यूपी में ब्राह्मण वोटबैंक: मुख्यमंत्री नहीं बनाएंगे, बस वोट सब चाहेंगे
उत्तर प्रदेश में सियासत ने वक्त की नज़ाकत देखते हुए वोट बैंक मेटेरियल का स्थान अब ब्राह्मण समाज को दे दिया है. भाजपा से ब्राह्मण समाज की नाराजगी की भनक पाकर सभी गैर भाजपाई दल इस वर्ग को प्रबुद्ध वर्ग कह-कह कर इन्हें लुभाने,रिझाने, पटाने और अपने प्रलोभन के जाल में फंसाने के लिए चारा डाल रहे हैं.
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भाजपा के विकास के बाद उत्तर प्रदेश की सियासी फिजाओं में अब मुसलमान वोट बैंक मेटेरियल नहीं रहा. मतलबी सियासत ने वक्त की नज़ाकत देखते हुए वोट बैंक मेटेरियल का स्थान अब ब्राह्मण समाज को दे दिया है. भाजपा से ब्राह्मण समाज की नाराजगी की भनक पाकर सभी गैर भाजपाई दल इस वर्ग को प्रबुद्ध वर्ग कह-कह कर इन्हें लुभाने.. रिझाने.. पटाने और अपने प्रलोभन के जाल में फंसाने के लिए चारा डाल रहे हैं. और भाजपा भी अपने इस परम्परागत सपोर्टर समाज को अपने पाले मे ही खुश रखने की कवायद जारी रखे है. लेकिन क़ाबिले गौर बात ये हैं कि ब्राह्मणों को प्रबुद्ध समाज से सम्बोधित करने वालों में इस प्रबुद्ध वर्ग से ब्राह्मण चेहरा पेश करने की पहल कोई राजनीतिक दल नहीं कर रहा है.
वजह साफ है- सपा में फिलहाल अखिलेश यादव के सिवा कोई दूसरा मुख्यमंत्री बनने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. यहां की सियासी केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स का आधार एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण है. सपा के अतीत में मुलायम सिंह यादव और फिर वर्तमान में अखिलेश यादव और भविष्य मे किसी दूसरे यादव के सिवा किसी गैर यादव मुख्यमंत्री की कल्पना भी करना मुश्किल है.
उत्तर प्रदेश में सभी प्रमुख दलों द्वारा ब्राह्मण तुष्टिकरण की कवायद तेज हो गयी है
समाजवादी पार्टी में मुस्लिम वोटों की हिस्सेदारी ज्यादा है लेकिन मुसलमान मुख्यमंत्री पेश करने का कोई जिक्र भी नहीं होता. कहा जाता है कि सपा द्वारा मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की बात भी करने से ध्रुवीकरण का खतरा पैदा हो सकता है जो भाजपा के लिए फायदेमंद और किसी भी धर्मनिरपेक्ष दल के लिए घातक है. ऐसे ही सपा में ब्राह्मण मुख्यमंत्री का तसव्वुर करना भी मुश्किल है.
बसपा मे भी यही हाल है. यहां दलित और मुस्लिम समीकरण से जब काम नहीं चला तो मायावती ने सतीश चंद्र मिश्रा को पार्टी से जोड़कर सोशल इंजीनियरिंग के प्रयोग में ब्राह्मण समाज का विश्वास जीत कर यूपी विधानसभा चुनाव जीता.
चौदह साल बाद एक बार फिर बसपा ने ब्राह्मण प्रेम का इज़हार किया है. लेकिन यहां भी सपा के यादव परिवार की तरह बसपा में मायावती के सिवा किसी दूसरे चेहरे की बतौर मुख्यमंत्री कल्पना भी नहीं की जा सकती. बसपा को ब्राह्मण वोट तो चाहिए है लेकिन यहां पार्टी सुप्रीमों मायावती के अलावा मुख्यमंत्री का कोई दूसरा चेहरा सामने आने का कोई जिक्र भी नहीं होता.
भाजपा सवर्णों की पार्टी कही जाती है लेकिन इस पार्टी की सफलता की राह पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग है. इसलिए भविष्य मे भी बतौर मुख्यमंत्री ब्राह्मण चेहरा पेश करके भाजपा यूपी की जातिगत राजनीति के पिच पर फिसलने का खतरा मोल नहीं लेगी.
करीब तीन दशक से यूपी में कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना. यूपी की सत्ता पर जिस जमाने में कांग्रेस का लम्बे अर्से तक कब्जा रहा उस दौर में कांग्रेस ने कई ब्राह्मण मुख्यमंत्री दिए. इसके बाद करीब तीन दशक से जब से कांग्रेस की यूपी में सयासी जमीन खिसकी तब से इस सूबे में ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन सका.
और अब हर कोई दल इस समाज के वोट बैंक पर डोले डालने की जद्दोजहद कर रहा है लेकिन इस समाज से मुख्यमंत्री का चेहरा देने को तैयार नहीं है.कयास लगाया जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस प्रियंका गांधी वाड्रा, प्रमोद तिवारी या किसी और ब्राह्मण चेहरे को पेश करेगी. लेकिन यदि ऐसा होता है तब भी तीन दशक पुराना इतिहास दोहराना बेहद मुश्किल है, क्योंकि कांग्रेस की स्थिति यूपी में अच्छी नहीं है.
यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी की लाख मेहनत के बाद भी कांग्रेस को थोड़ा बहुत लाभ होगा भी तब भी ये पार्टी सरकार बनाने की स्थिति मे आ जाए ऐसा होने की उम्मीद बेहद कम है. इन तमाम हालात और जातिगत राजनीतिक गहमागहमी में ब्राह्मण समाज की प्रतिक्रियां भी दिलचस्प हैं.
कभी लखनऊ कांग्रेस अध्यक्ष रहे और अब पार्टी से किनारा कर समाजसेवा कर रहे सुशील दुबे सपा, बसपा और भाजपा द्वारा उनके समाज को रिझाने पर दिलचस्प टिप्पणी करते हैं. कहते हैं- तुम लोग अपनी सियासत की सिनेमा में हीरो (मुख्यमंत्री)अपनों को बनाओगे और हम ब्राह्मणों को प्रबुद्ध वर्ग कह कर वोट हमारा पाओ और हमे क्राउड सीन मे रखो. ये नहीं हो पाएगा.
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