Draupadi Murmu के नाम पर BJP को मिल रहा फायदा तात्कालिक है या टिकाऊ भी?
द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) को उम्मीदवार बना कर बीजेपी (BJP) विपक्षी एकता में फूट डालना चाहती थी - और शायद ही उसे उम्मीद होगी कि विपक्षी (Opposition) खेमे से इस कदर सपोर्ट मिल सकता है.
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द्रौपदी मुर्मू (Droupadi Murmu) को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के पीछे बीजेपी (BJP) का पहला मकसद सिर्फ ये था कि वो विपक्षी दलों में फूट डाल सके - लेकिन विपक्षी खेमे से जो ताबड़तोड़ सपोर्ट मिला है, ये तो बीजेपी को भी शायद ही उम्मीद रही होगी.
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर शुरुआती चर्चाओं में नंबर की बातें हुआ करती थीं और हर बात एक ही जगह जाकर ठहर जाती थी कि बीजेपी के पक्ष में 50 फीसदी नंबर तो है नहीं. विपक्ष (Opposition) के तब बढ़े हौसले के पीछे भी यही वजह समझी गयी थी. तब तो विपक्ष को भी ये भी लगा था कि चीजें ढंग से मैनेज करने की कोशिश हो तो बीजेपी और मोदी सरकार को राष्ट्रपति चुनाव में शिकस्त दे पाना भी नामुमकिन नहीं होगा.
पहले तो एनडीए साथियों के अलावा बीजेपी की एक्स्ट्रा ताकत के तौर पर देश के दो मुख्यमंत्रियों का नाम ही सामने आता था - एक ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक और दूसरे आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी. महाराष्ट्र में जो खेल परदे के पीछे चल रहा था, थोड़ी बहुत उम्मीद बीजेपी को उससे भी रही होगी.
लेकिन द्रौपदी मुर्मू को एनडीए का उम्मीदवार घोषित करने के बाद जिस तरीके से समीकरण बदले हैं, उसका तो अंदाजा नहीं रही रहा होगा. फिर तो नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी की कौन कहे हेमंत सोरेन और उद्धव ठाकरे तक कतार में लग गये. द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी तो बीजेपी के लिए डबल बेनिफिट स्कीम साबित हो रही है - आखिर ममता बनर्जी ने भी द्रौपदी मुर्मू की वजह से ही पलटी मारी है.
अव्वल तो राष्ट्रपति चुनाव विपक्ष के लिए एकजुट होने का बेहतरीन मौका था, लेकिन ये क्या फायदा तो सीधे सीधे सत्ता पक्ष को होने लगा. ऐसा लग रहा है जैसे विपक्षी नेताओं में सत्ता पक्ष की तरफ गोलबंद होने की होड़ मच गयी हो - हो सकता है ये महाराष्ट्र की उठापटक जैसा डर भी हो!
शिवसेना, अकाली दल और टीडीपी का एक जैसा स्टैंड
उद्धव ठाकरे का द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी का सपोर्ट भले ही मजबूरी में लिया गया फैसला लग रहा हो, भले ही संजय राउत सफाई दे रहे हों कि द्रौपदी मुर्मू का सपोर्ट बीजेपी को समर्थन नहीं है - लेकिन ये बाते आसानी से किसी के गले के नीचे नहीं उतर पा रही हैं.
द्रौपदी मूर्मू की उम्मीदवारी बीजेपी के लिए ब्रह्मास्त्र बन गयी है
उद्धव ठाकरे के इस कदम को घर वापसी के तौर पर धी देखा जा रहा है. ऐसा समझा जा रहा है कि उद्धव ठाकरे शिवसेना को बचाने का आखिरी रास्ता भी अख्तियार कर सकते हैं - और वो है फिर से बीजेपी के साथ हाथ मिला लेना. आखिर एकनाथ शिंदे गुट यही बोल कर तो अलग भी हुआ है.
द्रौपदी मुर्मू को सपोर्ट करने के फैसले के चलते उद्धव ठाकरे को महाविकास आघाड़ी के साथियों की नाराजगी भी मोल लेनी पड़ी है. चाहे वो कांग्रेस नेता हों या एनसीपी नेता सीधे सीधे तो अभी तक किसी ने कुछ नहीं कहा है, लेकिन औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने को लेकर शरद पवार ने जो नाराजगी जतायी है, उसे उद्धव ठाकरे के ताजा कदम से आसानी से जोड़ कर समझने की कोशिश की जा सकती है.
लेकिन सिर्फ उद्धव ठाकरे की कौन कहे - द्रौपदी मुर्मू के सपोर्ट में तो शिरोमणि अकाली दल और तेलुगु देशम पार्टी भी खड़े हो गये हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि ये दोनों ही शिवसेना की तरह कभी एनडीए का हिस्सा रहे हैं और अलग अलग समय पर किसी न किसी मुद्दे पर मतभेद के चलते अलग हो गये थे.
टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू ने तो 2019 के आम चुनाव से पहले ही एनडीए से नाता तोड़ लिया था, लेकिन अकाली दल ने कृषि बिलों के विरोध में बीजेपी से अलग होने का फैसला किया था - और अब तो उन कृषि कानूनों का ही अस्तित्व नहीं रहा.
टीडीपी के साथ छोड़ देने के बाद बीजेपी ने उसके छह में से चार राज्य सभा सदस्यों को पार्टी में शामिल करा लिया था - और आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के साथ अघोषित गठबंधन कर लिया. देखा जाये तो आंध्र प्रदेश में सिर्फ नेता बदला, लेकिन मुख्यमंत्री बीजेपी के साथ ही रहा.
अकाली दल की स्थिति तो अभी बहुत ही ज्यादा खराब हो चली है. पंजाब चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद बादल परिवार ने संगरूर उपचुनाव के लिए भी कोशिशें की थी. यहां तक कि सिमरनजीत सिंह मान को मनाने की भी कोशिशें हुई थीं, लेकन बात नहीं बन सकी. भगवंत मान के मुख्यमंत्री बन जाने से खाली हुई सीट से अब सिमरनजीत सिंह मान लोक सभा पहुंच चुके हैं.
विधानसभा चुनाव में अकाली दल ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया था. अकाली दल को तीन सीटें और बीएसपी को एक सीट पर जीत भी मिली थी. लेकिन राजनीति इतने भर से तो चलने वाली है नहीं. पांच साल पहले बादल परिवार ने बीजेपी के साथ मिल कर दस साल सरकार चलायी थी, लेकिन अब तो जैसे हाशिये पर पहुंच गये हैं.
अभी चर्चा भले ही उद्धव ठाकरे की घर वापसी की चल रही हो, लेकिन अकाली दल और तेलुगु देशम पार्टी भी तो वही रास्ता अख्तियार किये हुए हैं.
झारखंड में भी बीजेपी को महाराष्ट्र नजर आने लगा क्या?
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झारखंड गये थे. देवघर में पूजा-पाठ के साथ ही देवघर एयरपोर्ट और एम्स जैसे कई प्रोजेक्ट का उद्घाटन भी किये - और मोदी की सहृदयता से झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अभिभूत भी नजर देखे गये. परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास को लेकर हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री मोदी का आभार तो जताया ही, ऐतिहासिक और सपने पूरे होने जैसा तक बता डाला.
क्या हेमंत सोरेन की प्रधानमंत्री मोदी से मिलने के बाद बीजेपी के बढ़ते रुझान से कांग्रेस और लालू यादव की आरजेडी को चिंतित होना चाहिये?
द्रौपदी मुर्मू के सपोर्ट की बात हुई तो हेमंत सोरेन के उनके झारखंड के राज्यपाल रहते संबंधों की चर्चा होने लगी थी. दरअसल, द्रौपदी मुर्मू से मिलने के लिए हेमंत सोरेन अक्सर जाते तो उनकी पत्नी भी साथ हुआ करतीं. कई बार एयरपोर्ट पर भी ऐसा ही करते देखा गया.
प्रधानमंत्री मोदी से मिलने हेमंत सोरेन गये तो अकेले थे, लेकिन तस्वीरें वैसे ही भाव प्रकट कर रही थीं. जिस तरह का मेलजोल और केमिस्ट्री महसूस की गयी, उससे तो हेमंत सोरेन के बीजेपी के करीब जाने के ही संकेत समझे गये. हालांकि, बीजेपी और JMM दोनों ही पक्षों की तरफ से ऐसी बातों को हल्के में पेश करने की कोशिश हुई है. झारखंड में सत्ताधारी झारखंड मुक्ति मोर्चा का कहना रहा कि ऐसा आवभगत ट्राइबल कल्चर का हिस्सा रहा है - और संवैधानिक प्रमुखों का स्वागत भी तो परंपरा रही ही है.
मोदी के झारखंड दौरे के मौके पर हेमंत सोरेन ने कहा कि ये ऐतिहासिक दिन है और जिस सपने को 2010 में देखा गया था, प्रधानमंत्री मोदी ने उसे आज पूरा किया है. हेमंत सोरेन ने कहा कि झारखंड अब विकास करने लगा है और केंद्र सरकार का सहयोग बना रहा तो अगले पांच-सात साल में देश के अग्रणी राज्यों में शामिल हो जाएगा.
हेमंत सोरेन कहीं द्रौपदी मुर्मू के सपोर्ट से आगे भी प्लान तो नहीं बना चुके हैं?
ऐसा भी नहीं कि सारी सदाशयता सिर्फ हेमंत सोरेन की ओर ही देखी गयी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से भी काफी अलग व्यवहार देखने को मिला. अक्सर गैर बीजेपी राज्यों के दौरे में प्रधानमंत्री मोदी मुख्यमंत्रियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हैं. हाल फिलहाल तो मोदी परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ कैंपेन ही चला रहे हैं.
अभी अभी तेलंगाना में देखा गया है कि कैसे बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी युवाओं से परिवारवादियों को सत्ता से उखाड़ फेंकने की अपील कर रहे थे. उसके पहले के तेलंगाना दौरे में भी मोदी यही समझाते रहे हैं कि कैसे परिवारवाद की राजनीति की वजह से असली टैलेंट को मौका नहीं मिल पा रहा है.
झारखंड में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में ऐसा कुछ भी सुनने को नहीं मिला जैसा हर विरोधी दल की सरकार को झेलना पड़ता है - हैरानी की बात ये है कि ये सब तब देखने को मिल रहा है जब झारखंड के सत्ताधारी महागठबंधन में कांग्रेस और आरजेडी भी शामिल हैं.
वैसे हेमंत सोरेन के प्रधानमंत्री मोदी के प्रति आत्मीयता दिखाने को उनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की जांच पड़ताल से भी जोड़ कर देखा जा रहा है - और ऐसे मामले सिर्फ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ ही नहीं, उनकी सरकार के मंत्रियों और नौकरशाहों के खिलाफ भी हैं. अभी कुछ ही दिन पहले प्रवर्तन निदेशालय ने झारखंड की ही आईएएस अधिकारी पूजा सिंघल को मनी लॉन्ड्रिंग केस में गिरफ्तार किया जाना ऐसा ही एक उदाहरण है.
झारखंड में 'खेला' होने की कितनी संभावना है: झारखंड में JMM के नेतृत्व में बनी गठबंधन सरकार में कांग्रेस और RJD भी हिस्सेदार है. झारखंड में बीजेपी ने पहले सुदेश महतो की पार्टी के साथ गठबंधन करके सरकार बनायी थी, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था.
झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में सबसे ज्यादा हेमंत सोरेन की पार्टी जेएमएम के पास ही हैं - 30 विधायक और दूसरे नंबर पर भारतीय जनता पार्टी के 26 विधायक हैं. मौजूदा सरकार में JMM के साथ कांग्रेस के 16 और आरजेडी अपने एक विधायक के साथ शामिल है.
कहीं हेमंत सोरेन के मन में भी वही सब तो नहीं चल रहा है जिस मनोदशा से उद्धव ठाकरे अभी गुजर रहे हैं?
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