गुजरात चुनाव नतीजे : भाजपा की 'कामचलाऊ' जीत !
जीते मोदी लेकिन हारा कौन? क्या कांग्रेस हारी या व्यक्तिगत तौर पर इस चुनाव को कांग्रेस की तरफ से अपने दाएं-बाएं घुमाने वाले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हारे? या फिर यह हार उन युवा नेताओं की तिकड़ी की हार है, जिन्होंने पाटीदारों, दलितों और पिछड़ों के मन में गुजरात सरकार के प्रति आक्रोश और गुस्से को हवा दी?
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गुजरात के लोगों से अपील और वोट मांगने के लिए उनकी दलील काम कर गई. गुजरात में बीजेपी लगातार छठी बार सरकार बनाने जा रही है. इस जीत का श्रेय किसी एक व्यक्ति को जाता है तो वह खुद प्रधानमंत्री मोदी हैं. मोदी ने चुनाव जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. आठ आठ दिन तक लगातार गुजरात में डेरा डाले रहे. विकास पुरुष की छवि को हिंदू हृदय सम्राट की छवि से जोड़ा. हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, तुगलक-औरंगजेब, ऊंच-नीच हर पिच पर गुजरात का चुनाव बड़ी शिद्दत के साथ लड़ा गया. मोदी की मेहनत रंग लाई और गुजरात फिर से उनका हो गया.
जीते मोदी लेकिन हारा कौन? क्या कांग्रेस हारी या व्यक्तिगत तौर पर इस चुनाव को कांग्रेस की तरफ से अपने दाएं-बाएं घुमाने वाले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हारे? या फिर यह हार उन युवा नेताओं की तिकड़ी की हार है, जिन्होंने पाटीदारों, दलितों और पिछड़ों के मन में गुजरात सरकार के प्रति आक्रोश और गुस्से को हवा दी? या यह हार ईवीएम की उस कथित गड़बड़ी से निकली है जिसपर कांग्रेस ही नहीं, पाटीदारों के नए नेता हार्दिक पटेल ने भी उंगली उठाई है? हार्दिक ने कहा कि जब भगवान के बनाए इस शरीर में बदलाव किया जा सकता है तो इंसान की बनाई ईवीएम में गड़बड़ी क्यों नहीं हो सकती?
राहुल गांधी के साथ जनता को भी सबक मिला
यह सही है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात चुनावों में कांग्रेस की जीत पक्की करने के लिए अपनी मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी. तीन महीने तक एड़ी चोटी का जोर लगाया. कांग्रेस के विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष नीति को, जिसके प्रणेता खुद उनके परनाना और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे, थोड़ा बदला और अपनी दादी इंदिरा गांधी की तर्ज पर नरम हिंदुत्व की नीति को अपनाया. चुनावी आपाधापी में गुजरात के मंदिरों के चक्कर बढ़ गए. जब बीजेपी ने सोमनाथ दर्शन के आधार पर राहुल के हिंदू होने पर सवाल उठाया, तो कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने मीडिया से कहा कि राहुल ना सिर्फ हिंदू हैं बल्कि जनेऊधारी हिंदू हैं. जनेऊ पहनने का अधिकार सिर्फ श्रेष्ठ (तथाकथित श्रेष्ठ क्योंकि कोई आदमी इस आधार पर श्रेष्ठ नहीं हो सकता कि वह किस मां के गर्भ से पैदा होता है) हिंदुओं को है. यानी ऊंची जातियों को. इस लिहाज से देखें तो कांग्रेस ने मान लिया कि हिंदुओं में भी बड़ी जातियों की कृपा होगी तो उसकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी.
दरअसल राजनीति की मानसिकता बदल रही है. बीजेपी के उग्र हिंदुत्व की राजनीति के जवाब में धर्मनिरपेक्ष दलों ने भी हिंदूवादी राजनीति शुरु कर दी है. शायद उनको लगता है कि हिंदुओं में पैठ मजबूत होगी तो मुसलमान झक मारकर बीजेपी के विरोध में वोट देने के लिए विवश होंगे. हो सकता है कि यह राजनीति वोट हासिल करने और कहीं कहीं सरकार बनाने के लिहाज से कारगर हो जाए लेकिन इसका दूरगामी परिणाम देश के लिए काफी बुरा होगा. आहिस्ता आहिस्ता अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, को लगेगा कि देश में उनके लिए सामान्य नागरिक की जगह नहीं है. 15 फीसदी आबादी के मन में सुलगने वाली इस भावना को कहीं से कोई चिंगारी मिल गई तो फिर देश में लगने वाली विकृति और विग्रह की आग को बुझाना मुश्किल हो जाएगा.
इसीलिए जिन दलों को लगता है कि वह वाकई धर्मनिरपेक्ष हैं, उनके लिए धर्म इंसान को उनके मोक्ष तक पहुंचने का एक रास्ता है और हर इंसान स्वतंत्र है कि वह जिस धर्म को मानना चाहे, मान सकता है. उनको चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करें. किसी भी लोकतांत्रिक देश और समाज के लिए धर्मनिरपेक्षता मानव संवेदना की सबसे बड़ी और पहली कसौटी है. इसीलिए जो राजनीतिक दल यह मानते हैं कि उनके डीएनए में सेकुलर सोच घुली है, उनको बड़ी ईमानदारी और अपने इरादे की मजबूती के साथ इस बात को रखना चाहिए. हो सकता है कि इसमें वे कुछ चुनाव हार जाएं लेकिन इस हार की बुनियाद पर वह एक ऐसा मजबूत समाज बनाएंगे तो बाद में जीत की मजबूत इमारत में बदलेगी. साथ ही यह भ्रम भी टूटेगा कि राष्ट्रवाद महज बहुसंख्यकों का उन्माद है.
मोदी का मैजिक खत्म नहीं हो रहा
कांग्रेस ने गुजरात में जमकर लड़ाई लड़ी लेकिन कांग्रेस को जितनी भी सीटें मिली हैं, वे कांग्रेस के अपने जनाधार और लड़ाई की कम, बीजेपी के खिलाफ लोगों के आक्रोश और नाराजगी का प्रतिफल ज्यादा हैं. चुनाव महज चुनावी मौसम के दो तीन महीनों की मेहनत का नाम नहीं है बल्कि यह लगातार परिश्रम और जन भावनाओं की साझीदारी मांगता है. आजादी के बाद जब पूरे देश में कांग्रेस का डंका बजता था, तब विपक्षी दलों ने अपनी सीमित शक्ति और सिमटे हुए दायरे में भी जन भावनाओं को हमेशा जोड़ने का प्रयास किया. नतीजा ये हुआ कि 1957 के दूसरे चुनाव के समय ही तीन राज्यों में सत्ता कांग्रेस के हाथों से फिसली और 1967 तक उत्तर भारत के सभी अहम राज्यों में विपक्षी दलों की संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं. इतिहास सिर्फ किस्सों में खुद को याद करने के लिए नहीं होता बल्कि वह भविष्य का मार्गदर्शक भी होता है. दिन पर दिन कमजोर होती कांग्रेस आज भी विपक्ष की धूरी बनी हुई है. इसीलिए उसको लोगों के बीच लगातार ना सिर्फ अपनी मौजूदगी दिखाई देनी होगी बल्कि जनता के हितों और आकांक्षाओं का साझीदार बनना होगा.
गुजरात में कांग्रेस का आधार दिन पर दिन कमजोर होता गया. शायद कांग्रेस न्यूटन के इस नियम पर यकीन कर रही होगी कि प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होगी. लेकिन विज्ञान का कोई सिद्धांत इंसानों के दिलोदिमाग का पैमाना नहीं हो सकता. कांग्रेस का झीजता जनाधार और जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की कमी के बावजूद गुजरात में कांग्रेस का बढ़ा वोट और बढ़ी सीटें बताती हैं कि अगर पार्टी ने जमीनी स्तर पर अपना आधार मजबूत बनाया होता तो शायद चुनाव के नतीजे कुछ और होते. इसीलिए यह जरूरी है कि कांग्रेस चौबीसो घंटे, बारहों महीने जनता के बीच रहे. कभी कांग्रेस ने लोगों से जुड़े रहने के लिए सेवा दल बनाया था. आज सेवा दल कहां है, ये पता नहीं.
कहा जाता है कि युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है. चुनाव एक युद्ध है, जिसमें राजनीतिक दल एक दूसरे से लड़ते हैं. चुनाव एक प्यार भी है, जिसमें करोड़ो लोग अपने लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए वोट देते हैं. किसको वोट देते हैं और किसकी सरकार बनती है, ये अहमियत नहीं रखती. कोई आदमी किसी जीतने वाली सरकार के खिलाफ वोट दे तो इसका मतलब यह नहीं कि उसका वोट खराब हो गया. लैला तो काली थी लेकिन किसी मजनूं के लिए उसके खूबसूरत जमाने में कोई नहीं हो सकता. लेकिन इस चुनाव में जिसे जायज होना चाहिए, वो नैतिकता और ईमानदारी ही गायब है. ईवीएम का मुद्दा यूं ही नहीं उठ रहा है.
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