एक समय दुनिया के सबसे बेहतरीन क्रिकेटर्स में शुमार रहे मोंटी पनेसर अचानक ही क्रिकेट की दुनिया से गायब हो गए. अब पनेसर फिर से लौटे हैं. उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट करीब ढाई साल पहले 2013 में खेला था. तो आखिर इतने दिनों तक वह कहां थे? दरअसल पनेसर डिप्रेशन से जूझ रहे थे और अब वह पूरी तरह से ठीक होकर फिर से वापसी करने को तैयार हैं. यह 34 वर्षीय क्रिकेटर अब अपने अनुभवों को साझा कर रहा है ताकि मानसिक समस्याओं से जूझ रहने क्रिकेटरों को फायदा हो.
मोंटी पनेसर मानसिक समस्याओं से जूझने वाले अकेले क्रिकेटर नहीं हैं बल्कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऐसे क्रिकेटरों की तादाद काफी बढ़ गई है. अजीब बात ये है कि इस लिस्ट में इंग्लैंड के क्रिकेटरों का नाम ज्यादा है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान मानसिक समस्याओं के कारण क्रिकेट को अलविदा कहने वालों में मार्कस ट्रोस्कोथिक, एंड्रयू फ्लिंटॉफ, जोनाथन ट्रॉट और माइकल यार्डी जैसे क्रिकेटर शामिल हैं, संयोग से ये सभी इंग्लैंड के हैं. हालांकि जिम्बाब्वे के ग्रांट फ्लावर से लेकर भारत के प्रवीण कुमार तक दुनिया के कई और देशों के क्रिकेटरों को भी मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ा है.
यानी मानसिक समस्याओं से जूझने वाले क्रिकेटर पूरी दुनिया मे हैं. अब सवाल उठता है कि आखिर क्रिकेटर्स मानसिक समस्याओं से क्यों जूझते हैं और उनके डिप्रेशन में चले जाने की वजह क्या है? कई बार मानसिक समस्याओं से जूझने वाले वे क्रिकेटर्स होते हैं जिनके पास पैसे और सफलता की कमी नहीं होती है. तो आखिर क्रिकेटर्स डिप्रेशन में क्यों जाते हैं? आइए जानें.
डिप्रेशन का शिकार क्यों होते हैं क्रिकेटर्सः
इस समस्या से जूझने वाले मोंटी पनेसर बताते हैं कि जब इस समस्या की शुरुआत हुई तो अचानक ही उन्हें बहुत गुस्सा आने लगा. वह मैदान और मैदान के बाहर भी छोटी-छोटी बातों पर इतनी ज्यादा नाराजगी जताने लगे कि उनके परिवारवाले भी उनकी आदत से परेशान हो उठे. वह कहते हैं, मैं चीजों के प्रति पागलपन का शिकार हो गया. कुछ न होने पर भी मुझे...
एक समय दुनिया के सबसे बेहतरीन क्रिकेटर्स में शुमार रहे मोंटी पनेसर अचानक ही क्रिकेट की दुनिया से गायब हो गए. अब पनेसर फिर से लौटे हैं. उन्होंने अपना आखिरी टेस्ट करीब ढाई साल पहले 2013 में खेला था. तो आखिर इतने दिनों तक वह कहां थे? दरअसल पनेसर डिप्रेशन से जूझ रहे थे और अब वह पूरी तरह से ठीक होकर फिर से वापसी करने को तैयार हैं. यह 34 वर्षीय क्रिकेटर अब अपने अनुभवों को साझा कर रहा है ताकि मानसिक समस्याओं से जूझ रहने क्रिकेटरों को फायदा हो.
मोंटी पनेसर मानसिक समस्याओं से जूझने वाले अकेले क्रिकेटर नहीं हैं बल्कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऐसे क्रिकेटरों की तादाद काफी बढ़ गई है. अजीब बात ये है कि इस लिस्ट में इंग्लैंड के क्रिकेटरों का नाम ज्यादा है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान मानसिक समस्याओं के कारण क्रिकेट को अलविदा कहने वालों में मार्कस ट्रोस्कोथिक, एंड्रयू फ्लिंटॉफ, जोनाथन ट्रॉट और माइकल यार्डी जैसे क्रिकेटर शामिल हैं, संयोग से ये सभी इंग्लैंड के हैं. हालांकि जिम्बाब्वे के ग्रांट फ्लावर से लेकर भारत के प्रवीण कुमार तक दुनिया के कई और देशों के क्रिकेटरों को भी मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ा है.
यानी मानसिक समस्याओं से जूझने वाले क्रिकेटर पूरी दुनिया मे हैं. अब सवाल उठता है कि आखिर क्रिकेटर्स मानसिक समस्याओं से क्यों जूझते हैं और उनके डिप्रेशन में चले जाने की वजह क्या है? कई बार मानसिक समस्याओं से जूझने वाले वे क्रिकेटर्स होते हैं जिनके पास पैसे और सफलता की कमी नहीं होती है. तो आखिर क्रिकेटर्स डिप्रेशन में क्यों जाते हैं? आइए जानें.
डिप्रेशन का शिकार क्यों होते हैं क्रिकेटर्सः
इस समस्या से जूझने वाले मोंटी पनेसर बताते हैं कि जब इस समस्या की शुरुआत हुई तो अचानक ही उन्हें बहुत गुस्सा आने लगा. वह मैदान और मैदान के बाहर भी छोटी-छोटी बातों पर इतनी ज्यादा नाराजगी जताने लगे कि उनके परिवारवाले भी उनकी आदत से परेशान हो उठे. वह कहते हैं, मैं चीजों के प्रति पागलपन का शिकार हो गया. कुछ न होने पर भी मुझे लगता था कि कुछ है, अचानक ही आप चीजों के बारे में ज्यादा सोचने और उनका ज्यादा विश्लेषण करने लगते हैं.' 'मुझे अपना आत्मसम्मान कमतर नजर आने लगा, खासकर जब भी मेरा आत्मविश्वास कम हो जाता था, मैं पागलपन की स्थिति में चला जाता था. चुप रहने के बजाय मैं अपनी टीम के साथियों की तरफ से अंपायर्स और विपक्षी खिलाड़ियों के प्रति उग्र हो जाता था.'
तो इन कारणों से क्रिकेटर्स होते हैं डिप्रेशन का शिकारः
क्रिकेटर्स के डिप्रेशन का शिकार होने की कई वजहें हैं, जिनमें होमसिकनेस (लंबे समय तक घर से दूर रहने के कारण), लंबे क्रिकेट दौरे और खराब प्रदर्शन जैसी वजहें प्रमुख हैं. एक्सपर्ट्स का कहना है कि लंबे समय तक घर से दूर रहने के कारण ही क्रिकेटर्स में कई बार निराशा का भाव जन्म लेना शुरू करता है, जो बाद में मानसिक समस्या के रूप में सामने आता है. लेकिन इसकी सबसे प्रमुख वजह इस खेल का लंबा फॉर्मेट है जो कई बार अपनी बारी के इंतजार में क्रिकेटर्स को खुद के ज्यादा विश्लेषण का मौका देता है, और तब ज्यादातर उन्हें अपनी कामयाबियों की जगह अपनी असफलताएं याद आती है. उदाहरण के लिए एक टेस्ट मैच के दौरान कई बार एक गेंदबाज को दो-तीन दिन तक ड्रेसिंग रूम में बैठे रहने होता है. अब इस गेंदबाज का अपनी बारी का इतना लंबा इंतजार ही उसे निगेटिव थिंकिंग का मौका देती है.
भारतीय क्रिकेटर प्रवीण कुमार भी डिप्रेशन की समस्या से जूझते रहे हैं |
इसके अलावा लगातार अच्छा प्रदर्शन करने वाले क्रिकेटर्स जब अचानक ही खराब प्रदर्शन करने लगते हैं तो उन्हें टीम से बाहर होने का डर सताता है, कई बार ये डर उन्हें इस कदर नकारात्मक सोच में डुबोता है कि वे मानसिक अवसाद से घिर जाते हैं.
जैसा कि इंग्लैंड के महान ऑलराउंडर एंड्रयू फ्लिंटॉफ के केस में हुआ. 2006-07 में ऑस्ट्रेलिया के हाथों एशेज में मिली 0-5 की शर्मनाक हार का सदमा फ्लिंटॉफ के लिए इतना जोरदार था कि वह डिप्रेशन का शिकार हो गए और उन्हें काफी मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ा. इससे उबरने में फ्लिंटॉफ को काफी वक्त लगा. हालांकि फ्लिंटॉफ इस समस्या से उबरकर वापसी करने में सफल रहे लेकिन मार्कस ट्रेस्कोथिक और जोनाथन ट्रॉट, जैसे बेहतरीन क्रिकेटर्स का करियर मानसिक समस्या के चलते समय से पहले ही खत्म हो गया.
क्या सिर्फ इंग्लिश क्रिकेटर ही होते हैं शिकार?
अब सवाल उठता है कि आखिर इंग्लैंड के क्रिकेटर्स ही इस समस्या का शिकार क्यों होते हैं. तो जवाब है कि इंग्लैंड में इस समस्या के बारे में लोग ज्यादा जागरूक हैं और इसके बारे में बताने के लिए खुलकर सामने आते हैं. वहां पर क्रिकेटर्स के लिए इन समस्याओं से बचने के लिए क्लासेज चलाई जाती हैं. हालांकि इंग्लैंड में डिप्रेशन का शिकार होने वाले क्रिकेटर्स की तादाद ज्यादा है लेकिन ऐसा नहीं है कि दुनिया के बाकी देशों के क्रिकेटर्स इसके शिकार नहीं होते हैं, लेकिन वहां अभी मानसिक बीमारियों के बारे में जागरूकता का अभाव है और क्रिकेटर्स इन समस्याओं के बारे में बात करने से कतराते हैं.
जैसे जिम्ब्बाब्वे के क्रिकेटर ग्रांट फ्लावर भी इस समस्या का शिकार हो चुके हैं. इस लिस्ट में भारत के प्रवीण कुमार का भी नाम है, जिनके मैदान में विपक्षी टीम के खिलाड़ियों से उलझने की कई घटनाएं हैं. 2011 में वेस्टइंडीज के साथ पोर्ट ऑफ स्पेन में खेले गए टेस्ट के बाद मैदान पर प्रवीण के खराब व्यवहार के बाद तो मैच रेफरी धनंजय सिंह ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि प्रवीण कुमार मैच 'खेलने की मानसिक स्थिति में नहीं हैं.' ये टिप्पणी दिखाती है कि प्रवीण कितनी गंभीर समस्या से जूझ रहे थे.
लेकिन बीसीसीआई के पास अभी भी अपने क्रिकेटर्स को मानसिक समस्याओं से बचने और उनसे उबरने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. बीसीसीआई अपने नैशनल क्रिकेट अकैडमी में पिछले कुछ वर्षों से युवा क्रिकेटरों के लिए मेंटल कंडिशनिंग प्रोग्राम चला रहा है. लेकिन प्रवीण कुमार जैसे उम्रदराज क्रिकेटरों के लिए ऐसे किसी प्रोग्राम की व्यवस्था नहीं है.
क्रिकेटर्स जितने प्रतिस्पर्धात्मक और दबाव भरे माहौल में खेलते हैं उसमें मानसिक समस्याओं से दो-चार होना बड़ी बात नहीं है लेकिन जरूरी है कि क्रिकेट बोर्ड अब क्रिकेटर्स की इन समस्याओं के लिए मेंटल कंडिशनिंग प्रोग्राम चलाएं.
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