 122 खिलाड़ियों के नामों की घोषणा हो गई है. कोरोना काल ने ओलंपिक खेलों का मजा तो किरकिरा सा कर दिया है. पर फिर भी सारे भारत की जनता अपने खिलाड़ियों के श्रेष्ठ प्रदर्शन की उम्मीद तो करेगी ही. यह सब बेचारे लगातार पिछले चार साल से कड़ी मेहनत कर रहे थे. अब इनका समय आया है इन्हें अपनी प्रतिभा को दिखाने का. पिछले 2016 के रियो ओलंपिक खेलों में भी देश से 117 खिलाड़ियों ने शिरकत की थी. इस बार भारत के 122 खिलाड़ियों में से सबसे अधिक 30 खिलाड़ी हरियाणा से हैं. इसके बाद पंजाब से 16 खिलाड़ी ओलंपिक में भारत की नुमाइंदगी करेंगे. तीसरे स्थान पर 12 खिलाड़ियों के साथ तमिलनाडु है. उत्तर प्रदेश से 8, दिल्ली से 5, केरल से 8, मणिपुर 5 और महाराष्ट्र 6 खिलाड़ी टीम में शामिल हैं. पर अफसोस की बात यह है कि देश के सात राज्यों से एक भी खिलाड़ी इस विशालकाय भारतीय दल में नहीं है. इनमें बिहार के अलावा छत्तीसगढ़, गोवा, मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा भी शामिल है. सबको पता है कि बिहार देश के ज्ञान की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध है. लेकिन, बिहार कब खेलेगा? पिछले रियो ओलंपिक खेलों में भी 10 करोड़ की आबादी वाला यह विशाल प्रदेश भारतीय टोली में एक भी खिलाड़ी को नहीं भेज सका था. आखिर क्यों? क्यों बिहारी खेलते नहीं है? औसत बिहारी तो क्रिकेट संसार से लेकर टेनिस, फुटबॉल और अन्य सभी खेलों पर लंबी गंभीर बहस कर सकता है. उसे खेलों की दुनिया की हलचल का पता तो रहता है. लेकिन चाणक्य, चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक की संताने खेलने से बचते क्यों है?
बिहारी अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के लिए तो बहुत सारी कुर्बानियां देते हैं. पर वे अपने बच्चों को खेल...
आगामी टोक्यो ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए भारत के 122 खिलाड़ियों के नामों की घोषणा हो गई है. कोरोना काल ने ओलंपिक खेलों का मजा तो किरकिरा सा कर दिया है. पर फिर भी सारे भारत की जनता अपने खिलाड़ियों के श्रेष्ठ प्रदर्शन की उम्मीद तो करेगी ही. यह सब बेचारे लगातार पिछले चार साल से कड़ी मेहनत कर रहे थे. अब इनका समय आया है इन्हें अपनी प्रतिभा को दिखाने का. पिछले 2016 के रियो ओलंपिक खेलों में भी देश से 117 खिलाड़ियों ने शिरकत की थी. इस बार भारत के 122 खिलाड़ियों में से सबसे अधिक 30 खिलाड़ी हरियाणा से हैं. इसके बाद पंजाब से 16 खिलाड़ी ओलंपिक में भारत की नुमाइंदगी करेंगे. तीसरे स्थान पर 12 खिलाड़ियों के साथ तमिलनाडु है. उत्तर प्रदेश से 8, दिल्ली से 5, केरल से 8, मणिपुर 5 और महाराष्ट्र 6 खिलाड़ी टीम में शामिल हैं. पर अफसोस की बात यह है कि देश के सात राज्यों से एक भी खिलाड़ी इस विशालकाय भारतीय दल में नहीं है. इनमें बिहार के अलावा छत्तीसगढ़, गोवा, मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा भी शामिल है. सबको पता है कि बिहार देश के ज्ञान की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध है. लेकिन, बिहार कब खेलेगा? पिछले रियो ओलंपिक खेलों में भी 10 करोड़ की आबादी वाला यह विशाल प्रदेश भारतीय टोली में एक भी खिलाड़ी को नहीं भेज सका था. आखिर क्यों? क्यों बिहारी खेलते नहीं है? औसत बिहारी तो क्रिकेट संसार से लेकर टेनिस, फुटबॉल और अन्य सभी खेलों पर लंबी गंभीर बहस कर सकता है. उसे खेलों की दुनिया की हलचल का पता तो रहता है. लेकिन चाणक्य, चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक की संताने खेलने से बचते क्यों है?
बिहारी अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के लिए तो बहुत सारी कुर्बानियां देते हैं. पर वे अपने बच्चों को खेल के मैदान में लेकर नहीं जाते. बिहार में कहावत प्रसिद्ध है 'पढ़ोगे लिखोगे तो बनोंगे नवाब, खेलोगे- कूदोगे तो हो जाओगे खराब।' शायद इसीलिये बिहारी अभिभावक खेलों में करियर बनाने के लिए अपने बच्चों को प्रोत्साहित नहीं करते. अगर वे भी अपने बच्चों को खेल के मैदान में लेकर जाते तो बिहार भी पी.सिंधू, साइना नेहवाल, साइना मिर्जा या साक्षी मलिक जैसी अनेकों प्रतिभाओं को निकाल चुका होता. ये प्रतिभाएं तब सामने आती हैं जब उनके परिवार से उन्हें आगे बढ़ने के लिए तमाम सुविधाएं और प्रोत्साहन मिलती हैं.
हरियाणा की तरह खेलने वाले बच्चों के लिये गरीब माँ –बाप भी पर्याप्त मात्रा में उनके लिए दूध-दही, मक्खन-घी की व्यवस्था करते है. बिहारी समाज को सोचना होगा कि वे खेलों के संसार में किसी मुकाम पर क्यों नहीं पहुंच सके? बात राष्ट्रीय खेल हॉकी से ही शुरू करना चाहेंगे. समूचे बिहार में गिनती के एक-दो एस्ट्रो टर्फ से ज्यादा तो सुसज्जित हॉकी मैदान भी नहीं होंगे. वहां पर अनेकों स्तरों पर सरकार से अनेकों बार मांग के बावजूद राज्य में एस्ट्रो टर्फ मैदान था अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रशिक्षण केन्द्रों के बनाने की किसी सरकार ने सोची भी नहीं होगी.
जरा सोचिए कि राष्ट्रीय नायक दादा ध्यान चंद के देश में इस तरह के राज्य भी हैं जहां पर एस्ट्रो टर्फ के मैदान नहीं हैं. जिला केन्द्रों में भी खिलाड़िओं के प्रशिक्षण केंद्र नहीं है. आपको समूचे बिहार में एक भी क़ायदे का स्वीमिंग पूल मिल जाए तो गनीमत होगी. सेना और अर्ध सैनिक बलों के कुछ स्वीमिंग पूल हैं. पर उनका तो सैन्यकर्मी ही इस्तेमाल करते हैं. इस पृष्ठभूमि में कहां से तैयार होंगे खिलाड़ी बिहार में? कोई एक मसला हो, तो कोई बात भी हो. बिहार में खेलों के इंफ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने को लेकर कोई बात भी नहीं होती. जो एकाध गलती से बन भी गये, उनके प्रबंधन और रख-रखाव की तो बात ही न करें तो अच्छा है.
रियो ओलंपिक खेलों में गई भारतीय टोली में 66 पुरुष और 54 महिलाएं थीं. लेकिन बिहार से कोई एक भी खिलाड़ी नहीं जा पाया. बुरा मत मानिए, यही हरेक ओलंपिक खेलों में होता चला आया है. रियो ओलंपिक खेलों में हरियाणा से 23, उत्तर प्रदेश से 8, राजस्थान से 3, झारखंड से 3, मध्य प्रदेश से 2, उत्तराखंड से 2 और जम्मू-कश्मीर, छतीसगढ़, और दिल्ली से 1-1 खिलाड़ी थे.
सच्ची बात यह है कि बिहार में खेलकूद को बढ़ावा देने की कभी कोई ईमानदार कोशिश ही नहीं हुई है. राज्य में खेलों की संस्कृति विकसित न हो पाने के लिए राज्य सरकारें, सभी दलों के राजनेता, नौकरशाह और अभिभावक भी दोषी माने जाएंगे. वे भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते. उनका सारा फोकस बच्चों की पढ़ाई और उसके बाद उनके बच्चों का किसी प्रतियोगी परीक्षा को क्रैक करने-कराने तक ही रहता है.
रियो खेलों में कांस्य पदक विजेता साक्षी मलिक के पिता दिल्ली परिवहन निगम में मामूली बस कंडक्टर थे. उनकी आर्थिक दृष्टि से कोई हैसियत नहीं थी. फिऱ भी उन्होंने अपनी पुत्री को खेलों में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. हरेक बिहारी अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा सिविल सेवा की परीक्षा को पास करके कहीं का डीएम तो बन जाए. परन्तु, वह यह सोचता भी नहीं है कि उसके बच्चे के लिए खेलों में भी करियर हो सकता है.
यह इसीलिये भी है कि सरकारों की नीतियां खिलाड़ियों को जितनी प्रोत्साहन देने वाली होनी चाहिए, उतनी हैं नहीं. इसपर भी पुनर्विचार की जरूरत है.
देखिए टोक्यो में जा रहे खिलाड़ी सारे देश की नीतियां हैं. उन्हें बिहार भी शुभकामनाएं दे ही रहा है. हरेक बिहारी भी चाहता है कि भारतीय खिलाड़ी टोक्यो में भारी संख्या में पदक जीतें. पर बिहार और सारा देश तब खुश होगा कि जब भारतीय टोली में सब सूबों के खिलाड़ी भरपूर संख्या में होंगे. यहां पर प्रांतवाद की बात नहीं हो रही है. सीधी सी बात यह है कि जब देश का समावेशी विकास होगा तब ही देश कायदे से आगे बढ़ेगा. इसलिए बिहार में खेलों की खराब स्थिति को लेकर चिंता जताई जा रही है.
मैं स्वंय एक स्वाभिमानी बिहारी हूं अत: मैं इस चिंता को समझ सकता हूं. मेरे दोनों बच्चें खिलाड़ी और पर्वतारोही रहे हैं. वे ओलम्पिक तो नहीं जा सके, लेकिन, मेरा यह मानना है कि आज जो उनका व्यक्तित्व विकसित हुआ है उनमें उनकी अच्छी शिक्षा के साथ खेलकूद में उनकी रूचि और भागीदारी भी रही है. एक बात मैं अपने अनुभव के आधार पर कहना चाहूंगा की खेल-कूद से पढाई का हरगिज नुकसान नहीं होता. उलटे इससे पढाई में फायदा होता है.
खेलों से एकाग्रता और स्मरण शक्ति का अद्भुत विकास होता है. बिहार में खेलों के विकास की दृष्टि से एक बड़ा कदम यह हो सकता है कि राज्य कोरोना काल के नेशनल गेम्स की मेजबानी करे. मैं बिहार के यशस्वी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी से इसके लिए अनुरोध करूंगा. इससे राज्य में कई स्तरीय स्टेडियम बन जाएंगे. अगर बात फुटबॉल की करें तो इस खेल में टेलेंट मणिपुर से आ रहा है. जबकि मुझे याद है कि मेरे बचपन के दिनों में बिहार का शायद ही कोई अभागा गांव होगा जहां फुटबाल की एक अच्छी टीम नहीं होती होगी.
यह स्थिति सारे सरकारी स्कूलों की थी. अब मणिपुर भारत के फुटबॉल के गढ़ के रूप में उभर रहा है. पिछले अंडर 17 विश्व कप फुटबॉल चैंपियनशिप में खेली भारतीय टीम में आठ खिलाड़ी मणिपुर से थे. मणिपुर से देश को मेरी कॉम तथा डिंको सिंह जैसे महान मुक्केबाज मिल रहे हैं. क्या मणिपुर बहुत विकसित राज्य है? जब छोटा सा अविकसित राज्य मणिपुर देश को श्रेष्ठ खिलाड़ी दे सकता है तो बिहार क्यों नहीं.
टोक्यो ओलंपिक खेलों में बिहार के अलावा छत्तीसगढ़, गोवा, मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा के भी खिलाड़ी नहीं रहेंगे. इन सभी राज्यों को अपने यहां खेलों के विकास पर ध्यान देना होगा. युवाओं को खेलों में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा. बिहार को लेकर चिंता की वजह यह है कि यहां से लगातार दो ओलंपिक खेलों में कोई खिलाड़ी देश की टोली का हिस्सा नहीं बना. क्या देश बिहार से सिर्फ बाढ़, प्राकृतिक आपदा, स्तरविहीन राजनीति और अपराध जैसी तमाम नकारात्मक ही खबरें सुनता रहेगा ?
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