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Updated: 29 अप्रिल, 2017 11:57 AM
राकेश चंद्र
राकेश चंद्र
  @rakesh.dandriyal.3
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'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' कहावत तो देश के हर राज्य में लगभग सही साबित होती दिख रही है. देश एक नए युग में प्रवेश कर रहा हैं. देश में सकारात्मकता का माहौल है, लेकिन भारत के माथे का सरदर्द आज भी बरकरार है. देश का एक राज्य संवाद के आभाव में मोदी जी के साथ होने के बाबजूद दूर होता जा रहा है. जी हां हम बात कर रहे हैं जम्मू और कश्मीर की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब से सत्ता की बागडोर संभाली है तब से अब तक कई बार वे जम्मू और कश्मीर की यात्रा कर चुके हैं. वहां उनकी पीडीपी के साथ साझा सरकार भी चल रही है, फिर भी स्थिति जस की तस.

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जनता लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव 'चुनाव' से दूर, बच्चा-बच्चा अलगावादी. पुलिस के जवान सहमे और डरे हुए, नेता डरे हुए हैं, आतंक की ढाल जनता, इन सब के बाबजूद भी केंद्र और राज्य सरकार अपने अंगद रूपी पैर पर टस ना मस. आतंकी जनता को ढाल बनाकर किस तरह अपने मंसूबों में सफल हो रहे हैं उसका ताजा उदाहरण कल कश्मीर में देखने को मिला, और यही नक्सली हमले में भी देखने को मिला. सरकार जब पूर्वोत्तर में शांति स्थापित करने के लिए नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के साथ शांति समझौते कर सकती है तो अलगाववादियों से क्यों नहीं.

हाल फिलहाल की खबरों पर अगर नजर डालें तो साफ है कि पाकिस्तान कश्मीर में अपने मंसूबों को पूरा करने में सफल हो रहा है, इसका कारण रही हमारी संवाद प्रक्रिया का न होना. कुछ समय के लिए नोटबंदी के बाद आतंकी घटनाओं में कमी जरूर आई थी. परन्तु जिस प्रकार कल कश्मीर में फिर से सेना पर हमला हुआ उससे तो लगता है कि आतंकी अपने मंसूबों में सफल होते दिख रहे हैं. रही बात सेना व अर्धसैनिक बलों की, तो वे तो अपना फर्ज बखूबी पूरा कर रहे हैं. आखिर कब तक केंद्र और राज्य की जनता की चुनी हुई सरकारें आतंक के मामले में अपनी आखें मूंदी रखेंगी? शायद राज्य की चुनी हुई सरकार तो बंधक बन गई है. उसके लिए तो अब न घूंटते बनता हैं न थूकते.

बातचीत एक मात्र रास्ता

भारत में भारतीय लोगों से बात होने पर किसी को क्या ऐतराज हो सकता है. कश्मीर समस्या का अगर कोई समाधान है तो वह है बातचीत, अलगाववादियों एवं पाकिस्तान से. खैर पाकिस्तान तो बेपेंदी का लोटा है, कब किधर लुढ़क जाए पर कश्मीरी तो हमारे हैं उन्हें तो समझाया जा सकता है, लेकिन फिलहाल ये सभी रास्ते बंद हैं.

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तो क्या हमें वाजपेयी जी की कश्मीर नीति 'इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत' पर भी विश्वास नहीं रहा. तब वाजपेयी जी ने कहा था, "हम लोग यहां आपके दुख और दर्द बांटने आए हैं. आपकी जो भी शिकायतें हैं, हम मिलकर उसका हल निकालेंगे. आप दिल्ली के दरवाजे खटखटाएं. दिल्ली की केंद्र सरकार के दरवाजे आपके लिए कभी बंद नहीं होंगे. हमारे दिलों के दरवाजे आपके लिए हमेशा खुले रहेंगे."

तो क्या आज ये सभी रास्ते बंद हैं, लेकिन आखिर कब तक, कब तक हम अपने लोगों को मरता-पिटता देखेंगे. पिछले तीन सालों की अगर बात करें तो कश्मीर में खासकर आतंकवाद की स्थिति जस के तस है, बल्कि आतंकी हमलों में वृद्धि ही हुई है. कश्मीरियत की हवा एक नई दिशा की ओर बह चली है.

कुपवाड़ा में सेना के कैंप पर फिदायीन हमला हुआ. इस हमले में सेना ने अपने तीन बहादुरों को खो दिया. कुपवाड़ा में गुरुवार के दिन पंजगाम में सेना के कैंप पर फिदायीन हमला हुआ. हमले में सेना ने अपने तीन बहादुर सैनिक दिए. पुत्र को खो देने के बाद एक पिता की प्रतिक्रिया देखिये. सरकार की पॉलिसी की वजह से ही मेरा बेटा शहीद हुआ. सीमा पर लड़कर शहीद होता तो मुझे दुख नहीं होता. जम्मू-कश्मीर में हालात ऐसे बन गए हैं जिसपर सरकार ध्यान ही नहीं दे रही है.

पिछले चार सालों की अगर बात करें तो अब तक जम्मू और कश्मीर में आतंकी घटनाओं में वृद्धि हुई है और मारे जाने वाले सैनिकों की भी तादाद बढ़ी है.

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इस साल अब तक तकरीबन 13 सुरक्षा कर्मी अपना बलिदान दे चुके हैं. जबकि आतंकवादियों की संख्या लगभग 41 रही.

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लेखक

राकेश चंद्र राकेश चंद्र @rakesh.dandriyal.3

लेखक आजतक में सीनियर प्रोड्यूसर हैं

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