'वरिष्ठ नेताओं' से निपटने में राहुल गांधी कैसे फेल हुए, और मोदी पास
भले ही राहुल गांधी ने इस्तीफ़ा दे दिया हो. मगर जैसी पार्टी की हालत है साफ है कि वो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से निपटने में नाकाम हैं. जबकि बात अगर राहुल के राजनीतिक प्रतिद्वंदी नरेंद्र मोदी की हो तो, उन्होंने वरिष्ठों को सबक दिया राहुल को उससे बहुत कुछ सीखना चाहिए.
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2004 में जिस वक़्त राहुल ने चुनावी राजनीति में प्रवेश किया, वो एक ऐसे प्रतीक के रूप में देखे गए जो कांग्रेस के लिए अगली पीढ़ी के राजनीतिज्ञ थे. ये वही वर्ष था जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के पद के लिए कुर्बानी दी थी. कई टिप्पणीकारों ने मनमोहन सिंह को एक ऐसे पीएम के रूप में देखा जो आने वाले वक्त में पार्टी की विरासत राहुल गांधी के हाथों में सौंपने वाले थे. मनमोहन सिंह 10 वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री रहे. कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए सोनिया गांधी उनसे भी ज्यादा समय तक अपने पद पर आसीन रहीं. इन सब के बीच पार्टी के बुजुर्ग या ये कहें कि जो वरिष्ठ नेता थे उन्होंने अपनी जड़े और गहरी कर लीं जिसने 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को मुसीबत में डालने का काम किया.
49 साल के राहुल गांधी भी इस बात को भली प्रकार समझ गए हैं कि जो पुरानी जड़े हैं वो ये जानते हुए भी जमीन छोड़ना नहीं चाहती हैं कि लगातार दूसरी बार देश की जनता ने कांग्रेस को सिरे से खारिज कर दिया है. राहुल गांधी के इस्तीफे पर अगर नजर डाली जाए तो मिलता है कि वो अपनी बातों को लेकर स्पष्ट थे.वो इस्तीफ़ा जो उन्होंने ट्वीट किया उसने खुद-ब-खुद सारी बातें साफ कर दी थीं.
राहुल ने भले ही इस्तीफ़ा दे दिया हो मगर ये कहना गलत नहीं है कि वो पार्टी की स्थिति संभल नहीं पाए
अपने इस्तीफे में राहुल ने लिखा कि, ये भारत में लोगों की आदत है कि जो शक्तिशाली है वो पावर के साथ है, कोई पावर का त्याग नहीं करना चाहता. मगर हम तब तक अपने विरोधियों को नहीं हरा सकते जब तक हम पावर या सत्ता का त्याग करना न सीख लें. हम एक गहरी वैचारिक लड़ाई लड़ रहे हैं.
राहुल द्वारा इस्तीफे में कही गई इन बातों का यदि अव्कोलन किया जाए तो इशारा साफ था वो पार्टी के बुजुर्गों / वरिष्ठों से मुखातिब थे. कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) जो पार्टी गतिविधियों पर निर्णय लेने के लिए सर्वोच्च निर्णय निकाय है में 55 मेंबर हैं जिनमें से अधिकांश सोनिया गांधी से पहले के हैं. इनमें भी सबसे वरिष्ठ 93 साल के मोतीलाल वोरा है जो खुद चलने फिरने में असमर्थ हैं. वीर का जन्म 1928 में हुआ ये वो वर्ष था जब राहुल के परदादा मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष थे.
बात अगर कांग्रेस पार्टी में सोनिया पूर्व राजनेताओं की हो तो तरुण गोगोई, हरीश रावत, ओमन चांडी, गुलाम नबी आजाद, मनमोहन सिंह, एके एंटनी, अम्बिका सोनी, मल्लिकार्जुन खड़गे, अशोक गहलोत, आनंद शर्मा, सिद्धारमैया और बहुत से लोग जो कांग्रेस कार्यसमिति में हैं सोनिया से पहले के राजनेता हैं.
ऐसे में स्थिति का अवलोकन करें तो मिलता है कि पार्टी की जमीन पर अपनी जड़ें गहरी कर चुके इन बुजुर्गों में इतना दमखम ज़रूर है कि वो राहुल को इस्तीफ़ा वापस लेने और अपने पद पर बने रहने के लिए दबाव ज़रूर बना सकते हैं. ये जानते हुए कि पार्टी में सत्ता गांधियों से ही निकलती है कोई इन नेताओं को छू नहीं सकता. यानी साफ है कि पार्टी के ये वरिष्ठ राहुल गांधी की अपेक्षा कहीं शक्तिशाली हैं. आज 20 के लगभग सीडब्लूसी मेंबर 70 साल से से ऊपर के हैं ये वो उम्र ही जब भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपने नेताओं को रिटायर करने के बारे में सोच रहे हैं.
भाजपा की निर्मम व्यावहारिकता
बात भाजपा और उसकी राजनीति के अंतर्गत हो तो वर्तमान परिदृश्य में यही मिलता है कि पार्टी निर्मम व्यावहारिकता के सिद्धांत पर अपनी नीतियों को अमली जामा पहना रही रही है. जिस वक़्त पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वायपेयी 2014 का चुनाव जीतने में नाकाम रहे लाल कृष्ण आडवाणी को मोर्चा संभालने के लिए लाया गया. अब अगर इन दोनों ही नेताओं का अवलोकन किया जाए तो मिलता है कि ये दोनों ही नेता भाजपा के शीर्ष पर रह चुके थे और एक लम्बे समय तक इन दोनों ने पार्टी में अपना सिक्का चलाया है. परन्तु जब 2009 में आडवाणी जीतने में नाकाम रहे भाजपा ने उन्हें किनारे करते हुए एक नए नेता की तलाश शुरू कर दी और इसी के बाद राष्ट्रीय परिदृश्य में नरेंद्र मोदी हमारे सामने आए.
मोदी द्वारा 2014 का चुनाव जीतने के फौरन बाद भाजपा ने इन वरिष्ठों को किनारे करना शुरू कर दिया और इसके लिए उसने मार्गदर्शक मंडल की स्थापना की. इस मंडल में वाजपेयी, आडवाणी, मुरली मनोहर जैसे सम्मानित लोग गए और इन लोगों ने यही बैठकर पार्टी को एक नई दिशा देने का काम किया. मजे की बात ये थी कि भले ही ये लोग अलग अलग मुद्दों के लिए सलाह दे रहे थे मगर इनके पास से वो सभी अधिकार छीन लिए गए थे जिनके अंतर्गत ये लोग पार्टी की दिशा में कोई ऐसा बड़ा फैसला लें जो पार्टी की कार्यप्रणाली को प्रभावित करे.
पार्टी के पुराने निष्ठावान लोगों जैसे अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह ने नरेंद्र मोदी के हक में कम किया और इसी चीज ने मोदी को भी ये मौका दिया कि वो भाजपा में अमित शाह को शीर्ष स्थान पर लेकर आएं. शाह के लिए रास्ता साफ था. मोदी शाह की जोड़ी ने मौके का पूरा फायदा उठाया और उन राज्यों तक में भाजपा की सरकार बनवा दी जिसके बारे में शायद ही कभी किसी ने सोचा हो.
कांग्रेस का ऐसा अध्यक्ष जो बंदिशों में था
दूसरी ओर, जब राहुल गांधी ने 2014 के चुनाव के नुकसान के बाद सीडब्ल्यूसी की चरमराती धुरा में नए रक्त को डालने की कोशिश की, तो पुराने नेताओं ने अपनी पूरी ताकत से राहुल गांधी की इस योजना का पुरजोर विरोध किया.
राहुल गांधी ने 2014 के चुनावों से पहले ही इस समस्या की पहचान कर ली थी. 2013 से, वह कांग्रेस के सिस्टम को "बाहरी लोगों" के लिए खोलना चाहते थे, पदाधिकारियों को अधिक मुखर और जवाबदेह बनाना चाहते थे. लेकिन पुराने नेताओं ने विरोध किया और जोर देकर कहा कि पुरानी प्रथा, जहां गोपनीयता और संरक्षण मानदंड थे, अभी भी कांग्रेस के लिए ठीक काम करेंगे. कहा जाता है कि राहुल गांधी तब से ही पार्टी के इन मजबूत बुजुर्ग नेताओं से अपनी लड़ाई को लड़ रहे थे.
2019 के चुनाव के दौरान, राहुल गांधी ने टिकट वितरण में पुराने नेताओं के हस्तक्षेप और भाजपा से लड़ने वाले दलों के साथ गठजोड़ में बाधा डालने वाली भूमिका पर नाराजगी व्यक्त की. दिल्ली इसका सबसे बड़ा उदाहरण था,जहां राहुल गांधी आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल के साथ गठबंधन करना चाहते थे, पार्टी के नए और युवा नेताओं ने राहुल की इस बात का समर्थन किया जबकि ये वरिष्ठ नेता ही थे जिन्होंने दिल्ली में अड़ंगा लगाया. बाद में अरविंद केजरीवाल ने राहुल गांधी पर ये आरोप लगाया कि वो गठबंधन करना ही नहीं चाहते थे.
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि राहुल गांधी इन तानाशाह बुजुर्गों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेना चाहते. लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी लेने के बाद राहुल ने अपने इस्तीफे की पेशकश कि और मुखर होकर इस बात को कहा कि मैं दूसरों से इस्तीफ़ा देने के लिए नहीं कहूंगा ये उनपर निर्भर करता है कि वो जिम्मेदारी लेते हैं या नहीं.
राहुल गांधी कहां फेल हुए
ये कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि पुराने नेताओं पर एक्शन लेने या फिर उन्हें बर्खास्त करने में राहुल गांधी बुरी तरह नाकाम रहे. मजेदार बाद ये है कि राहुल ने मोदी शाह का ये कहकर मजाक भी उड़ाया कि उन्होंने आडवाणी और जोशी जैसे नेताओं को वक़्त से पहले रिटायर कर हाशिये पर डाल दिया.
वो जो राहुल गांधी के विश्वासपात्र थे उन्होंने भी अपनी तरफ से खूब मेहनत की. तकरीबन 200 पधाधिकारियों ने राहुल गांधी के समर्थन में अपना इस्तीफ़ा दिया. इस्तीफ़ा इस बात पर दिया गया कि राहुल गांधी अपना इस्तीफ़ा वापस लें और मौजूदा सीडब्ल्यूसी को भंग कर देना चाहिए. 17 राज्यों की प्रदेश कांग्रेस कमेटी जिसमें कांग्रेस 1 भी सीट जीतने में नाकाम रही वहां भी कमेटी को भंग कर अध्यक्षों को बर्खास्त कर देना चाहिए.
मगर ये 1963 की कांग्रेस नही है. पार्टी के जो वरिष्ठ नेता थे उन्होंने अपना काउंटर प्लान तैयार कर दिया था. उन्होंने मीडिया में इस सिद्धांत को लेक कर दिया कि अगले पार्टी प्रमुख का चुनाव करने के लिए एक अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष चुना जा सकता है. और इसी के साथ ही सुशील कुमार शिंदे, मल्लिकार्जुन खड़गे और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस के खेमे में चर्चा का विषय बन गया. और इसी में मोतीलाल वोरा की तस्वीर भी देश की जनता के सामने आई.
इस अंतरिम व्यवस्था सिद्धांत के अनुसार, जब भी परिवार 2024 लोकसभा चुनाव से पहले नेतृत्व प्रदान करने के लिए तैयार होगा, तब पुरानापृष्ठ नेता जो कांग्रेस अध्यक्ष है वो अपनी कुर्सी खाली कर देगा. बात आसान है. पुराने नेता अपनी पकड़ ढीली नहीं करेंगे और अगर गांधी परिवार का ये मानना होगा कि वे कांग्रेस को एकजुट रखने के लिए परम सीमेंट हैं, तो पुराने नेताओं का जलवा वैसे ही कायम रहेगा जैसा आज है.
अंत में बस इतना ही कि राहुल गांधी का इस्तीफ़ा ये दर्शाता है कि उन्होंने न केवल कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया है बल्कि वो पुराने और वरिष्ठ नेताओं की पकड़ से भी आजाद हुए हैं. ये पीएम मोदी के विपरीत है जिन्होंने न सिर्फ मुखर होकर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से लड़ाई लड़ी बल्कि उन्हें भाजपा में उनकी असली जगह भी दिखाई.
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