नीतीश के मुकाबले अभी से तेजस्वी को बेहतर सीएम क्यों मानने लगे बिहार के लोग?
तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) फिर से बिहार के डिप्टी सीएम बन चुके हैं. नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के मुकाबले अभी से ही वो पसंदीदा मुख्यमंत्री बताये जाने लगे हैं, ऐसा सर्वे (Bihar Opinion Poll) में शामिल लोग मानते हैं - क्या बाकी लोग भी ऐसा ही सोच रहे होंगे?
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तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) की लोकप्रियता बताने वाले सर्वे ने पिछली बार उनको मिले शादी के हजारों प्रस्तावों की याद दिला दी है. फिर से बिहार के डिप्टी सीएम बन चुके तेजस्वी यादव को एक सर्वे में लोगों ने नीतीश कुमार के मुकाबले अपना पसंदीदा मुख्यमंत्री बताया है.
तेजस्वी यादव की अब शादी हो चुकी है और शादी होने के साल भर के भीतर ही वो फिर से खोयी हुई प्रतिष्ठा फिर से हासिल कर चुके हैं - जिसके लिए उनकी पत्नी राजश्री को लकी चार्म बताया जाने लगा है. तेजस्वी यादव ने दिसंबर, 2021 में शादी रचायी थी.
महागठबंधन की पिछली सरकार में डिप्टी सीएम रहे तेजस्वी यादव ने टूटी सड़कों की तस्वीर शेयर करने के लिए एक व्हाट्सऐप नबंर शेयर किया था, ताकि ऐसी सड़कों की सरकार मरम्मत करा सके. लोगों ने सड़कों में बने गड्ढों की तस्वीरें तो तेजस्वी यादव को भेजे ही, हजारों की संख्या में उनको शादी के प्रस्ताव भी मिले थे - हालांकि, तब उनकी ये लोकप्रियता मोस्ट एलिजिबल बैचलर कैटेगरी में दर्ज हुई थी. तभी बताया गया था कि तेजस्वी यादव की तरफ से शेयर किये गये व्हाट्सऐप नंबर पर 47,000 संदेश मिले थे - लेकिन 44,000 तो तेजस्वी यादव से शादी के प्रस्ताव रहे.
लेकिन करीब डेढ़ साल के कार्यकाल के बाद ही उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और नीतीश कुमार (Nitish Kumar) चाहते थे कि वो इस्तीफा दे दें. जब तेजस्वी यादव ने ऐसा नहीं किया तो वो मुख्यमंत्री पद से खुद ही इस्तीफा दे दिये. मुख्यमंत्री के इस्तीफे को पूरी कैबिनेट का इस्तीफा मान लिया जाता है, तेजस्वी यादव की कुर्सी अपनेआप चली गयी.
एक बार फिर बिहार की राजनीति में ऐसी उलटफेर हुई कि तेजस्वी यादव को फिर से डिप्टी सीएम बनने का मौका मिल गया. वो तो मुख्यमंत्री ही बनना चाहते थे, लेकिन मौजूदा हालत में ये संभव नहीं हो सका. 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव महागठबंधन के नेता और मुख्यमंत्री पद का चेहरा भी थे.
अब एक सर्वे (Bihar Opinion Poll) से मालूम हुआ है कि डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव को ही ज्यादातर लोग मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार पर तरजीह देते नजर आ रहे हैं - बिहार की घोर जातीय राजनीति में तेजस्वी यादव आखिर मुख्यमंत्री की पहली पसंत कैसे बन गये हैं?
ये सर्वे क्या कहता है?
बिहार में हुए सत्ता परिवर्तन के बीच ही सर्वे एजेंसी सी-वोटर ने एक ओपिनियन पोल कराया है. सर्वे के मुताबिक पोल में शामिल बिहार के 43 फीसदी लोगों को लगता है कि तेजस्वी यादव बेहतर मुख्यमंत्री हो सकते हैं.
नीतीश कुमार को सर्वे में शामिल महज 24 फीसदी लोग ही बेहतर सीएम मानते हैं, जबकि उनके सामने विकल्प के तौर पर तेजस्वी यादव और बीजेपी की तरफ से कोई नेता पेश किया गया है. बीजेपी के किसी नेता को सिर्फ 19 फीसदी लोगों ने ही मुख्यमंत्री की पसंद बताया है. इसकी एक वजह अब तक बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री लायक कोई चेहरा पेश नहीं किया जाना ही लगता है. बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी शुरू से ही नीतीश कुमार के साथ डिप्टी सीएम बने रहे, लेकिन 2020 के चुनाव के बाद बीजेपी नेतृत्व ने सुशील मोदी को राज्य सभा भेज दिया था - और नीतीश कुमार के साथ अपने दो डिप्टी सीएम लगा दिये थे, लेकिन न तो तब उनकी कोई खास पहचान रही, न ही कार्यकाल के दौरान वे कोई करिश्मा दिखा सके. बीजेपी ने वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे सैयद शाहनवाज हुसैन को भी नीतीश के मंत्रिमंडल में शामिल कराया था - और वो अपने कामकाज को लेकर चर्चित भी रहे.
क्या नीतीश कुमार के फिर से साथ आ जाने से तेजस्वी यादव को बिहार के लोग जंगलराज के साये से दूर करके देखने लगे हैं?
2020 के चुनाव में तेजस्वी यादव जिस महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे थे उसमें आरजेडी के साथ कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां भी शामिल थीं. लेफ्ट पार्टियों का प्रदर्शन कांग्रेस से अच्छा भी रहा, जिसके लिए तब आरजेडी नेताओं ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को टारगेट भी किया था.
तेजस्वी यादव अपने पिता लालू यादव के ही मुस्लिम-यादव फॉर्मूले के साथ चुनाव लड़े थे और चुनावों में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी. तब बीजेपी दूसरे और जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी बनी थी. संयोग से तमाम उतार चढ़ाव के बाद एक बार फिर वही स्थिति हो चुकी है और सभी की सीटें बढ़ चुकी हैं.
तेजस्वी यादव की राजनीति से जुड़े M-Y फैक्टर को देखते हुए सर्वे में भी दोनों वर्गों की राय ली गयी. ओबीसी कैटेगरी के लोगों में 44.6 फीसदी ने तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार के मुकाबले अपनी पहली पसंद बताया, जबकि इस मामले में भी 18.4 फीसदी लोगों की पसंद के साथ तीसरे स्थान पर रही.
नीतीश कुमार को ओबीसी वर्ग के 24.7 फीसदी लोगों ने मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहली पसंद बताया है - और ध्यान देने वाली बात है कि मुस्लिम समुदाय की राय भी ओबीसी तबके के करीब ही लगती है.
सीवोटर सर्वे के मुताबिक, मुस्लिम समुदाय में तेजस्वी यादव पोल में शामिल 54 फीसदी लोगों के मुख्यमंत्री की पहली पसंद बने हैं, जबकि नीतीश कुमार को 30 फीसदी लोग ही मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पसंद बता रहे हैं - और बीजेपी की राजनीति में तो वैसे भी मुस्लिम समुदाय से रिश्ता महज 'सबका साथ, सबका विकास' और तीन तलाक कानून तक ही माना जाता है. ऐसे में भी बिहार के 3.3 फीसदी लोग बीजेपी के मुख्यमंत्री के पक्ष में अपनी राय देते हैं. ये काफी महत्वपूर्ण बात है.
सर्वे में सवर्ण समाज को लेकर कोई राय नहीं बतायी गयी है - और वो राय काफी महत्वपूर्ण समझी जानी चाहिये. बिहार की जातीय राजनीति में सवर्ण बीजेपी के साथ रहता है. बीजेपी के साथ होने की वजह से नीतीश कुमार को भी सवर्ण समाज का साथ मिलता है. वैसे बिहार में हर तबके से बना एक तबका चुनावों में ऐसे भी खड़ा हो जाता है जो नीतीश कुमार के सुशासन के नाम पर वोट देता है.
आधी आबादी का पसंदीदा मुख्यमंत्री कौन?
2015 में ही नहीं, 2020 में भी नीतीश कुमार की सत्ता में वापसी में महिला वोटर की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गयी थी - लेकिन हैरानी की बात ये है कि नीतीश कुमार अब महिलाओं की पहली पसंद नहीं रह गये हैं. सर्वें में शामिल महिलाएं तो ऐसा ही मानती हैं.
ऐसा भी नहीं कि महिलाओं की ही ये राय है, पुरुषों की राय भी मिलती जुलती ही है - बिहार के 41.8 फीसदी पुरुष मुख्यमंत्री पद के लिए तेजस्वी यादव को ही पहली पसंद बता रहे हैं - और 44 फीसदी महिलाओं ने भी तेजस्वी यादव को ही अपनी पहली पसंद बताया है.
नीतीश कुमार को सिर्फ 23.3 फीसदी महिलाएं और करीब करीब उतने ही 23.8 फीसदी पुरुष अब भी मुख्यमंत्री की पहली पसंद बता रहे हैं. रही बात बीजेपी के मुख्यमंत्री की तो 19.6 फीसदी पुरुष और 17.5 फीसदी महिलाएं पक्ष में जरूर हैं.
नीतीश कुमार को महिलाओं के वोट जिन वजहों से मिले थे, एक बड़ी वजह शराबबंदी रही - लेकिन धीरे धीरे ये धारणा बनती जा रही है कि नीतीश की शराबबंदी फेल हो चुकी है. इसका असली कारण तो जहरीली शराब से होने वाली मौतें हैं. साथ ही कुछ अन्य विवाद भी हैं, जैसे शिक्षकों को शराबबंदी लागू करने की ड्यूटी में लगाना. हालांकि, विधानसभा में सवाल उठने पर तत्कालीन मंत्री ने ऐसी चीजों को खारिज कर दिया था.
नीतीश के पिछड़ने की असली वजह क्या है?
ये जातीय जनगणना का ही मुद्दा है जो नीतीश कुमार के लिए तेजस्वी यादव को फिर से साथ लेने का माध्यम बना. जातीय जनगणना के मुद्दे पर ही नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव के साथ प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी - और बाद में बीजेपी को भी नीतीश कुमार की चाल में फंस जाने के कारण सपोर्ट करना पड़ा था, जबकि केंद्र सरकार उसके खिलाफ थी और जातीय जनगणना कराने से इनकार भी कर दिया.
अब जबकि सत्ता पर वही गठबंधन काबिज हो चुका है जो जातीय जनगणना का पक्षधर रहा है, निश्चित तौर पर ऐसा होगा ही. ऐसा भी नहीं कि ये सिर्फ तेजस्वी की वजह से हो रहा हो, बल्कि नीतीश कुमार का ज्यादा ही योगदान है. अगर नीतीश कुमार जातीय जनगणना के लिए तैयार नहीं हुए होते तो तेजस्वी कर भी क्या सकते थे. ये ठीक है कि तेजस्वी यादव ने जातीय जनगणना को लेकर दिल्ली तक मार्च करने का ऐलान कर दिया था, लेकिन वैसी सूरत में भी सब कुछ नीतीश कुमार के रुख पर ही निर्भर करता था - केंद्र सरकार पर कोई फर्क तो पड़ता नहीं. हालांकि, तब नीतीश कुमार के आश्वासन पर ही तेजस्वी यादव ने अपना दिल्ली मार्च रद्द कर दिया था.
अब सवाल ये है कि नीतीश कुमार की राजनीति पर तेजस्वी यादव के भारी पड़ने की वजह क्या हो सकती है?
1. एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर: नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर 2020 के विधानसभा चुनाव में भी देखी गयी थी. नीतीश कुमार की चुनावी वैतरणी पार लगाने का श्रेय भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिया जाता है. नतीजा ये हुआ कि बीजेपी ने मोदी के नाम पर एनडीए की सत्ता में वापसी भी करायी और नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री भी बनाया लेकिन जेडीयू को किनारे भी लगा दिया.
एनडीए में भी नीतीश कुमार ही चेहरा थे और महागठबंधन में भी फिर से वैसी ही स्थिति बनी हुई है. फर्क बस ये है कि जैसे एनडीए में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपोर्ट हासिल था, महागठबंधन में नीतीश के हिस्से की वो जगह तेजस्वी यादव को मिल जा रहा है - और तेजस्वी यादव के नीतीश कुमार पर भारी पड़ने की एक वजह ये भी लगती है.
चूंकि नीतीश कुमार के बगैर बीजेपी सत्ता की रेस में फिलहाल पिछड़ चुकी है, लोग नीतीश कुमार के बाद तेजस्वी यादव को भी अगला मुख्यमंत्री मान कर चल रहे हैं - और चूंकि नीतीश कुमार के साथ एक बार फिर सत्ता विरोधी लहर जुड़ रही है, तेजस्वी यादव को पूरा फायदा मिलता लग रहा है.
2. 10 लाख नौकरी का चुनावी वादा: आरजेडी की तरफ से महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे तेजस्वी यादव ने 2020 के विधानसभा चुनाव में 10 लाख नौकरियां देने का वादा किया था - और वो भी कैबिनेट की बैठक में पहले फैसले पर पहली दस्तखत से.
तेजस्वी यादव के बिहार की सत्ता में साझीदार बनते ही बीजेपी समर्थक नौकरियों के वादे को लेकर सवाल पूछने लगे हैं - लेकिन वे ये भूल जाते हैं कि चुनावी वादा तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने की सूरत में था और अब भी उनकी डिप्टी सीएम के रूप में ही वापसी हुई है, न कि मुख्यमंत्री के रूप में. डिप्टी सीएम वैसे भी व्यवस्था में व्यावहारिक तौर पर कोई खास मायने नहीं रखता.
ज्यादातर लोगों के तेजस्वी यादव को पसंदीदा मुख्यमंत्री बताने की एक बड़ी वजह 10 लाख नौकरियों का वादा भी हो सकता है. लोगों को लग रहा होगा कि नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री होने से नौकरियों का वो वादा तो पूरा होने से रहा क्योंकि तब भी नीतीश कुमार की टीम और बीजेपी यही समझाने की कोशिश कर रहे थे कि ऐसे वादे पूरा करना संभव नहीं है.
3. नीतीश से ज्यादा तेजस्वी से उम्मीदें : नीतीश कुमार अब तक ज्यादातर चुनावों बिहार के लोगों को जंगलराज के नाम पर डराते रहे हैं, ऐसा सिर्फ एक बार वो नहीं किये थे - 2015 में जब वो लालू प्रसाद से हाथ मिला कर चुनाव मैदान में उतरे थे.
2020 में भी नीतीश कुमार और बीजेपी की तरफ से बार बार जंगलराज की याद दिलायी गयी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो तेजस्वी यादव को जंगलराज का युवराज तक कह कर संबोधित किया था.
लेकिन तेजस्वी यादव ने चुनावों से पहले ही जंगलराज के लिए माफी मांग ली थी. बल्कि, कई बार माफी दोहरायी भी. जंगलराज के साये से बचने के लिए पोस्टर और बैनर से भी लालू यादव और राबड़ी देवी की तस्वीरें हटा दी गयी थीं - हो सकता है आरजेडी के बहुमत के करीब पहुंचने में भी तेजस्वी यादव के इस रुख की भी भूमिका रही हो.
बिहार की स्थिति बेशक बेहतर हुई है, लेकिन वैसा विकास तो देश के कई हिस्सों में नजर आता है. लोगों ने जितना लालू-राबड़ी का शासन देखा है, नीतीश कुमार का उससे ज्यादा ही देख चुके हैं - और ऐसी सूरत में उम्मीद की किरण के रूप में तेजस्वी यादव नजर आर रहे हों.
नीतीश कुमार का सुशासन और उनकी सरकार की तरफ से लायी गयी वेलफेयर स्कीम की बदौलत लोगों का भरोसा बना रहा है, लेकिन नीतीश कुमार की ओरिजिनल छवि को काफी नुकसान भी पहुंचा है - और वो मौजूदा बीजेपी के साथ होने के चलते ही.
वाजपेयी-आडवाणी वाली बीजेपी और मोदी-शाह वाली वाजपेयी में बुनियादी फर्क है. लिहाजा तब के और अब के एनडीए में भी काफी फर्क आ चुका है. तब एनडीए में बीजेपी के साथियों का दबदबा हुआ करता था, अब मामला उलट गया है. तब स्थिति ये रही कि बीजेपी अयोध्या आंदोलन को भी बीजेपी अपने स्तर पर ही प्रोजेक्ट कर पाती थी - अब तो बीजेपी के साथ रहने वाले को भी उसी के एजेंडे के हिसाब से चलना पड़ा है और हर मामले में हां में हां मिलाना पड़ता है.
नीतीश कुमार को 2019 के बाद से बहुत सारे समझौते करने पड़े हैं. कई बार तो बड़ी ही अजीब स्थिति पैदा हो चुकी है. नीतीश कुमार मंच पर बैठे होते थे और बीजेपी नेता ऐसे नारे भी लगाते थे जिसका नीतीश कुमार के लिए सपोर्ट करना मुश्किल होता था. मजबूरी जो न कराये. नीतीश कुमार बैठे बैठे मुस्कुराते रहते थे. और ऐसा किसी और जगह होता तो शायद नीतीश कुमार भी ममता बनर्जी की तरह विरोध भी जताते, लेकिन नरेंद्र मोदी के मंच पर होते वो कर भी क्या सकते थे. ममता बनर्जी की बात और है, वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में बीजेपी की नारेबाजी को लेकर कड़ा विरोध जता चुकी हैं.
नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में हो सकता है बदलाव के प्रतीक के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने 2024 में बेहतर चैलेंजर साबित हों, बशर्ते विपक्षी दलों के नेता हाल के राष्ट्रपति चुनाव जैसा व्यवहार न करें, लेकिन बिहार के मामले में नीतीश कुमार से लोगों का मन भर चुका है. तेजस्वी यादव को इसी बात का सीधा फायदा मिल रहा है - लेकिन तभी तक जब तक कि बीजेपी अपनी तरफ से कोई फ्रेश चेहरा मैदान में नहीं उतारती.
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