गन्ने सा पिसता किसान
डेढ़ सौ किसान पीएम मोदी से मिले, ताकि सिलसिलेवार तरीके से बता सकें कि गन्ना किसानों के जीवन में मिठास है या गन्ना किसान सरकारी नीतियों और मिल मालिकों के बीच गन्ने की तरह पिस रहा है.
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विपक्ष का कहना है कि अब जिन्ना नहीं गन्ना चलेगा और महागठबंधन की ताकत के सामने मोदी-योगी की जोड़ी कैराना से लेकर नूरपुर तक धराशाई हो जाती है. जवाब में सरकार कहती है कि शास्त्री जी भले ही कांग्रेस के प्रधानमंत्री रहे हों, लेकिन जय-जवान और जय किसान के नारे को पुनर्जीवित करने का श्रेय तो मोदी सरकार को ही जाता है. सियासत के बीच सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो रिलीज़ किया जाता है और इसी बीच गन्ना किसान भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने दूरदराज गांवों से दिल्ली पहुंच जाते हैं. मीटिंग का एजेंडा था कि किसान सिलसिलेवार तरीके से बता सकें कि गन्ना किसानों के जीवन में कितनी मिठास है या गन्ना किसान सरकारी नीतियों और मिल मालिकों के बीच गन्ने की तरह पिस तो नहीं रहा.
प्रधानमंत्री से मिलने के लिए पांच राज्यों के डेढ़ सौ किसान 4 बसों में भरकर पहुंचते हैं, लेकिन इस बीच सबके मन में यह सवाल भी होता है कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र से ये किसान आए कहां से? आखिर किस संगठन से इनका वास्ता है और किस आधार पर इनका चुनाव हुआ? दिनभर रिपोर्टर किसान संगठनों से बात करने की कोशिश करते रहे, ताकि बैठक का एजेंडा साफ हो सके. भारतीय किसान यूनियन के राकेश और नरेश टिकैत और वी एम सिंह से बात करने पर पता चलता है कि जो संगठन सरकार की गन्ना नीति के खिलाफ सड़कों पर लामबंद हुए थे, उनके किसानों को तो इस मुलाकात का न्योता ही नहीं मिला.
लिहाजा कयास लगाये गए कि न्योता तो संघ की सोच रखने वाले किसान संगठनों को मिला होगा फिर भारतीय किसान मोर्चा से लेकर भारतीय किसान संघ तक सबके दफ्तरों में फोन खड़काया जाता है, लेकिन तब भी ये साफ़ नहीं होता कि यह किसान आखिर प्रधानमंत्री के दिल्ली आवास 7 लोक कल्याण मार्ग पर गन्ना कल्याण के लिए किस आधार पर प्रकट हुए?
बैठक से पहले गन्ना किसानों को बागपत से चुन कर आये केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह के घर पर भोजन कराया गया. उसी बागपत से कभी गन्ना किसानों के मसीहा कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह चुन कर आते थे. बहरहाल बड़ी जद्दोजहद से मालूम पड़ा कि किसानों का चुनाव कैसे किया गया.
पीएम से मुलाकात करने वाले किसानों की फेहरिस्त खुद PM के सिपहसालार जनप्रतिनिधियों ने बनाई थी. उत्तर प्रदेश के गन्ना मंत्री सुरेश राणा से लेकर पूर्व कृषि राज्य मंत्री संजीव बालियान और मौजूदा मंत्री सत्यपाल सिंह सरीखे नेताओं की तरफ से पीएमओ को ये लिस्ट भेजी थी, ऐसे किसान जो बीजेपी की विचारधारा के हों पर वो नहीं जो बीजेपी के प्राथमिक सदस्य हों. यानी अपने ही करीबियों को बिना कमल के निशान के प्रधानमंत्री के सामने उनकी नीतियों पर ताली बजाने के लिए दिल्ली तलब किया गया, फिर भी किसान खुश हुए कम से कम वजीर-ए-आजम के यहां चाय पीने का मौका तो मिला. बारिश के मौसम में दिल्ली भी घूम ली और पीएम मोदी से हाथ मिलाकर फ़ोटो ही खिचवा ली. हालांकि, बरसात के पानी से ज्यादा पसीना हमारा गन्ना किसान बहाता है, फिर भी हर घंटे देश में 2 किसान आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन सरकारी इनपुट्स की मानें तो असुरक्षित किसान नहीं, हमारे प्रधानमंत्री हैं.
घंटे भर के इंतजार के बाद किसान घंटे भर के लिए प्रधानमंत्री से मिलते हैं और फिर वादों का घंटा बजाकर किसान, किसान नेता, मंत्री और सांसद मोदी जी के निवास से रवाना हो जाते हैं. मुलाकात के बाद मीडिया में शानदार जुमलों वाली ब्रेकिंग बनती है कि, अब देश में पहली बार गन्ना किसानों के लिए चीनी का न्यूनतम समर्थन मूल्य ₹29 रख दिया है. पेप्सिको और कोका-कोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर भी अब चाबुक चलेगा और उन्हें कहा जाएगा कि वो कोल्डड्रिंक में कम से कम 5% फलों का जूस मिलाएं, ताकि किसानों को फायदा हो. यही नहीं पीएम मोदी के आदेश होंगे तो देश के बड़े बड़े उद्योगपति बीज से लेकर बाजार तक ट्रैक्टर से लेकर फूड प्रोसेसिंग तक अपने कुल निवेश का कम से कम 5% कृषि क्षेत्र में निवेश करेंगे. हालांकि, यूरोप और अमेरिका में निजी उद्योगपतियों के निवेश का आंकड़ा 15 से 20% है, फिर भी बहुत बेहतर कदम है, क्योंकि भारत में यह आंकड़ा अभी तक 1% तक भी नहीं पहुंचा है.
प्रधानमंत्री ने पूरी दुनिया देखी है, लिहाजा दुनिया के अच्छे-अच्छे प्रयोगों से सरकार के लिए अच्छी-अच्छी खबरें कैसे निकाली जाए, यह उनसे बेहतर शायद ही देश में कोई विज्ञापन गुरु भी जानता होगा. गन्ना किसानों के लिए पीएम मोदी अमेरिका से लेकर ब्राज़ील तक की बात करते हैं और बताते हैं कि अमेरिका में कॉर्न यानी वही पॉपकॉर्न जो फिल्म का मजा लेते हुए आप खाते हैं, उसी मक्के से वहां एथेनॉल बनाया जाता है. ब्राजील में तो हिंदुस्तान से भी ज्यादा गन्ना होता है और ब्राजील में लगभग आधे वाहन पेट्रोलियम नहीं एथेनॉल से चलते हैं. पीएम यही प्रयोग भारत में भी करने की बात कर रहे हैं. यानी पेट्रोल में कम से कम 10% एथेनॉल का इस्तेमाल करना जरूरी होगा. एथेनॉल की कीमत भी ₹3 प्रति लीटर बढ़ाने का वादा किया गया, जिससे चीनी मिलों को फायदा होगा और वही फायदा गन्ना किसानों तक पहुंचेगा. प्रधानमंत्री से किसानों की मुलाकात किसी साइंस फिक्शन फिल्म से कम नहीं थी. उन्हें यह सब्जबाग भी दिखाए गए कि जैसे DNA से स्वास्थ्य बदल रहा है, ठीक उसी तरह जैसे जेनेटिक तकनीक से उनकी फसल की काया पलटने के दावे किये गए थे.
वादों और इरादों के बीच वही अंतर होता है जो गन्ना किसानों के जीवन में चीनी की मिठास या गुड़ की महक की जगह मिल मालिकों और सरकारी नीतियों के बीच रिसते हुए गन्ने की पीड़ा में तब्दील हो जाती है, ऐसा इसलिए क्योंकि वादे अलग हैं पर इरादे कुछ और.
पहला: पेप्सिको और कोका कोला जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सरकार की तरफ से सिर्फ अपील की गयी है कि वह अपने कोल्ड ड्रिंक में 5% फ्रूट जूस रखें, लेकिन सरकार इसके लिए कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं करेगी.
दूसरा: एक बात सिर्फ किताबी है, वो यह कि भारत कृषि प्रधान देश है और भारत की अर्थव्यवस्था मिश्रित लोक कल्याण अर्थव्यवस्था है. अब प्रधानमंत्री के घर का पता भले ही लोक कल्याण मार्ग के नाम पर हो, लेकिन सरकार सीएसआर की तर्ज पर कानून बनाकर उद्योगपतियों पर दबाव नहीं बनाएगी कि वह कृषि क्षेत्र में 5% निवेश करें ही. फिर निजी उद्योगपतियों के निवेश में यह खतरा भी बरकरार रहेगा कि कहीं किसान अपने ही खेत को गवां कर उद्योगपतियों का कृषि मजदूर तो नहीं बन जाएगा.
तीसरा: एथेनॉल का प्रयोग नया नहीं है बीते कई दशकों से इसका प्रयोग चल रहा है. लेकिन ब्राजील और अमेरिका से उलट भारत की आबादी बहुत ज्यादा है. ऐसे में यदि गन्ने का इस्तेमाल एथेनॉल के लिए ज्यादा किया गया तो खाद्यान्न का संकट भी खड़ा हो सकता है. वहीं एथेनॉल में प्रति लीटर ₹3 का इजाफा करने की बात मान भी ली जाए तो भी 2014 में मौजूदा मोदी सरकार के वक्त एथोनोल की कीमत ₹47 प्रति लीटर थी, जो कि वर्तमान समय में ₹40 प्रति लीटर रह गई है. यानी ₹3 का इजाफा भी किया जाये तो भी कीमत कांग्रेस के दौर से 4 रुपये कम ही रहेगी. ऐसे में यह कैसा बदलाव?
चौथा: अगर तकनीक के जरिए किसानों की तकदीर बदल कर उनकी आय को 2022 में दोगुना करने के लिए जेनेटिक प्रयोग का उदाहरण दिया जाता है. तो जेनेटिक प्रयोग का इतिहास भी हमें याद रखना चाहिए. जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों को भारत में 1996 में पहली बार अनुमति मिली. अमेरिका की एक कंपनी के साथ महाराष्ट्र की कंपनी का करार हुआ और यह कहते हुए बीटी कपास के बीज किसानों को दे दिए गए कि अब अन्नदाताओं का भाग्य बदलने वाला है, लेकिन बदलाव इस कदर आया कि कपास बोने वाले विदर्भ में किसानों की मौत का आंकड़ा लगातार बढ़ता ही गया और अमेरिका की कंपनी मोनसेंटो आज भी बीटी कपास के बीजों के रॉयल्टी के नाम पर सैंकड़ो करोड़ ले उड़ती है. हैरानी ये कि तब भी सरकार खामोश रहती है और दिल्ली हाईकोर्ट को ये कहना पड़ता है कि भारत में जीवित वस्तुओं का पेटेंट नहीं किया जाता, लिहाजा बीटी बीज के पेंटेंट का पैसा अमेरिका नहीं जाएगा. यूरोपियन यूनियन जहां जैविक खेती की तरफ चल रहा है, वहीं पश्चिमी देशों की कंपनियां भारत की खेती में रासायनिक प्रयोग करना चाहती है. इन प्रयोगों से भारतीय खेती के चौपट होने का पूरा खतरा है.
पांचवा: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से कहा कि वह स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को अक्षरशः पूरा करने की कोशिश करेंगे, लेकिन स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट गन्ना किसानों के विषय में कहती है कि भारत के तटीय प्रदेश जैसे महाराष्ट्र और कर्नाटक में गन्ने में चीनी की मात्रा अधिक है और उत्तर के मैदानों में चीनी की मात्रा कम. लिहाजा महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसानों को गन्ने के लिए ज्यादा पैसे दिए जाने चाहिए, तुलनात्मक रूप से उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों को कम. तो क्या इस रिपोर्ट को मानते हुए यूपी का गन्ना सस्ता बिकेगा और अगर ऐसा हुआ तो यूपी में सांसदों की संख्या देखते हुए बीजेपी के लिए यह सियासी संकट नहीं होगा.
छठा: इस बैठक के बाद केंद्र सरकार की तरफ से यह तय किया गया कि चीनी का न्यूनतम मूल्य ₹29 से कम नहीं हो सकता. जिससे मिल मालिकों और किसानों दोनों को फायदा पहुंचेगा. लेकिन कृषि विशेषज्ञों की मानें तो 29 से कम चीनी का मूल्य बिना सरकारी आदेश के भी बहुत कम बार गया है. जबकि 1 किलो चीनी की लागत लगभग एक ₹32-33 के करीब पड़ती है. यानी सरकारी मूल्य भी गन्ना किसानों और मिल मालिकों के लिए घाटे का सौदा है.
अब वापस गन्ना किसानों की पीएम से हुई मुलाकात पर लौटते हैं. मुलाकात में गन्ना किसान शिष्टमंडल के सदस्य के तौर पर भारत सरकार के पूर्व राज्य मंत्री संजीव बालियान भी शामिल थे. बलियान ने खुद बतौर मंत्री 2014 में एथेनॉल की कीमत में बड़ा इजाफा किया था और बीटी बीज की कीमतें घटाने में बड़ी भूमिका निभायी थी. लेकिन वो भी इस बैठक की कमियां गिनाने के बजाये तारीफ करते हुए नजर आए.
अब ऐसा भी नहीं है कि इस बैठक से कुछ बदलाव नहीं हुआ. कुछ कदम ऐसे हैं, जिनकी सकारात्मक सराहना करनी चाहिए. आखिर सरकार हम से है और कुछ ना कुछ सरोकार भी किसानों से तो रखा ही जाता है. केंद्र की मोदी सरकार ने चीनी पर आयात शुल्क सौ प्रतिशत बढ़ा दिया है, इससे चीनी मिल और गन्ना किसान दोनों को फायदा होगा. याद रहे, मोदी से पहले मनमोहन सरकार में जब शरद पवार कृषि मंत्री हुआ करते थे, तब हमारा देश भारत की सस्ती चीनी विदेशों में निर्यात करके विदेशों से महंगी चीनी आयात करता था. जिससे किसानों और मिल मालिकों दोनों को बड़ा नुकसान हुआ था.
तकनीकी रूप से औद्योगिक इस्तेमाल से दूर करने के लिए यूरिया का नीम कोटिंग करना और स्वाइल हेल्थ कार्ड बनाकर मिट्टी की उर्वरा क्षमता के अनुसार खाद डालना एक बेहतर कदम है. चुनावी वर्ष में ही सही लेकिन बीते चंद दिनों में किसानों तक केंद्र सरकार के 4 लाख 30 हजार करोड़ पहुंचे.आखिर 2009 चुनाव से पहले कांग्रेस ने भी चुनावी वर्ष में ही किसानों का कर्ज माफ किया था.
अब सवाल यह नहीं है कि गन्ने पर राजनीति होती है. वह तो होती ही है, और आगे भी होती रहेगी. आखिर गन्ने की भूमि कहे जाने वाले कैराना की हार के बाद गन्ना किसान दिल्ली मोदी से मुलाकात करने पहुंचते हैं, जबकि मनमोहन सरकार के वक्त चीनी का कटोरा कहा जाने वाला मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक आग में सुलगाया गया था.
सवाल यह है कि अगर राजनीति किसानों को व्यक्ति नहीं वोट माने, तो भी अगर सरोकार साधे जाते हैं, तो वो साधने चाहिए. लेकिन इस बात का भी एहसास जरूर रखना होगा कि आने वाले सालों में किसानों के हित नेताओं की नीतियां नहीं, बल्कि उद्योग जगत की रणनीतियां तय करेंगी. बीज से ट्रैक्टर तक, फूड प्रोसेसिंग और फूड कंपनियों तक जो निवेश हो रहा है वह किसानों को वोट तक नहीं मानता, बल्कि किसान उसके लिए बाजार हैं, जहां किसान कबीरा सा बाजार में खड़ा रह जायेगा, जो बेचेगा भी और बिकेगा भी. अब यह अन्नदाताओं के हाथ में है कि वह अपनी हैसियत का एहसास निवेशकों और नेताओं को किस तरह से दिखाते हैं. क्योंकि जब गन्ना पिसता है तो चीनी बनती है, पर जब गन्ना उठता है तो लट्ठ बनता है और सिर्फ पिसते रहना तो भारतीय किसानों की नियति हो नहीं सकती.
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