नेहरु को नेहरु मेमोरियल से बाहर निकालने की साजिश के मायने
तीन मूर्ति हाउस और एनएमएमएल के भविष्य के बारे में वर्तमान बहस अतीत की जांच करने और यह देखने का अवसर प्रदान करती है कि मूल निर्णय वास्तव में सही निर्णय था या नहीं.
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जॉर्ज वाशिंगटन की स्मृति में व्हाइट हाउस को संग्रहालय नहीं बना दिया गया. क्रेमलिन में, सिर्फ लेनिन के निजी कमरे ही जनता के लिए खुले हुए थे. बाकी का पूरा क्रेमलिन अपने आधिकारिक कार्य उसी तरह करता रहा इसमें लेनिन के उत्तराधिकारियों को आवास प्रदान करना भी शामिल है. बीजिंग में झोंगनहाई के भीतर माओ ज़ेडोंग का घर कभी संग्रहालय में परिवर्तित नहीं हुआ. और 10 डाउनिंग स्ट्रीट, 1732 से ब्रिटिश प्रधान मंत्री का घर बना हुआ है. फिर पहले भारतीय प्रधान मंत्री का आधिकारिक निवास संग्रहालय क्यों बन गया?
नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय (एनएमएमएल) के अधिकारियों का पहले प्रधान मंत्री के जीवन को पेश करने सहित सभी पीएम के योगदान को एक जगह लाने के लिए स्मारक के दायरे को बढ़ाने का निर्णय विवाद खड़ा कर गया. जिनके दिल और दिमाग में जवाहरलाल नेहरू का विशेष स्थान है वो देश के प्रथम प्रधानमंत्री की श्रद्धांजलि में कोई कमी नहीं देखना चाहते हैं, वहीं अन्य लोग मानते हैं कि उनके उत्तराधिकारियों के योगदान को भी पहचान मिलनी चाहिए.
व्हाइट हाउस, 10 डाउनिंग स्ट्रीट और क्रेमलिन. इनमें से कोई संग्रहालय नहीं बना
विवाद का मुद्दा ये रहा कि क्या सभी प्रधान मंत्रियों के लिए ऐसा संग्रहालय एनएमएमएल परिसर के अंदर होना चाहिए या फिर बाहर. हालांकि कई ऐसे मुद्दे जिन्हें उठाना चाहिए उनपर ध्यान नहीं दिया गया न ही किसी ने उसके बारे में बात की. एक सवाल तो यही पूछा जा सकता है कि क्या सभी प्रधानमंत्रियों के योगदान जश्न मनाने लायक हैं?
मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि दुनिया के किसी भी प्रमुख देश में सरकार के हर प्रमुख की स्मृति में ऐसा कोई संग्रहालय है. मैं यह कहने में भी संकोच नहीं करूंगा कि अब तक केवल पांच प्रधानमंत्रियों ने ही इतिहास में अपनी जगह बनाई है - जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, पी.वी. नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह.
नेहरू ने आधुनिक भारत को आकार दिया, एक नवजात गणराज्य की नींव को मजबूत किया. इंदिरा गांधी ने आर्थिक और सामाजिक नीति के साथ-साथ क्षेत्रीय सुरक्षा पर अपना निशान छोड़ा. नरसिम्हा राव ने हाल के इतिहास में विशेष रूप से तनावपूर्ण समय पर राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया और भारतीय अर्थव्यवस्था की दिशा और गति को बदल दिया. अटल बिहारी वाजपेयी ने न केवल भारत को परमाणु हथियार शक्ति से सम्पन्न घोषित किया बल्कि महत्वपूर्ण आर्थिक और विदेशी नीति पर पहल की जो अगले दशक में भारत को परिभाषित करता था. मनमोहन सिंह ने ऐसी अर्थव्यवस्था की अध्यक्षता की जिसकी दरें अभूतपूर्व ढंग से बढ़ीं, गरीबी में तेज गिरावट आई और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के साथ भारतीय विदेश नीति की पूरी दिशा ही बदल डाली.
भारतीय इतिहास में सिर्फ पांच ही प्रधानमंत्री जिन्होंने इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया
हो सकता है कि युद्ध के दौरान देश के नेतृत्व के लिए लाल बहादुर शास्त्री के नाम को भी कुछ लोग आगे बढ़ाएं.
लेकिन इनके अलावा किसी अन्य ने देश के इतिहास में अपना निशान इस तरह से नहीं छोड़ा है कि एक संग्रहालय में उल्लेख का हकदार हों.
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अगर 2019 में सत्ता में लौटते हैं और अपने दूसरे कार्यकाल में खुद को अलग साबित करते हैं, तो निश्चित रूप से वो इस योग्य होंगे. हालांकि, भारत की बिखरी हुई और लोकप्रिय राजनीति को देखते हुए, कोई भी सरकारी वित्त पोषित संग्रहालय सभी प्रधानमंत्रियों का उल्लेख नहीं करने का जोखिम नहीं उठाएगा. इस प्रकार, गुलजारी लाल नंदा का भी उल्लेख होगा.
पहला जरुरी सवाल तो ये होगा कि आखिर तीन मूर्ति भवन प्रधान मंत्री का आधिकारिक निवास क्यों बना? और दूसरा, इसे एक संग्रहालय में परिवर्तित करने का ये निर्णय किसने लिया और क्यों?
अगर 2019 में मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो भी इस क्लब में शामिल हो जाएंगे
यह याद रखना जरुरी है कि नेहरू ने भारतीय सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ (जो अगस्त 1948 तक तीन मूर्ति हाउस था) के आधिकारिक निवास का दावा करने का फैसला किया था. वो भी महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद और अपने कार्यकाल में एक साल बीत जाने के बाद. तब तक, वह मोरिलल नेहरू मार्ग पर लुटियंस के बंगले में ही रहते थे, सरदार पटेल समेत सभी कैबिनेट सहयोगियों की तरह.
आखिरकार, 1947 में, नेहरू सामान्य नागरिक ही थे. उन्हें महात्मा को ये साबित करना पड़ता था कि प्रधानमंत्री के पद का खुमार उन पर नहीं चढ़ा है. और महात्मा ने इस पद के लिए उन्हें चुनकर कोई गलती नहीं की थी. वास्तव में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में कई लोग सरदार पटेल को प्रधान मंत्री बनाना चाहते थे लेकिन गांधीजी ने उन्हें खारिज कर दिया और नेहरू के नाम पर ही मुहर लगाई.
महात्मा की मृत्यु के बाद, नेहरु को वाइसराय के महल- राष्ट्रपति भवन से कुछ ही दूरी पर स्थित कमांडर-इन-चीफ के भव्य महल में जाने की इच्छा महसूस हुई.
महात्मा की मृत्यु के बाद नेहरु ने खुद को आम से खास भारतीय घोषित कर लिया
नेहरू का तीन मूर्ति भवन में शिफ्ट होने का निर्णय शायद जनता की आंखों में कांग्रेस के बाकी लोगों से खुद को ऊपर दिखाने का भी प्रयास था. यही कारण है कि महात्मा गांधी के रहते हुए जो नेहरु एक आम नागरिक ही माने जाते थे अब आम नहीं खास हो गए. और लोगों के बराबर नहीं बल्कि उनके ऊपर हो गए.
अब सवाल यह है कि प्रधान मंत्री का घर संग्रहालय कैसे बन गया? आखिर किसी ने भी 1, औरंगजेब (अब्दुल कलाम) रोड को 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद संग्रहालय बनाने के लिए नहीं सोचा. यह राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, शिक्षा और संस्कृति मंत्री के रूप में एमसी चगला, और सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में इंदिरा गांधी थी जिन्होंने कई अन्य लोगों के साथ तीन मूर्ति हाउस को नेहरू संग्रहालय में परिवर्तित करने का निर्णय लिया.
कांग्रेस का एक धड़ा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था पर महात्मा गांधी नहीं माने
मुझे इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि क्या किसी राजनीतिक वैज्ञानिक या इतिहासकार ने इस सवाल की जांच की है कि आखिर क्यों लाल बहादुर शास्त्री, प्रधान मंत्री के आधिकारिक निवास में नहीं गए थे. शायद उनमें ऐसा करने का साहस नहीं था.
संयुक्त राज्य अमेरिका में, अपने पहले राष्ट्रपति, जॉर्ज वाशिंगटन की याद में जश्न वाशिंगटन के ही माउंट वर्नोन स्थित घर में बने एक संग्रहालय में मनाई जाती है. निश्चित रूप से, इलाहाबाद में नेहरू परिवार के घर को नेहरू संग्रहालय बनाया जा सकता था. लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय दिल्ली के गलियारों में ऐसी कोई सोच प्रबल नहीं हुई थी. इसमें कोई संदेह नहीं है कि नेहरू के लोग भविष्य के किसी भी प्रधान मंत्री को इंपीरियल कमांडर की संपत्ति के प्रभावशाली और शाही परिवेश में रहने नहीं देना चाहते थे.
तीन मूर्ति हाउस और एनएमएमएल के भविष्य के बारे में वर्तमान बहस अतीत की जांच करने और यह देखने का अवसर प्रदान करती है कि मूल निर्णय वास्तव में सही निर्णय था या नहीं. राजनीतिक प्रतिक्रिया में पक्षपात होने के आसार हैं. हालांकि एक उम्मीद ये है कि अभी भी पर्याप्त संख्या में ऐसे कई पेशेवर इतिहासकार और राजनीतिक वैज्ञानिक हैं जो इस मुद्दे की तटस्थ जांच करने के लिए तैयार होंगे और अपनी राय व्यक्त करेंगे.
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