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Updated: 23 जून, 2019 07:01 PM
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चुनाव हुए. नतीजे आये. मोदी सरकार 2.0 बन गयी और कामकाज भी शुरू हो गया, लेकिन ये सब सिर्फ चुनावी मोड से ब्रेक था - अब नये सिरे से एक बार फिर वही माहौल तैयार होने जा रहा है.

मौजूदा संसद सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित उनकी पूरी टीम का पूरा जोर तीन तलाक बिल पर. बिल पास कराने की बेचैनी की बड़ी वजह हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे तीन राज्यों में इसी साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव हैं. तीनों ही राज्य ऐसे हैं जहां खासी मुस्लिम आबादी है - झारखंड में करीब 15 फीसदी, महाराष्ट्र में करीब 12 फीसदी और हरियाणा में लगभग 7 फीसदी.

बीजेपी तीन राज्यों की चुनावी तैयारियों में तो जुटी ही है, 5 और 6 जुलाई को राज्य सभा की 9 सीटों के लिए चुनाव होने हैं - और यूपी की दर्जन भर सीटों के लिए उपचुनाव. ये उपचुनाव ज्यादातर विधायकों के लोक सभा चुनाव जीत कर संसद पहुंच जाने के कारण होने हैं. सीटें भी ज्यादातर बीजेपी के ही पास रही हैं - इसलिए गोरखपुर और फूलपुर जैसा हाल दोबारा न हो ये बीजेपी के लिए सबसे बड़ा टेंशन है.

देखा जाये तो बीजेपी से ज्यादा ये चुनाव विपक्षी दलों के लिए महत्वपूर्ण हैं - लेकिन सक्रियता और तैयारी में बीजेपी आगे नजर आ रही है. हो सकता है विपक्षी दल भी सक्रिय हों लेकर गोपनीय रणनीति के कारण उनकी तैयारियां सामने नहीं आ पा रही हों.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए ये चुनाव भी गोरखपुर-फूलपुर-कैराना उपचुनाव जैसे ही हैं, तो मायावती और अखिलेश यादव खुली जंग का ऐलान कर आमने-सामने उतर रहे हैं. कदम कदम पर पिछड़ी नजर आने वाली कांग्रेस के लिए भी ये चुनाव उतने ही महत्वपूर्ण है और यही वजह है कि कांग्रेस के दोनों यूपी प्रभारी महासचिव, प्रियंका गांधी वाड्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी हार की समीक्षा के बाद सहयोगी नेताओं को चुनाव क्षेत्रों में वस्तुस्थिति की जानकारी बटोरने के लिए रवाना कर दिया है.

सोनिया-मुलायम मोर्चे पर लेकिन तैयारियों में बीजेपी आगे

आम चुनाव के नतीजे आने के ठीक एक महीने बाद 23 जून को बीजेपी नेताओं की लखनऊ में बैठक होने जा रही है. ये बैठक नये मिशन की तैयारी के लिए है. दरअसल, कई नेताओं के लोक सभा चुनाव लड़ने के कारण विधानसभा सीटें खाली हो गयी हैं जिन पर उपचुनाव होने हैं. चुनाव आयोग चाहे जब तारीख बताए, राजनीतिक दलों ने तो तैयारी अभी से ही शुरू कर दी है.

modi, yogi shah again in election modeसरकार भी बनी दोबारा, फिर भी चुनावी मोड में आये बीजेपी नेता

बीजेपी की ही तरह बीएसपी की भी चुनावी बैठक भी 23 जून को लखनऊ में ही होने वाली है. इसी तरह आरएलडी की चुनावी बैठक 24 जून को होगी. इस बीच समाजवादी पार्टी और कांग्रेस भी अपने अपने तरीके से तैयारियों में जुट हुए हैं. सपा-बसपा गठबंधन को होल्ड कर दोनों पार्टियां अलग अलग चुनाव लड़ने जा रही हैं - और अखिलेश यादव की मदद के लिए मुलायम सिंह यादव भी सक्रिय हो गये हैं. सक्रिय तो राहुल गांधी की मदद के लिए सोनिया गांधी भी हैं, लेकिन उनका फोकस फिलहाल दिल्ली पर है.

बाकी पार्टियां तो अभी कई उधेड़बुन में उलझी हुई हैं, लेकिन उम्मीदवारों के चयन पर चर्चा के साथ ही एक कदम आगे बढ़ने जा रही है. खबर है कि लखनऊ की बैठक में जिला स्तर पर बने बीजेपी के पैनल के तीन नामों में से एक पर मुहर भी लग सकती है.

जीते हो तो फिर से जीतो, तब तक जीतो जब तक कि...

बीजेपी ने गोरखपुर और फूलपुर के साथ साथ कैराना उपचुनाव का भी बदला ले लिया है. आम चुनाव से पहले ही योगी आदित्यनाथ ने बीएसपी के सपोर्ट से गोरखपुर सीट जीतने वाले समाजवादी पार्टी के सांसद को ही अपने पाले में कर लिया था - लेकिन दूध के जले की तरह छाछ फूंक कर पीना नहीं छोड़ा है.

लगता है जब भी कभी कहीं के भी उपचुनावों की चर्चा होगी, बीजेपी को बार बार गोरखपुर की हार जरूर याद आएगी - और वो दर्द न भूलना ही बीजेपी को कामयाबी दिलाएगा. यूपी में होने जा रहे उपचुनावों को लेकर बीजेपी लोक सभा चुनाव की ही तरह नहीं, बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा गंभीर नजर आ रही है.

जिस भी सीट पर उपचुनाव होने हैं, पहली जिम्मेदारी तो उसी नेता की होगी जिसके सांसद बन जाने के बाद इस्तीफे के चलते वहां चुनाव होने जा रहा है. जिन सीटों पर बीजेपी के सांसद नहीं हैं वहां स्थानीय मंत्री और पास के संसदीय सीटों से जीते सांसदों की ड्यूटी लगेगी. साथ ही जिला स्तर के अधिकारियों को भी पूरी मुस्तैदी के साथ जुट जाने को कहा गया है.

देखा जाये तो ये उपचुनाव नये सांसदों के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं हैं. दो साल पहले विधानसभा चुनाव जीते थे और अभी अभी लोक सभा सांसद बने हैं, लेकिन ये वक्त आराम का नहीं हैं. बीजेपी नेतृत्व का संदेश ऐसे सभी सांसदों के लिए साफ है - जीते हो वो तो ठीक है, फिर से जीतना है. बार बार जीतना है. समझो तब तक जीतते रहना होगा जब तक पंचायत से पार्लियामेंट तक बीजेपी की सत्ता नहीं हो जाती और उसका स्वर्णिम काल नहीं आ जाता.

ये उपचुनाव ही नये सांसदों का कद और पद दोनों बढ़ाने वाले हैं और चुनावों में प्रदर्शन के ही आधार पर उनका भविष्य तय होने वाला है. खासकर उनका जो मंत्री बनने की कतार में खड़े हैं.

ऐसे नेताओं को फिलहाल एक ही बात साल रही होगी. कई नेता ऐसे हैं जो यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री रहे, लेकिन लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद सिर्फ सांसद बन कर रह गये हैं - न गाड़ी न बंगला और न ही वो मंत्री होने का रुतबा. योगी सरकार में रीता बहुगुणा जोशी, सत्यदेव पचौरी, एसपी सिंह बघेल कैबिनेट मंत्री रहे जो दिल्ली पहुंच कर पैदल हो गये हैं.

महज उपचुनाव नहीं, ये 2022 की प्रवेश परीक्षा है

हाल फिलहाल का फाइनल एग्जाम तो हो गया - लेकिन तभी अगले अगले कोर्स-2022 के लिए प्रवेश परीक्षा का वक्त आ गया. अहम तो ये सभी के लिए है लेकिन प्रवेश परीक्षा प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए है. ये ठीक है कि यूपी में उन्हें 'प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः' का अनुभव लेने को मजबूर होना पड़ा, लेकिन कई बार गलत वक्त पर गलत फैसले ऐसे ही नजीजे देते हैं. विशेष रूप से हड़बड़ी में लिये गये फैसले. प्रियंका वाड्रा के साथ पिछले इम्तिहान में साथ बैठे ज्योतिरादित्य सिंधिया को तो जो नुकसान सहना पड़ा है उसकी भरपाई फिलहाल मुश्किल है, लेकिन अगर उपचुनावों में कहीं कुछ कर पाये तो कलेजे को थोड़ी ठंडक जरूर मिल सकती है. क्योंकि मध्य प्रदेश में तो राजस्थान जैसा चांस भी नहीं होने की संभावना है कि अगर कहीं अशोक गहलोत फिर दिल्ली शिफ्ट हुए तो सचिन पायलट के लिए मैदान खाली मिलेगा. आम चुनाव की तरह उपचुनाव में भी प्रियंका वाड्रा और सिंधिया के जिम्मे बराबर सीटें ही आ रही हैं - आधी पूर्वी उत्तर प्रदेश से तो आधी पश्चिम यूपी से.

वैसे इन उपचुनावों में आम चुनाव जैसे नतीजे की अपेक्षा सही नहीं होगी. अव्वल तो ये विधानसभा के चुनाव हैं और समाजवादी पार्टी और बीएसपी अलग होकर चुनाव लड़ रहे हैं. हो सकता है आरएलडी और समाजवादी पार्टी मिल कर चुनाव लड़ें और उनमें कोई आपसी समझौता भी हो. कांग्रेस के लिए भी सहूलियत इस बात की होगी कि न तो मायावती और न ही अखिलेश यादव उसे वोटकटवा बताने की हिम्मत जुटा सकते हैं. जो भी होगा खुले मैदान में सबके सामने होगा.

मायावती ने भले ही किसी वजह विशेष से अखिलेश यादव से अलग होने का फैसला किया हो - लेकिन चुनाव जीतने के हिसाब से वो सही नहीं लगता. ऐसे तो मायावती, मोदी-योगी को एक बार फिर जीत का तोहफा ही दे बैठेंगी. आम चुनाव में 'मोदी-मोदी' वाला माहौल रहा, विधानसभा चुनाव में 'योगी-योगी' वाला होगा - और दोनों की ध्वनि एक जैसी भले ही हो हकीकत में बिलकुल अलग हैं. आम चुनाव में न तो किसी ने सांसद चुना न योगी आदित्यनाथ को वोट दिया - बीजेपी को वोट देने वालों ने सिर्फ नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट दिया और वो बन चुके हैं. जरूरी नहीं कि विधानसभा के उपचुनाव में भी लोग उसी भाव से मतदान करें.

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