HDW Submarine Scam: बोफोर्स याद है, पनडुब्बी घोटाला मत भूलिए...
विश्वनाथ प्रताप सिंह को एक ऐसे घोटाले की गंध लगी जिसमें चार पनडुब्बियों की खरीद में हेरफेर किया गया था. बोफोर्स मामले के चलते सिंह पहले ही दिक्कतों का सामना कर रहे थे इस घोटाले के सामने आने के बाद उन्हें आखिरकार अपना इस्तीफा देना ही पड़ा. आइये जानते हैं एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी घोटाले के बारे में जरा गहराई से.
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हुआ यूं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह, जो राजीव गांधी सरकार में रक्षा मंत्री थे, उन्हें एक घोटाले की गंध लगी. घोटाला चार पनडुब्बियों की खरीद में हेरफेर का था. बोफोर्स मामले के साथ ही इस नए घोटाले से बेचैन होकर आखिरकार सिंह ने इस्तीफा दिया था. इस घोटाले के बारे में जानते हैं तो कोई बात नहीं, नहीं जानते हैं तो क्रमवार जानिए. फरवरी 1979 में, जनता सरकार के दौरान प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की अगुआई में राजनैतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीपीए) की बैठक हुई और एक सबमरीन-टू-सबमरीन की खरीद क मंजूरी दी गई. जरूरत थी ऐसे पनडुब्बी की, जो समुद्र में 350 मीटर की गहराई तक गोता लगा सके. सीसीपीए ने भारतीय नौसेना को प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण और चार पनडुब्बियों के स्वदेशी सह-उत्पादन के लिए 350 करोड़ रुपये की लागत का अंदाजा लगाया. वैश्विक निविदा में चार प्रस्तावों को शॉर्टलिस्ट किया गया: एक स्वीडिश फर्म की कोकम्स, वेस्ट जर्मन एचडीडब्ल्यू, इटालियन सॉरो और टीएनएसडब्ल्यू-1400.
राजीव गांधी के शासनकाल में हुए पनडुब्बी घोटाले का शुमार भी देश के बड़े घोटालों में है
16 मई, 1979 को छह सदस्यीय सेठी समिति ने (जिसका काम आगे पनडुब्बियों के चुनाव के लिए सिफारिश करना था) नौसेना स्टाफ के उप-प्रमुख को अपनी रिपोर्ट सौंपी. इसने स्वीडिश 45-कोकम्स को पहली वरीयता दी और उसके बाद इतालवी सोरो पनडुब्बी को रखा गया था. समिति ने पश्चिम जर्मनी के एचडीडब्ल्यू के प्रस्ताव को खारिज कर दिया क्योंकि इसकी गोते लगाने की क्षमता केवल 250 मीटर थी जो 350 मीटर की बताई गई आवश्यकता से बहुत कम थी.
लेकिन इसके महीने के भीतर एक चमत्कार हुआ और आसमान जाने कैसे 15 जून, 1979 को जर्मन पनडुब्बी इस निविदा के बड़े प्रतिस्पर्धी के रूप में सामने आई. असल में, कमिटी ने एचडीडब्ल्यू से वादा लिया था अगर वह अपनी डूब क्षमता को 350 मीटर तक बढ़ा ले तो इसके नाम पर विचार किया जा सकता है.
बहरहाल, इसी दौरान राजनैतिक उथल-पुथल हो गई और जनता सरकार गिर गई और इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई. हालांकि, इससे पहले चरण सिंह के कार्यकाल में रक्षा मंत्रालय ने एक मसौदा तैयार किया, जिसमें 318 करोड़ रूपए की लागत वाले कोकम को एचडीडब्ल्यू पर वरीयता दी गई थी.
सरकार फिर बदली और इसके मद्देनजर नई इंदिरा सरकार के लिए इन कंपनियों ने अपने प्रस्ताव की तारीख 30 जून 1980 तक बढ़ा दी. उसी वर्ष 10 अप्रैल को, श्रीमती गांधी के नेतृत्व में सीसीपीए की बैठक हुई. इसने कोकम्स और एचडीडब्ल्यू दोनों की शॉर्टलिस्टिंग को मंजूरी दे दी. लेकिन इसने समिति के पुनर्गठन का जिम्मा प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया.
14 अप्रैल को जब मूल समिति की अंतिम बैठक हुई, तो इसकी अध्यक्षता सचिव ने नहीं बल्कि एस.एस. सिद्धू ने की, जो अवर सचिव के रूप में रक्षा मंत्रालय में लाए गए थे. इस मसले पर प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से कोई लिखित निर्देश नहीं था और सिद्धू ने यह कार्यभार कैसे संभाला इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं था.
मई 1980 में सिद्धू समिति ने स्वीडन और जर्मनी का दौरा किया और एचडीडब्ल्यू के प्रस्ताव पर लागत घटाकर 332 करोड़ रुपए हो गई. बहरहाल, इस सौदे पर 11 दिसबंर 1981 को दस्तखत कर दिए गए. अनुबंध में तय था कि चार एचडीडब्ल्यू पनडुब्बियों को, टारपीडो समेत, इस अनुबंध के छह साल के भीतर 1987 के अंत तक, कुल 465 करोड़ रुपये लागत पर लाया जाएगा. दो और पनडुब्बियों का ऑर्डर बाद में दिया जाना था.
लेकिन 1987 के मध्य तक केवल दो पनडुब्बियों की डिलीवरी हुई थी. और इस समय, वी.पी. सिंह राजीव गांधी सरकार में रक्षा मंत्री थे. उन्हें जानकारी मिली कि जर्मनों ने भारत को यह पनडुब्बी ज्यादा कीमत पर टिका दिया है और उन्होने आदेश दिया कि कीमतों पर फिर से बातचीत की जाए और शेष दो पनडुब्बियों की कीमत वैश्विक कीमतो के अनुरूप कर दिए जाएं.
24 फरवरी, 1987 को बॉन में भारत के राजदूत जे.सी. अजमानी ने सरकार को एक गुप्त टेलीग्राम भेजा जिसमें कहा गया था कि जर्मन कीमत कम करने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनका कहना था कि यह ठेका हासिल करने के लिए उन्होंने 7 प्रतिशत का कमीशन चुकाया था. यह तार वी.पी. सिंह ने अप्रैल 1987 में देखा था.उन्होंने इसकी जांच के आदेश दिए लेकिन यह आदेश देने के तीन दिनों बाद, 12 अप्रैल 1987 को उन्होंने सरकार से इस्तीफा दे दिया.
1987 में जब सिद्धू सेवानिवृत्त हुए, तो उन्हें राजीव गांधी सरकार ने तमिलनाडु के राज्यपाल का सलाहकार नियुक्त कर दिया. 1989 में उन्हें और भी अधिक आकर्षक असाइनमेंट मिला जिसमें वह कनाडा के मॉन्ट्रियल में एक महलनुमा घर के साथ-साथ 6,000 डॉलर (1 लाख रुपये से अधिक) प्रति माह करमुक्त आमदनी हासिल कर रहे थे.
सिद्धू के बाद दूसरे आरोपी एसके भटनागर थे. उनका नाम बोफोर्स डील में भी था. सिद्धू के बाद वही रक्षा मंत्रालय में एडिशनल सेक्रेट्री बनाए गए थे. लेकिन, बाद में उनको सिक्किम का राज्यपाल का पद मिला था. आज राजीव गांधी की कसमें खाने वाले लोग बोफोर्स की भी बात नहीं करना चाहते. एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी घोटाले का तो खैर नई पीढ़ी ने नाम भी नहीं सुना होगा.
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