गुजरात में चुनाव जल्द होने पर भी बीजेपी को कोई एक्स्ट्रा फायदा नहीं मिलने वाला
सुना जा रहा है कि बीजेपी तय समय से पहले गुजरात में चुनाव के पक्ष में है. क्या बीजेपी गुजरात में महज सत्ता बरकरार रखने ही नहीं, बल्कि यूपी जैसी बंपर जीत का सपना देखने लगी है?
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आदित्यनाथ योगी को यूपी की कमान सौंपते वक्त अमित शाह की जो सबसे चर्चित दलील रही वो थी - '2019 की जिम्मेदारी उन्हीं पर डाल देते हैं...' ठीक ऐसी ही दलील देकर शाह ने सात महीने पहले गुजरात में विजय रुपाणी को मुख्यमंत्री बनवाया था - '2017 का चुनाव जिताने की जिम्मेदारी उनकी होगी'.
गुजरात जाने से पहले ही शाह मोदी को यूपी की जीत का तोहफा सौंप चुके हैं. अब पूरे जोश के साथ वो पुराने मैदान पर नई जंग में उतरने जा रहे हैं. सुना जा रहा है कि बीजेपी तय समय से पहले चुनाव के पक्ष में है. क्या बीजेपी गुजरात में महज सत्ता बरकरार रखने ही नहीं, बल्कि यूपी जैसी बंपर जीत का सपना देखने लगी है?
2017 और 2019
पिछले साल इस्तीफा देने के बाद आनंदीबेन पटेल ने मुख्यमंत्री पद के लिए नितिन पटेल का नाम आगे किया था - और माना जाता है कि नितिन पटेल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पसंद थे, लेकिन शाह ने जिताऊ उम्मीदवार के साथ पर्सनल बॉन्ड भर कर मोदी को भी मना ही लिया.
विजय रुपाणी पर अब तक भले ही 2017 का दारोमदार रहा हो, लेकिन इस चुनाव के बाद अगर आगे भी उन्हें अपनी कुर्सी बरकरार रखनी है तो 2019 के लिए उन्हें खुद भरोसा दिलाना होगा. इस भरोसे का मतलब ये कत्तई नहीं कि चुनाव बाद बीजेपी को गोवा और मणिपुर की तरह सरकार बनाने के लिए अलग से राजनीतिक कवायद करनी पड़े. सिर्फ यूपी जैसी जीत ही विजय रुपाणी के लिए आगे भी कुर्सी पर बने रहने और 2019 की गारंटी हो सकती है.
बस जीत और कुछ नहीं...
जिन परिस्थितियों में विजय रुपाणी ने सत्ता संभाली वैसा माहौल अब नहीं रहा. जो पाटीदार आंदोलन आनंदीबेन की कुर्सी ले बैठा उसका वैसा रूप हाल फिलहाल तो नहीं दिखा. हाई कोर्ट से एंट्री बैन की अवधि खत्म होने के बाद हार्दिक जरूर अपनी जमीन तैयार करने में जुटे हैं लेकिन आंदोलन की धार अब वैसी नहीं दिखती. वैसे भी नगर निकाय चुनावों में हार्दिक फैक्टर का कुछ खास असर नहीं दिखा. हां, बीजेपी को नुकसान जरूर हुआ था. हार्दिक भी इस बीच अरविंद केजरीवाल से लेकर नीतीश कुमार तक से हाथ मिलाते और छोड़ते देखे जाते रहे हैं.
क्या पाटीदार आंदोलन की धार कुंद पड़ चुकी है? और क्या विजय रुपाणी सरकार के कामकाज ने बीजेपी की राह वास्तव में आसान कर दी है? सोमनाथ जा रहे अमित शाह के काफिले पर अंडे फेंके जाने की घटना इस सवाल का जवाब है. सूरत में मुख्यमंत्री सहित पूरे सरकारी अमले की मौजूदगी में अमित शाह का विरोध भी इसी कड़ी में एक और मिसाल है, जब नेताओं को बीच में ही कार्यक्रम छोड़ कर जाना पड़ा था.
सत्ता विरोधी चुनौतियां भी तो हैं
सिर्फ पाटीदार आंदोलन ही क्यों बीजेपी सरकार के सामने भी तो वैसी ही चुनौतियां हैं जैसी असम और मणिपुर की कांग्रेस सरकारों के सामने रहीं. यूपी में भी तो अखिलेश यादव के सत्ता से बेदखल होने में इसकी बड़ी भूमिका रही. विकास का गुजरात मॉडल बीजेपी का बिकाऊ पोस्टर रहा है लेकिन वो न तो दिल्ली में चला न बिहार में. यूपी में भी कब्रिस्तान और कसाब गुजरात के विकास मॉडल पर भारी पड़ते देखा गया.
पहले दिल्ली, फिर गुजरात...
यूपी में बीजेपी का वनवास खत्म करने में एक बड़ी जमात ऐसी भी रही जो मुलायम सिंह, मायावती और अखिलेश यादव की सरकारों से ऊब चुकी थी. उन्हें कुछ नया प्रयोग करना था. क्या गुजरात में सिर्फ पाटीदार ही विरोध के प्रतीक हैं? लेकिन पाटीदार यूपी के ऊबे हुए लोगों से अलग हैं जिन्हें सिर्फ अपनी मांग से मतलब है.
बीजेपी ऐसी मांगों से निबटने के लिए तरकीबें तलाश रही है. या कहें अति पिछड़ों को लेकर प्रस्तावित और संभावित आयोग ऐसे ही मामले से जुड़ा हुआ है. अगर बीजेपी ने कुछ सियासी हथियार बना लिये तो समझिये पाटीदार आंदोलन खत्म. फिर? फिर सत्ता विरोधी फैक्टर के शिकार लोगों के सामने कम से कम दो विकल्प खड़े होने की तैयारी में हैं. इनमें एक है आम आदमी पार्टी और दूसरी है कांग्रेस.
आप नेता अरविंद केजरीवाल ने पहले ही राज्य की 182 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर रखी है. पंजाब में शिकस्त के बाद जाहिर है केजरीवाल अब नयी रणनीतियों के साथ गुजरात के मैदान में उतरेंगे. अगर दिल्ली में एमसीडी चुनाव नहीं होते केजरीवाल को सूरत और आसपास के इलाकों में अभी वैसे ही सक्रिय देखे जा सकते थे जैसे पंजाब के मालबा में देखने को मिला. मुमकिन था गुजरात में भी 'खूंटा गाड़ के' बैठने की बात हो रही होती.
पंजाब की जीत से उत्साहित कांग्रेस भी अरसे बाद गुजरात में सत्ता के सपने देखने लगी है - और यही वजह है कि शंकरसिंह वाघेला गुजरात के लिए भी पोल मास्टर प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने को तत्पर दिखाई दे रहे हैं.
गुजरात में बीजेपी को वैसा ही किला बचाने की चुनौती है जैसे दूसरों के किले उसने असम और मणिपुर में ध्वस्त कर दिये. असम और गोवा-मणिपुर के तरीके अलग हो सकते हैं, लेकिन पांच राज्यों में से चार में सरकार बना लेने के बाद उसे इतना इतराने का हक तो बनता है.
भले ही अपने हिंदुत्व एजेंडे के हिसाब से आरएसएस को गुजरात और यूपी एक जैसे लैब लगते हों, लेकिन गुजरात में अयोध्या नहीं बल्कि द्वारका है ये तो बीजेपी को भी समझना होगा. बीजेपी अगर वाकई जल्दी चुनाव के चक्कर में है और प्रधानमंत्री की सांसदों को चुनाव के लिए तैयार रहने की बात कोई संकेत है तो वो कार्यकर्ताओं के लिए तो बढ़िया है लेकिन जीत की गारंटी नहीं. फिर तो गुजरात में चुनाव जल्द होने पर भी बीजेपी को कोई एक्स्ट्रा फायदा नहीं मिलने वाला.
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