ये कैसा कानून का राज- सिपाही पर 'देशद्रोह' और सोज़ 'आज़ाद' घूमें
आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन को गुलाम नबी आजाद जैसे नेता कत्लेआम बता रहे हैं, फिर भी उस पर बहस हो रही है - और जान पर खेल कर नक्सलवादियों से जूझने वाले सिपाहियों को नोटिस और देशद्रोह का केस, आखिर ये कैसा कानून का राज है?
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केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली के ब्लॉग पोस्ट इन दिनों विरोधियों के लिए मिसाइल बने हुए हैं. फेसबुक के जरिये जेटली जम्मू कश्मीर को लेकर मोदी सरकार पर सवाल उठाने वालों पर जवाबी हमले तो कर ही रहे हैं, उन्हें भी कठघरे में खड़े कर सवालों की झड़ी लगा दे रहे हैं.
एक पोस्ट में जेटली ने राहुल गांधी पर आरोप लगाया है कि वो आतंकवादियों और माओवादियों की विचारधारा के प्रति सहानुभूति रखने लगे हैं. कांग्रेस की ओर से इस पर पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने कड़ी आपत्ति जताते हुए रिएक्ट किया है.
ये बहस उस दौर में चल रही है जब जम्मू कश्मीर को लेकर सेना पर सवाल उठाये जा रहे हैं और मुशर्रफ की बातों का सपोर्ट किया जा रहा है. तस्वीर का दूसरा पहलू भी काबिले गौर है कि छत्तीसगढ़ में जहां पुलिसकर्मियों द्वारा कुछ बुनियादी सुविधाओं की मांग के बदले कड़ा एक्शन लिया जा रहा है - यहां तक कि एक सिपाही पर देशद्रोह का मुकदमा भी दर्ज हो चुका है.
मोर्चे पर जूझते जवान... और सत्ता के गलियारों में राजनीति
आखिर ये कैसा कानून का राज है? आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन को गुलाम नबी आजाद जैसे नेता कत्लेआम बता रहे हैं और उनके साथी नेता अलगाववादियों की जबान बोल रहे हैं, फिर भी उस पर बहस हो रही है - और जान पर खेल कर नक्सलवादियों से जूझने वाले सिपाहियों को नोटिस थमाया जा रहा है. ऊपर से देशद्रोह का केस, ये तो हद की भी हद है.
एक सिपाही की बर्खास्तगी और देशद्रोह का केस
राहुल गांधी को टारगेट करते हुए जेटली ने अपने ब्लॉग में मानवाधिकारों के जिक्र में आतंकियों से रक्षा पर जोर दिया है. मगर, बीजेपी की छत्तीसगढ़ सरकार पुलिसवालों के लिए संभवतः बहुत जरूरी नहीं समझती. अगर ऐसा होता तो नक्सलियों से लड़ने के लिए बुलेट प्रूफ जैकेट और आधुनिक असलहों के लिए आंदोलन नहीं होता.
दाल-रोटी का सवाल तो...
बीएसएफ जवान तेज बहादुर की कहानी भी तो बहुत पुरानी नहीं हुई. आखिर तेज बहादुर की क्या समस्या थी - खराब खाना. तेज बहादुर ने इतना ही तो कहा था कि खाने में पानी जैसी पतली दाल परोसी जाती है जिसमें सिर्फ हल्दी और नमक होता है और साथ में जो रोटी मिलती है वो भी जली होती है. इसी बात को लेकर सोशल मीडिया पर तेज बहादुर यादव ने एक वीडियो अपलोड कर दिया था. तेज बहादुर की इस हरकत से फोर्स की छवि को नुकसान हुआ माना गया. नियमों के उल्लंघन के कारण तेज बहादुर को बर्खास्त कर दिया गया.
बेशक पुलिस और सुरक्षा बलों में अनुशासन जरूरी है. शायद ही किसी को इस पर ऐतराज हो. फिर भी कोई ऐसा फोरम तो होना चाहिये जहां निचले स्तर के पुलिसकर्मी अपनी समस्यायें रख सकें. स्थिति तो ये है कि उन्हें समस्यायें सुनाने के लिए उन्हीं अफसरों का मुंह देखना पड़ता है जो उनके कैरेक्टर सर्टिफिकेट देते हैं. बैड-एंट्री के डर से भला किस सिपाही की हिम्मत होगी कि वो बहस करे. जो भी होता है चुपचाप सह लेता हैं. यही वजह है कि ये अब पुलिस-परिवार आंदोलन बन चुका है. इसी आंदोलन के तहत सूबे की राजधानी में 25 जून को बड़े पैमाने पर धरने की तैयारी चल रही है और इसे लेकर पुलिस अफसरान से लेकर सरकार तक हड़कम्प मचा हुआ है. रायपुर में पुलिसकर्मियों को पुलिस लाइन बुलाकर शपथ-पत्र भरवाया गया कि वे या उनके परिवार के लोग आंदोलन में शामिल नहीं होंगे.
नोएडा का किस्सा तो हाल ही का है. सोशल मीडिया पर पुलिस विभाग की वसूली की लिस्ट आते ही पूरे महकमे में हड़कम्प मच गया था. बाद में तमाम अफसर सफाई देते फिर रहे थे. ये तो है कि उसके बाद नोएडा में कुछ असर तो दिखा ही. पुलिसकर्मियों द्वारा अक्सर वसूली की खबरें आती रहती हैं, निश्चित तौर पर वैसे मामलों में एक्शन लिया जाना चाहिये, लेकिन उनकी समस्याओं पर भी तो मानवीय आधार पर विचार करना चाहिये. छत्तीसगढ़ में 2009 में नक्सल हमले में 26 पुलिसकर्मियों के मारे जाने के बाद जवानों के लिए बुलेटप्रूफ जैकेट की मांग उठी थी. यही वो घटना थी जब पुलिसकर्मियों ने अपने हक के लिए आवाज उठायी.
इस वक्त पुलिसकर्मियों की डिमांड लिस्ट में 13 मांगे हैं, लेकिन ये तीन तो कहीं से भी गैरवाजिब नहीं ठहरायी जा सकतीं.
1. नक्सल प्रभावित जिलों में तैनात जवानों को बुलेट पू्रफ जैकेट और अत्याधुनिक हथियारों की सुविधा हो.
2. सरकारी काम से आने जाने के लिए पेट्रोल भत्ता ₹ 13 रुपये है. उसे ₹ 2000 कर दिया जाये.
3. ड्यूटी के दौरान मरने वाले कर्मचारियों को शहीद का दर्जा दिया जाये.
इनमें एक और जायज मांग हफ्ते में एक दिन छुट्टी को लेकर भी है. मांग बिलकुल वाजिब है. हालांकि, व्यवस्था की मजबूरी भी है. आबादी के हिसाब से जब पुलिसकर्मी ही न हों और ऊपर से रूटीन के कामों के साथ साथ वीआईपी ड्यूटी भी करनी हो, इन सबके लिए पुलिस सुधार की सिफारिशों के हिसाब से सुविधाओं को अमल में लाया जाना चाहिये.
जब पूरे देश में पेट्रोल कीमतों को लेकर हर रोज हाहाकार मच रहा हो, फिर ₹ 13 का पेट्रोल भत्ता मजाक नहीं तो और क्या है? दरअसल, पुलिसवालों को ये भत्ता साइकल के लिए दिया जाता है - अंग्रेजों के जमाने से.
आलम ये है कि पुलिस परिवार आंदोलन की गतिविधियों को पता लगाने में इंटेलिजेंस पूरी तरह से फेल हो गया है. पता चला है कि आंदोलन को लेकर तीन महीने से जगह जगह गुप्त बैठकें हो रही थीं और किसी को भनक तक नहीं लगी. जब पुलिस परिवार सड़क पर उतर आया तो पता चला बात तो काफी आगे बढ़ चुकी है.
हालत ये है कि अब कई पुलिस अफसरों और जवानों के मोबाइल पर निगरानी रखी जा रही है. आला अफसर ये नहीं समझ पा रहे हैं कि आंदोलनकारियों में एक दूसरे से संपर्क कैसे हो रहा है? आंदोलन को लेकर फंडिंग कहां से हो रही है और कौन कर रहा है?
वैसे पुलिस ने बर्खास्त सिपाही राकेश यादव को गिरफ्तार कर लिया है, जिसे आंदोलन का सूत्रधार माना जा रहा है. बर्खास्तगी भी इसी वजह से हुई है क्योंकि राकेश ने ही पहली बार बिल्ली के गले में घंटी बांध दी थी. तब शायद राकेश को अंदाजा नहीं रहा कि अफसर को ज्ञापन देना इतना कितना बड़ा गुनाह होता है.
दरअसल, राकेश को गिरफ्तार करने का दाव ही पहले उल्टा पड़ गया. क्राइम ब्रांच की जिस टीम को राकेश की गिरफ्तारी का जिम्मा सौंपा गया वो राकेश के संपर्क में रही और उसे हर अपडेट आसानी से मिलती रही. गिरफ्तारी तब मुमकिन हो पायी जब नयी टीम बनायी गयी. राकेश को एक फॉर्म हाउस से गिरफ्तार किया गया. अब फॉर्म हाउस के मालिक पर भी कार्रवाई की तलवार लटक रही है. सिपाही राकेश यादव पर देशद्रोह, पुलिसकर्मियों को भड़काने और आईटी एक्ट के तहत केस दर्ज हुआ है.
देशद्रोह का केस! जम्मू कश्मीर से कुछ जवानों के या उनके रिश्तेदारों के दहशतगर्तों के साथ चले जाने की खबरें भी आती हैं, लेकिन कभी कभार ही. उन पर तो देशद्रोह का केस निश्चित रूप से बनता है.
मगर, क्या नक्सलियों से लड़ने के लिए बुलेट प्रूफ जैकेट और ₹ 13 पेट्रोल भत्ते के तौर पर कम बताने जैसी बातों के लिए ऐसी कार्रवाई होनी चाहिये? ये कहां से उचित है? ये कौन से कानून का राज है?
कश्मीर पर अलगाववादियों जैसी बयानबाजी - और बहस!
रमजान के बाद सीजफायर बढ़ाने की जगह खत्म करते हुए मोदी सरकार ने सेना के ऑपरेशन फिर से शुरू होने का ऐलान किया. सरकार के इस कदम को लेकर कांग्रेस नेताओं ने कश्मीर समस्या से निबटने में 'बल प्रयोग' नीति की वापसी की आशंक जतायी. पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की भी यही राय रही और उन्होंने सभी पक्षों से बातचीत की बात फिर से दोहरायी.
जेटली ने इसी बात का जवाब दिया है, लिखते हैं, "कभी-कभी हम उन मुहावरों में फंस जाते हैं जो हमने ही गढ़े हैं. ऐसा ही एक मुहावरा है 'कश्मीर में बल प्रयोग की नीति'. एक हत्यारे से निपटना भी कानून-व्यवस्था का मुद्दा है. इसके लिए राजनीतिक समाधान का इंतजार नहीं किया जा सकता."
जेटली आगे लिखते हैं, "वे अदालतों को आतंकित करते हैं, संपादकों की हत्या करते हैं, निर्दोष नागरिकों को मारते हैं, अन्य धर्मावलंबियों को अपने धर्म का पालन नहीं करने देते हैं. कश्मीर के नागरिकों के मानवाधिकारों को कौन खतरे में डाल रहा है? इसका जवाब स्पष्ट है कि वे आतंकवादी और जेहादी हैं जिन्होंने ऐसा किया है."
कश्मीर पर गुलाम नबी आजाद की बात को कांग्रेस प्रवक्ता द्वारा जनहित की बात कह कर पहले ही सही ठहराने की कोशिश की गयी है. अब जेटली के आरोपों पर पी. चिदंबरम ने कांग्रेस की ओर से मोर्चा संभाला है और इस सिलसिले में कई ट्वीट किये हैं.
इस प्रकार का आरोप कि जेहादियों और माओवादियों को राहुल गांधी की सहानुभूति हासिल है वो बेतुका और हास्यास्पद है। कांग्रेस ने दोनों समूहों का दृढ़तापूर्वक विरोध किया है।
— P. Chidambaram (@PChidambaram_IN) June 23, 2018
यूपीए के समय, सरकार जम्मू-कश्मीर में जेहादियों से लड़ी और हिंसा के स्तर को काफी हद तक कम कर दिया।
— P. Chidambaram (@PChidambaram_IN) June 23, 2018
इस बात को कौन भूल सकता है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने माओवादी हिंसा में लगभग अपना पूरा नेतृत्व खो दिया था?
— P. Chidambaram (@PChidambaram_IN) June 23, 2018
देशभक्ति, देशद्रोह और कुछ सवाल!
ये कैसे समझा जाय कि कानून सबके लिए बराबर है. कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि पूर्व पाकिस्तानी शासक परवेज मुशर्रफ की दस साल पुरानी बातें आज भी प्रासंगिक हैं. गुलाम नबी आजाद बिलकुल अलगाववादियों जैसी भाषा बोल रहे हैं. फारूक अब्दुल्ला कश्मीरी अलगाववादियों के पीठ पीछे खड़ा होने में फख्र का इजहार करते हैं. क्या इनकी बातें देशद्रोही नहीं है?
कानून को कैसे बराबर समझा जाये जब एक मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को कायर और 'मनोरोगी' बताये और उसके खिलाफ मामला सुनवाई के लायक न समझा जाये - और बुनियादी सुविधाओं की मांग करने वाले सिपाही पर देशद्रोह का केस थोप दिया जाये.
सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने वालों और उसे खून की दलाली बताने वालों से कभी कुछ नहीं पूछा जाता - और एक सिपाही पर देशद्रोह का इल्जाम मढ़ दिया जाता है.
राजनीति की आड़ में सारी बातें अभिव्यक्ति की आजादी हो जाती हैं और एक सिपाही पतली दाल और जली रोटियों का मुद्दा उठाता है या कुछ बुनियादी सुविधाओं की मांग करता है.
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि देशभक्ति और देशद्रोह को लेकर प्रत्येक स्तर पर इतना गहरा भेदभाव हमें कहां ले जा रहा है.
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