Jyotiraditya Scindia के भाजपा ज्वॉइन करने का मकसद सामने आने लगा है!
ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) ने न तो विचारधारा से समझौता किया है और न ही कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन किया है - सच तो ये है कि सिंधिया ने अपने लिए एक सुरक्षित राजनीतिक भविष्य (Politics of Hindutva) के लिए जगह ढूंढी है - विचारधारा (BJP and Congress Ideology) से भी कोई खास लेना देना नहीं है!
-
Total Shares
ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) के कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने को लेकर अब तक तमाम कयास लगाये जा चुके हैं. ज्यादातर ऐसे अनुमान कांग्रेस में सिंधिया की हाल फिलहाल डावांडोल स्थिति को लेकर लगाये गये हैं. कहा जा रहा है कि वो मुख्यमंत्री या मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष तो दूर उनके लिए तो कांग्रेस में राज्य सभा सीट के भी लाले पड़ गये थे. ये सारी बातें सही हैं, लेकिन कारण और भी लगते हैं.
जो सिंधिया विधानसभा चुनावों में घूम घूम कर दूसरों को वोट दिलवा दिये वो भला गुना से खुद कैसे हार गये, सोचते तो होंगे ही. जीता भी कौन जो कभी उनका ही सांसद प्रतिनिधि. बस बीजेपी से टिकट मिला और बाजी मार ले गया. अगर ये कहा जाये कि वो खुद यूपी में चुनाव के चलते व्यस्त रहे तो भला दिग्विजय सिंह क्यों हार गये? दिग्विजय सिंह की भी तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही ही है.
कहा ये भी जा सकता है कि बीजेपी भी तो एक एक करके राज्य विधानसभाओं के चुनाव हारती ही जा रही है - लेकिन विधानसभा चुनाव जीत कर कांग्रेस की सरकार बनाने के छह महीने के भीतर ही सिंधिया क्यों हार गये - ये सवाल तो तो उन्हें हर वक्त परेशान करता ही होगा. है कि नहीं? गुना सिंधिया परिवार का गढ़ रहा है और कभी भी उस सीट पर आंच नहीं आ पायी. शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री रहते और यशोधरा राजे के चुनाव प्रचार के बावजूद ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने इलाके में होने वाले उपचुनाव कांग्रेस को जिताते रहे - लेकिन खुद ही चूक गये.
राज्य सभा चुनाव तो बस बहाना या एक मौका लगता है, दरअसल, सिंधिया को न तो कांग्रेस से मतलब रह गया था और न ही बीजेपी से. वो तो बस एक सुरक्षित राजनीतिक भविष्य की तलाश में थे - हिंदुत्व की राजनीति (Politics of Hindutva). ये तलाश पूरी होते ही पाला बदल लिये और राहुल गांधी के लिए कयास लगाने का मौका छोड़ गये - वो चाहें तो विचारधारा (BJP and Congress Ideology) से जोड़ते रहें.
सिंधिया ने सही राजनीतिक लाइन पकड़ी है
ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर राहुल गांधी अपनी जगह अपने हिसाब से सही हो सकते हैं. राहुल गांधी का कहना है कि वो सिंधिया की विचारधारा को जानते हैं. राहुल गांधी को भले ही लग रहा हो कि सिंधिया ने अपनी विचारधारा को जेब में रख लिया है.
क्या राहुल गांधी बताएंगे कि चुनावों के दौरान ही क्यों कांग्रेस नेताओं को उनके जनेऊधारी होने का प्रचार करना पड़ा?
राहुल गांधी जो भी सोचते हों या कह रहे हों, सच तो ये है कि जिस राह पर चलने की वो कोशिश करते रहे - ज्योतिरादित्य सिंधिया तेज कदम बढ़ाते हुए उनसे आगे बढ़ चुके हैं. राहुल गांधी के मंदिर और मठ दर्शन को सॉफ्ट हिंदुत्व कहा जा रहा था, सिंधिया सीधे सीधे हिंदुत्व की लाइन वाली स्पष्ट राजनीतिक राह पर निकल पड़े हैं.
कहने को तो ये भी कहा जा रहा है कि अब पूरा सिंधिया परिवार एक जगह पहुंच चुका है, देखने में तो यही नजर आता है, लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं कि सभी को एकजुट होने का कोई फायदा मिलने वाला है. सिंधिया की दो दो बुआ पहले से बीजेपी में हैं और उम्र में छोटे होने के कारण सिंधिया की पारी जाहिर है लंबी होगी. भले ही दोनों ने सिंधिया के बीजेपी में जाने पर खुशी का इजहार किया है, लेकिन वो ऊपरी तौर पर या सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक ही लगता है - क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि परिवार में बहुत प्रेम भाव हो यशोधरा राजे और ज्योतिरादित्य के परिवार का झगड़ा तो चारदीवारी फांद कर अदालत तक जा पहुंचा था.
सिंधिया को मालूम है, विचारधारा और पार्टी से ज्यादा जरूरी सुरक्षित राजनीतिक भविष्य है
वैसे भी सिंधिया के बीजेपी ज्वाइन करने में दोनों में से किसी बुआ का नहीं बल्कि ससुराल पक्ष का ज्यादा बड़ा रोल रहा है. बड़ौदा के शाही गायकवाड़ परिवार से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले से काफी अच्छे ताल्लुकात रहे हैं और वही इस मिशन में प्रभावी माध्यम बना है. सिंधिया की एक बुआ वसुंधरा राजे जहां अमित शाह के आंख की किरकिरी हैं, वहीं दूसरी बुआ यशोधरा राजे को हाशिये पर रखने में शिवराज सिंह चौहान पूरी ताकत लगा देते हैं.
असल बात तो ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में अपने भविष्य से कहीं ज्यादा पार्टी के भविष्य को लेकर ही सशंकित रहा करते थे. फील्ड में नेतृत्व के गलत फैसलों को भी दिल पर पत्थर रख कर डिफेंड करना पड़ता था. सिंधिया की हालत ऐसी हो चली थी कि न कांग्रेस नेतृत्व के गलत फैसलों को बदलने में कोई राय दे पा रहे थे और न ही उनके विरोध का कोई मतलब ही नजर आ रहा था. जब तक राहुल गांधी रहे तब तक तो सब चल भी जाता रहा, लेकिन 23 मई, 2019 को आम चुनाव के आये नतीजों ने तो जैसे कहर ही बरपा दिया था.
धारा 370 पर कांग्रेस नेतृत्व के स्टैंड का सिंधिया ने खुलेआम विरोध किया था. ट्विटर पर तो अपनी राय रखी ही, CWC की मीटिंग में भी वो पूरी शिद्दत से अपनी बात कहते रहे. मीटिंग में ऐसा भी नहीं कि सिर्फ सोनिया गांधी और दूसरे कांग्रेस नेता रहे, खुद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी मौजूद रहीं - लेकिन तीनों में से कोई भी न तो सिंधिया के फ्रिक को समझने वाला था और न ही उनकी राय की परवाह करने वाला. धारा 370 के बाद नागरिकता संशोधन कानून भी लागू हो गया - एक तरफ सरकार के साथ जनमानस और दूसरी तरफ विरोध में खड़े लोगों के साथ कांग्रेस. सिंधिया जिस विचार को लेकर आत्ममंथन कर रहे थे, कांग्रेस नेतृत्व के फैसले उनके इरादे को दिन प्रतिदिन मजबूत करते रहे.
सबसे बड़ी बात, ज्योतिरादित्य सिंधिया को जो राजनीतिक राह सुरक्षित भविष्य का भरोसा दिला रही है उस राह पर ऐसा भी नहीं कि वो अकेले नेता हैं. नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के कट्टर विरोधी रहे नेता भी वही राजनीतिक लाइन पकड़ चुके हैं.
नीतीश, केजरीवाल ममता की लाइन आखिर क्या है
कांग्रेस नेतृत्व और कुछ कट्टर बीजेपी विरोधियों को थोड़ी देर के लिए अलग रख कर देखें तो प्रधानमंत्री मोदी का नीतीश कुमार से बड़ा विरोधी कोई रहा हो ऐसा नजर नहीं आता. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कभी मोदी विरोधी ब्रिगेड के सबसे ज्यादा शोर मचाने वाली आवाज हुआ करते थे. गुजरते वक्त के साथ तात्कालिक राजनीतिक नब्ज को टटोलते हुए दोनों ही नेता अपने राजनीतिक स्टैंड से पूरी तरह यू-टर्न ले चुके हैं. दोनों की तुलना करें तो उनके मन की बात एक जैसी सुनायी देती हैं, भले ही एक NDA के भीतर हो और दूसरा बाहर.
अब तो ये पूरी तरह साफ हो चुका है कि नीतीश कुमार सेक्युलरिज्म का चोला हमेशा के लिए खूंटी पर टांग चुके हैं और अरविंद केजरीवाल की राजनीति हनुमान मंदिर के सामने खूंटा गाड़ कर बैठी हुई नजर आती है. नीतीश कुमार को अब 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम' जैसे स्लोगन से कोई परहेज नहीं है - और केजरीवाल तो चार कदम आगे बढ़ कर इंकलाब के साथ साथ ये नारे भी जोर जोर से लगाने लगे हैं.
बस देखते जाइए आने वाले चुनावों में एक तरफ अरविंद केजरीवाल हनुमान चालीसा पढ़ते देखने को मिलेंगे और वहीं मंच पर उनके भाषण के आगे और पीछे सुंदरकांड का पाठ भी चल रहा होगा. अरविंद केजरीवाल के पास अपनी नयी नवेली और दिल्ली में जम चुकी पार्टी थी, सिंधिया के पास ऐसा कुछ नहीं था. नयी पार्टी खड़ा करना मुश्किल था - इसलिए बगैर किसी एक्स्ट्रा कोशिश के सीधे छलांग लगायी और गले से पुराना गमछा उतार कर भगवा पहन लिया.
नीतीश कुमार और केजरीवाल की राजनीति को देखते हुए, सिंधिया को भी समझ आ चुका था कि रास्ता वही पकड़ो जो लंबा चले. राजनीति वैसी ही करो जो टिकाऊ हो. राजनीति वही करो जो लोक लुभावन लग रहा हो. राजनीतिक दल और विचारधारा राहुल गांधी की मजबूरी हो सकती है, सिंधिया तो कांग्रेस फकीर बन चुके थे. झोला उठाये और बीजेपी में पहुंच गये.
कांग्रेस और बीजेपी की लाइन से दूरी बना कर दो और भी मुख्यमंत्री मैदान में डटे हुए हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक तो बस इतना चाहते हैं कि कोई उनके घर को न छेड़े वो दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने वाले नहीं हैं. पटनायक वाली छोर पर ही ममता बनर्जी भी खड़ी हैं, लेकिन उनमें आम चुनाव के बाद काफी बदलाव आ चुका है. दरअसल, आम चुनाव में भी नवीन पटनायक के लिए ओडिशा ही अहमियत रखता था और वो अपना किला बचाने में जुटे रहे, जबकि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में शुमार समझी जा रही थीं. अब वो भी अपना किला बचाने के लिए हर जतन कर रही हैं.
नीतीश कुमार के बाद जब से अरविंद केजरीवाल ने पॉलिटिकल लाइन बदली है ममता बनर्जी तो कुछ ज्यादा ही पूजा-पाठ में यकीन करने लगी हैं. सिर्फ दुर्गा पूजा की कौन कहे, ममता बनर्जी तो सरस्वती पूजा पर तीन दिन की छुट्टी और होली, रक्षाबंधन और छठ पूजा दो-दो दिन की छुट्टी मंजूर करने लगी हैं.
बाकी सब कौन सोचे, अब तो ममता बनर्जी भी पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक कट्टरता महसूस करने लगी हैं. कूच बिहार में तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक बैठक ममता बनर्जी को कहते सुना गया, 'मैं देख रही हूं कि अल्पसंख्यकों के बीच भी कई कट्टरपंथी सिर उठाने लगे हैं. ठीक उसी तरह से जैसे हिंदुओं के बीच भी कुछ कट्टरपंथी हैं...'
हिंदू कट्टरता को लेकर ममता बनर्जी का रिएक्शन 'जय श्रीराम' के नारे पर ही देखा जा चुका है, लेकिन उनके मुंह से 'अल्पसंख्यक कट्टरता' जैसे शब्द सुनना ही अपनेआप बहुत कुछ कह रहा है. वजह साफ है ममता बनर्जी के चुनाव रणनीतिकार भले ही CAA-NRC-NPR पर केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व को कठघरे में खड़ा करते हुए विपक्ष को लामबंद करने की कोशिश करें, लेकिन अपने क्लाइंट के लिए कोई रिस्क नहीं लेना चाहते - ये भी साफ है.
ये सच है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में हाशिये पर महसूस करने लगे थे, लेकिन धारा 370 को लेकर बने माहौल में ही वो भविष्य की राजनीति का अंदाजा लगा चुके थे - और उसी लाइन पर आगे बढ़ते हुए वहां तक पहुंचे हैं जहां अभी वो खड़े नजर आ रहे हैं.
इन्हें भी पढ़ें :
सिंधिया ने कांग्रेस नेतृत्व को भूल सुधार का बड़ा मौका दिया है - और ये आखिरी है!
सोनिया गांधी ने तो सचिन पायलट को भी सिंधिया बनने के लिए छोड़ दिया
Kamalnath के इमोशनल कार्ड बता रहे हैं कि सरकार बचाने के लिए सियासी दांव बचे नहीं
आपकी राय