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Updated: 11 अप्रिल, 2019 12:46 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कन्हैया कुमार ने सीपीआई उम्मीदवार के तौर पर बेगूसराय से नामांकन दाखिल कर दिया है. जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार के चुनाव लड़ने से बेगूसराय में मुकाबला दिलचस्प हो गया है.

एक तरफ कन्हैया के राजनीतिक विरोधी उनके खिलाफ चल रहे देशद्रोह के केस को जोर शोर से उछाल रहे हैं, दूसरी तरफ देश भर कन्हैया के समर्थन में लोगों का उत्साह देखते ही बन रहा है.

मोदी सरकार के खिलाफ प्रतिरोध की मजबूत आवाज बन कर उभरे कन्हैया कुमार को सपोर्ट करने के लिए देश भर से उनके समथर्कों ने भी बेगूसराय में डेरा डाल दिया है. ऐसे कई सपोर्टर कन्हैया के नामांकन के जुलूस में भी नजर आये.

अब सवाल ये उठता है कि अगर कन्हैया को चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं माना जा रहा तो सीपीआई उम्मीदवार के साथ राजनीतिक विरोधियों का देशद्रोही जैसा सलूक कहां तक उचित है?

बेगूसराय में कन्हैया के समर्थकों ने डेरा डाला

कन्हैया के खिलाफ वैसे तो महागठबंधन के उम्मीदवार तनवीर हसन भी चुनाव मैदान में हैं, लेकिन मुख्य मुकाबला एनडीए प्रत्याशी गिरिराज सिंह से है. बीजेपी नेता जिस स्टाइल की राजनीति करते हैं, कन्हैया कुमार पहले से ही उन्हें दुश्मन वाली छोर पर नजर आते होंगे. '... वे पाकिस्तान चले जायें' वाले गिरिराज सिंह के बयान तो अक्सर सुर्खियों का हिस्सा रहे हैं. अब जबकि दोनों एक दूसरे के खिलाफ चुनावी अखाड़े में भी कूद पड़े हैं, फिर कहना ही क्या.

देखा जाये तो बीजेपी नेता और एबीवीपी कार्यकर्ता कन्हैया के साथ पहले से ही देशद्रोही जैसा ही सलूक करते आये हैं. अब तो गिरिराज सिंह जो कुछ कहते हैं वो काफी हद तक राजनीतिक तौर पर स्वाभाविक भी है. अपने भाषण में गिरिराज सिंह कह रहे हैं कि कल तक जो देश विरोधी नारे लगा रहे थे, आज बेगूसराय से सांसद बनने का ख्वाब देख रहे हैं. गिरिराज सिंह का कहना है जो भी भारत के विरोध या पाकिस्तान के समर्थन में बोलेगा उसका वे विरोध जरूर करेंगे.

kanhaiya kumarकन्हैया के चुनाव प्रचार के लिए देश भर से पहुंचे समर्थक

इस बीच कन्हैया के लिए वोट मांगने देश भर से उनके तमाम समर्थक बेगूसराय पहुंच चुके हैं. कन्हैया को समर्थन देने गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी, जेएनयू छात्रसंघ में कन्हैया की पूर्व सहयोगी और जम्‍मू कश्‍मीर पीपल्‍स मूवमेंट की नेता शेहला रशीद, गुरमेहर कौर और जेएनयू के लापता छात्र नजीब की मां फातिमा नफीस सहित लोगों का हुजूम कन्हैया के नामांकन जुलूस में भी देखा गया.

कन्हैया का केस और 'पप्पू' प्रकरण एक जैसे ही तो हैं

बेशक देशद्रोह का आरोप बेहद संगीन आरोप होता है. बल्कि, कहें तो किसी मुल्क के लिए इससे बड़ा कोई अपराध हो भी नहीं सकता. मगर, क्या देशद्रोह के आरोपी के साथ सजायाफ्ता जैसा बर्ताव होना चाहिये? वो व्यवहार जो कन्हैया कुमार के साथ कदम कदम पर लगातार हो रहा है.

सोशल मीडिया पर बेगूसराय से जुड़े कई लोगों ने कन्हैया कुमार के खिलाफ वोट करने की अपील की है - लेकिन ऐसा क्यों होना चाहिये?

अगर वास्तव में देशद्रोह के आरोपी के साथ सजायाफ्ता जैसा सलूक होना चाहिये तो उसे चुनाव लड़ने का भी मौका क्यों मिलना चाहिये? आखिर देशद्रोह के आरोपी के चुनाव लड़ने पर ही क्यों नहीं रोक लगा दी जानी चाहिये? जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार किसी अदालत द्वारा दो साल या उससे अधिक की सजा होने की सूरत में ही चुनाव लड़ने पर मनाही है. गुजरात के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल ताजातरीन उदाहरण हैं. हार्दिक पटेल ने सुप्रीम कोर्ट तक अपनी सजा पर रोक लगाने की अपील की लेकिन नाकाम रहे - और आखिरकार 2019 का लोक सभा चुनाव लड़ने से चूक गये. आरजेडी नेता लालू प्रसाद का मामला भी ऐसा ही है. लालू प्रसाद की तो सजा के चलते संसद की सदस्यता ही खत्म हो गयी थी.

अगर चुनाव आयोग कन्हैया कुमार को चुनाव लड़ने से नहीं रोक रहा है तो किसी और को इससे क्यों आपत्ति होनी चाहिये? चुनाव आयोग की नजर में कन्हैया कुमार अगर अपराधी नहीं हैं तो जनता को खुद फैसला क्यों नहीं लेने देना चाहिये?

अब सवाल ये उठता है कि अगर कन्हैया कुमार को उनके राजनीतिक विरोधी देशद्रोही के रूप में प्रचारित करते हैं तो क्या चुनाव आयोग को कोई एक्शन नहीं लेना चाहिये? याद रहे चुनाव आयोग ने 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी की प्रचार सामग्री रोक दी थी जिनमें राहुल गांधी को पप्पू कह कर संबोधित किया जा रहा था. आयोग के पर्यवेक्षकों ने उसे तभी पास किया जब बीजेपी ने पप्पू शब्द हटाया. तब बीजेपी ने राहुल गांधी के लिए पप्पू की जगह युवराज शब्द का इस्तेमाल किया था.

क्या चुनाव आयोग को कन्हैया के राजनीति विरोधियों द्वारा उन्हें देशद्रोही कहे जाने पर रोक नहीं लगाना चाहिये? बेहतर तो यही होता कि कोर्ट से पहले कन्हैया की किस्मत का फैसला बेगूसराय की जनता पर छोड़ दिया जाये.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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