दिल्ली में दंगा होने पर अरविंद केजरीवाल खामोश क्यों हो जाते हैं?
दिल्ली (Delhi) में दो साल बाद दोबारा दंगे (Jahangirpuri Violence) हुए हैं - और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kjriwal) ने फिर से चुप्पी साध ली है. 2020 के हिसाब से देखें तो परिस्थितियां काफी अलग हैं क्योंकि अभी जो हुआ है उसे एमसीडी चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है!
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याद करें तो दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के नतीजे 11 फरवरी को आये थे. 16 फरवरी को अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी - और 23 फरवरी को ही दिल्ली में दंगे भड़क गये और स्थिति बेकाबू हो गयी.
फिर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का मैसेज लेकर खुद दिल्ली की सड़कों पर उतरना पड़ा था. हालात को काबू करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय को स्पेशल कमीश्नर भी नियुक्त करना पड़ा था.
दिल्ली के जहांगीरपुरी में हिंसा को लेकर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल फिर से निशाने पर हैं. फिर भी वो वैसे ही खामोशी अख्तियार कर चुके हैं, जैसे 2020 में किया था. अपनी तरफ से ये भी जता चुके हैं कि जो कुछ वो कर सकते थे, कर दिया है. ट्विटर पर लोगों से शांति बनाये रखने की अपील. मिल जुल कर रहने का आह्वान. ऊपर से दिल्ली के उप राज्यपाल से बात भी कर चुके हैं और ट्वीट कर ये भी बता दिया है. साथ में पुराने ट्वीट को भी टैग किया है, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये.
2020 में भी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सक्रियता ऐसी ही रही. लगा जैसे वो हाथ पर हाथ धरे बैठे हों. अपनी तरफ से मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार से दिल्ली दंगों पर काबू पाने के लिए सेना के हवाले करने की अपील भी की थी. इस बार ऐसी नौबत नहीं है. दिल्ली पुलिस ने हालात पर जल्दी ही काबू पा लिया था. हालांकि, रिटायर हो चुके पुलिस अधिकारियों का सवाल तो यही रहा कि ये सब होने की नौबत ही क्यों आई? मतलब, जो एहतियाती उपाय दिल्ली पुलिस कर सकती थी, लापरवाही क्यों बरती गयी?
केजरीवाल की खामोशी के पीछे क्या है: दिल्ली पुलिस तो सवालों के घेरे में है ही, एक बार फिर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी उसी कठघरे में खड़े हैं. आखिर अरविंद केजरीवाल कब तक ये जता कर पल्ला झाड़ते रहेंगे कि दिल्ली पुलिस उनके नियंत्रण में नहीं है?
पिछली बार दिल्ली में दंगा विधानसभा चुनावों के बाद हुआ था. चुनाव कैंपेन में भी खूब हिंदू-मुस्लिम और आतंकवाद को लेकर आरोप प्रत्यारोप के दौर चले थे. CAA के खिलाफ शाहीन बाग के धरने को लेकर सवाल भी पूछे गये थे - संयोग है या प्रयोग?
लेकिन इस बार दंगा चुनाव से ठीक पहले हुआ है. वही चुनाव जिसे लेकर अरविंद केजरीवाल पंजाब चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बरस पड़े थे. सीधा इल्जाम कि चुनाव आयोग ने ऊपर से फोन आने के बाद एमसीडी का चुनाव टाल दिया. वैसे ये दिल्ली के तीनों नगर निगमों को एक में मिला देने वाले केंद्र सरकार के बिल के ठीक पहले की बात है. अब तो बिल संसद से पास भी हो चुका है - जाहिर है चुनाव जल्दी ही होने वाले होंगे.
'सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता तो करो चुनाव है क्या?' मशहूर शायर राहत इंदौरी की ये लाइन ऐसे माहौल में बरसब याद आ जाता है. केंद्र सरकार और एमसीडी पर बरसों से काबिज बीजेपी पर तो ये आरोप लग ही रहे हैं - AAP नेता अरविंद केजरीवाल की खामोशी के पीछे भी वजह वही है क्या?
किस बात के मुख्यमंत्री?
करीब 26 महीने बाद फिर से वही सवाल उठ रहा है - अगर दिल्लीवालों को दंगे से नहीं बचा सकते तो अरविंद केजरीवाल किस बात के मुख्यमंत्री हैं?
ये सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि अरविंद केजरीवाल ही तो कहते हैं - 'वो परेशान करते रहे, हम काम करते रहे!' आम आदमी पार्टी का ये स्लोगन केंद्र की मोदी सरकार और दिल्ली के उप राज्यपाल को टारगेट करता रहा है. हाल ही में दिल्ली सरकार ने अधिकारों को लेकर फिर से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है - और अदालत की तरफ से नोटिस भेज कर केंद्र सरकार से जवाब मांगा गया है.
दिल्ली में फिर दंगा - और फिर कठघरे में केजरीवाल!
हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन अपने तमाम राजनीतिक कार्यक्रमों के बीच दिल्ली के आदर्श स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक देखने पहुंचे थे. काफी तारीफ किये और तमिलनाडु में भी वैसा ही करने की बात बोले थे. जब भी ऐसा होता है तो अरविंद केजरीवाल और दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया फूले नहीं समाते - और ये स्वाभाविक भी है. अपने काम की तारीफ तो सभी को खुशी देती है.
सवाल ये है कि जब 'परेशान' किये जाने के बावजूद दिल्ली की केजरीवाल सरकार ऐसे अच्छे अच्छे काम कर लेती है तो दंगों के मामले में क्यों चूक जाती है? ये कोई नहीं कह रहा है कि अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने दंगे क्यों नहीं रोके? क्योंकि जब दिल्ली पुलिस दंगे नहीं रोक सकती तो वास्तव में टीम केजरीवाल की क्या मजाल?
लेकिन दंगे हो जाने पर कुछ न कुछ तो किया ही जा सकता है. हाथ पर हाथ धरे रह कर बैठने पर तो सवाल उठेंगे ही. जिस दिल्ली के लोग अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को दो बार भारी बहुमत के साथ सरकार चलाने का जनादेश दे चुके हों, क्या वे केजरीवाल की बात नहीं सुनते?
2020 के चुनावों में ही विरोधियों की तरफ से आतंकवादी साबित करने की कोशिशों के बीच, अरविंद केजरीवाल ने बड़ी होशियारी से एक अपील की थी - अगर मुझे आतंकवादी समझते हो तो 8 फरवरी को बीजेपी को वोट दे देना. असल में 8 फरवरी, 2020 को ही दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले गये थे.
दिल्लीवालों ने केजरीवाल की एक अपील पर फिर से जनादेश दे दिया. नतीजों से केजरीवाल इतने खुश हुए कि मंच से बोल पड़े - दिल्लीवालों आई लव यू!
ऐसी क्या वजह है कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली में दंगा होने पर रस्मअदायगी में कुछ ट्वीट कर चुपचाप घर में बैठ जाते हैं? अगर दोबारा ट्वीट करते हैं तो बतौर सबूत अपने ट्वीट की ही रिप्लाई में करते हैं.
Spoke to Hon’ble LG. He assured that all steps are being taken to ensure peace and that guilty will not be spared. https://t.co/AMXEatbsub
— Arvind Kejriwal (@ArvindKejriwal) April 16, 2022
भला कैसे नींद आती होगी? 2015 में अरविंद केजरीवाल के दोबारा मुख्यमंत्री बनने के करीब दो महीने बाद ही जंतर मंतर पर एक बड़ी घटना हो गयी - और दिल्ली के मुख्यमंत्री तब भी सवालों के घेरे में आ गये थे. अप्रैल, 2015 में जंतर मंतर पर आम आदमी पार्टी का धरना चल रहा था और अरविंद केजरीवाल भी मंच पर मौजूद थे. तभी मंच के सामने वाले पेड़ पर राजस्थान के एक किसान गजेंद्र सिंह ने गले में फंदा लगा कर आत्महत्या कर ली थी.
उस घटना को लेकर अरविंद केजरीवाल पर सवाल उठाये गये. बाद में अरविंद केजरीवाल ने लंबा चौड़ा बयान जारी का अपनी तरफ से सफाई भी पेश की. ये भी कहा कि किसान की मौत से वो काफी दुखी थे और उस रात को वो सो भी नहीं पाये थे.
मान लेते हैं. राजनीतिक वजहों से ही सही, किसी ने अपनी फीलिंग शेयर की तो उसका सम्मान किया जाना चाहिये. सवाल तो ज्यादातर चुप्पियों पर ही उठते हैं, बयानों से तो बोझ हल्का हो ही जाता है.
अगर गजेंद्र सिंह की खुदकुशी पर अरविंद केजरीवाल एक रात नहीं सो पाते, तो दिल्ली दंगों में 50 से ज्यादा लोगों की मौत पर क्या हाल हुआ होगा? ये तो कयास ही लगाये जा सकते हैं कि केजरीवाल की न जाने कितनी रातें तकलीफदेह रही होंगी. 2020 में दिल्ली में 23 फरवरी से 29 फरवरी के बीच दंगे हुए थे.
दिवाली पर लगातार विज्ञापन, दंगे पर बस कुछ ट्वीट: संवैधानिक तौर पर अरविंद केजरीवाल के हाथ बंधे हुए हैं - और अब भी अपने अधिकारों के लिए वो देश की सबसे बड़ी अदालत में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं.
अरविंद केजरीवाल का सवाल अपनी जगह वाजिब लगता है कि जनता के चुने हुए मुख्यमंत्री को हर काम केंद्र सरकार की तरफ से नियुक्त किये गये उप राज्यपाल से पूछ कर क्यों करना पड़ता है? अगर जनादेश हासिल करने के बाद अपने नागरिकों के हित में मुख्यमंत्री कोई फैसला लेता है तो उप राज्यपाल उसे नामंजूर क्यों कर देते हैं?
सही बात है, अगर मुख्यमंत्री का फैसला सही नहीं है तो उसे कोर्ट में चैलेंज किया जा सकता है. लोग उसके खिलाफ आंदोलन कर सकते हैं. आखिर लोगों के आंदोलन के दबाव में ही तो तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था.
अरविंद केजरीवाल की भूमिका को लेकर सवाल इसलिए भी खड़े होते हैं क्योंकि जिन चीजों में उनकी दिलचस्पी होती है, वो काफी आगे बढ़ कर उसके लिए उसके लिए प्रयास करते हैं. हाल ही की बात है, पंजाब के चीफ सेक्रेट्री और आला अफसरों की मीटिंग को लेकर वो विरोधियों के निशाने पर रहे.
ये तो साफ साफ समझ आता है कि पंजाब चुनाव में लोगों से किये गये वादे पूरे करने में कोई गलती न हो, इसलिए वो संवैधानिक नियमों की परवाह तक नहीं करते. ये तो उनको अच्छी तरह मालूम होगा कि संवैधानिक तौर पर वो दिल्ली के अधिकारियों की तो बैठक बुला सकते हैं, लेकिन पंजाब के अफसरों को तो बिलकुल नहीं.
अधिकारी भी कई बार मजबूर होते हैं. अधिकारियों को पता है कि अगर वे भगवंत मान के नेता की बातें नहीं मानेंगे तो उनके मुख्यमंत्री नाराज हो जाएंगे. सीधे सीधे तो अधिकारियों को मीटिंग के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, लेकिन आगे पीछे उनको कीमत भी चुकानी पड़ सकती है, ऐसा डर तो लगता ही होगा.
अगर अरविंद केजरीवाल पंजाब के अधिकारियों को तलब कर मीटिंग कर सकते हैं, दीपावली मनाने के लिए टीवी पर विज्ञापन देकर बार बार जय श्रीराम बोल सकते हैं - तो दिल्ली में दंगे रोकने के लिए कोई वैसा प्रयास क्यों नहीं कर सकते?
ये तो प्यार में धोखा हुआ!
जिन दिल्लीवालों को अरविंद केजरीवाल वोट देने के लिए शुक्रिया कहते हुए आई लव यू बोलते हैं, अगर मुश्किल घड़ी में उनके साथ नहीं खड़े होंगे तो उनको कैसा लगेगा - ये तो प्यार में धोखा देने जैसा ही समझा जाएगा.
केजरीवाल के स्टैंड को लेकर एक समझ ये बन रही है कि अपने मुस्लिम वोटर की नाराजगी से बचने के लिए वो खुद को तटस्थ होने का प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन जब वो टीवी विज्ञापन के साथ साथ अयोध्या पहुंच कर 'जय श्रीराम' बोलते हैं तो वैसे वोटर के बीच क्या संदेश जाता होगा?
ये वही केजरीवाल हैं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर बेहद आक्रामक हुआ करते थे. प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमलों से भी परहेज नहीं करते थे. प्रधानमंत्री मोदी को कायर और मनोरोगी तक बता डालते थे - लेकिन धीरे धीरे वो ऐसी बातों से परहेज करने लगे क्योंकि वो लाइव टीवी पर हनुमान चालीसा भी पढ़ने लगे.
ये तो सबको समझ आ रहा है कि अरविंद केजरीवाल की हालत सांप-छछूंदर वाली हो गयी है. गले की हड्डी न निगलते बन रही है, न उगलते बन रही है. अरविंद केजरीवाल से AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी भी सवाल पूछ रहे हैं और विश्व हिंदू परिषद भी. वीएचपी के संयुक्त महासचिव सुरेंद्र जैन कह रहे हैं, 'दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आज आतंकवादियों की स्लीपर सेल बन गये हैं... मेरी केंद्र सरकार से मांग है कि NIA से जांच करायी जानी चाहिये - क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा शामिल है.'
बीजेपी सांसद मनोज तिवारी और दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष आदेश गुप्ता भी अरविंद केजरीवाल को बाकी राजनीतिक विरोधियों के साथ एक ही पलड़े में तौल दे रहे हैं.
बृंदा कारत का जहांगीरपुरी जाना,@KapilSibal का कोर्ट में पेश होना,और @AamAadmiParty नेताओं व कार्यकर्ताओं का दंगो में शामिल होना साफ दर्शाता है कि दंगाइयों को संरक्षण देने के लिए so called Secular Gang आज इकठ्ठा हो गया है।
— Adesh Gupta (@adeshguptabjp) April 20, 2022
अगर अरविंद केजरीवाल ने चुप्पी साध रखी है तो दिल्ली की पब्लिक भी सब कुछ खामोशी के साथ देख रही है. हो सकता है, अरविंद केजरीवाल भी सोच रहे हों कि ऐसे कई मौकों पर लोग सवाल उठाते रहते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोलते तक नहीं. एक ट्वीट तक नहीं आता. आगे चल कर मोदी को मात देने के मकसद से अरविंद केजरीवाल भले ही हिंदुत्व की राजनीतिक राह पकड़ चुके हों, लेकिन कॉपी करके सब तो हासिल किया नहीं जा सकता.
मान कर चलना चाहिये, जहांगीरपुरी हिंसा से भी अरविंद केजरीवाल को काफी तकलीफ हुई होगी - और शायद ही कभी वो 'खुद को अपनी खामोशी के लिए माफ भी कर पायें!'
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