आतंक और नक्सलवाद से आगे...
सीमा और नियंत्रण रेखा पर हम पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों को रोक सकते हैं लेकिन घाटी में लोगों के दिलो-दिमाग में आने वाले आतंकियों को कैसे रोकेंगे?
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सुकमा में सीआरपीएफ के जवानों पर नक्सली हमला और कश्मीर में अलगाव के उठते पत्थर. हिंसा की ये लपटें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए किसी दु:स्वपन से कम नहीं हैं. लेकिन क्या हर एक दु:स्वपन अगले दु:स्वपन तक भुला दिये जाने के लिए होते हैं? अगर नहीं तो आज जरूरत है कि इन सवालों पर देश गंभीरता से सोचे.
ऐसी मुश्किल समस्याओं का हल आवेश और आक्रोश की बंदूक से नहीं निकलेगा. इसके लिए देश के सभी राजनीतिक दलों को अपने दलीय विमर्शों को छोड़कर एक समान मानस बनाना होगा. आज जम्मू और कश्मीर में पीडीपी और बीजेपी की सरकार है. उनके लिए कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस देश तोड़ने वाले संगठन लगते होंगे. खासकर नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारुक अब्दुल्ला के पत्थरबाजों के समर्थन में आने के बाद. लेकिन क्या एक-दो बयानों से बाहर निकलकर कश्मीर से जुड़े सभी दल एक साथ मिल बैठ नहीं सकते?
15 साल पहले जब मैं रिपोर्टिंग करता था, उस वक्त आज के वित्त मंत्री अरुण जेटली फारुक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला की जमकर तारीफ करते थे. तब फारुक की पार्टी एनडीए का हिस्सा थी. आज पार्टनर बदला तो उसके लिए बयान बदल लेने से समस्या और उलझेगी, सुलझेगी नहीं. ये नहीं हो सकता कि जब फारुक अब्दुल्ला राम भजन गाएं तो राष्ट्रवादी हो जाएं और पत्थरबाजों के पक्ष में बयान दे दें तो राष्ट्रविरोधी.
2001 में अलग अलग आतंकी हमलों के आरोप में श्रीनगर के 28 साल के गुलजार अहमद वानी को यूपी और दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया. उस वक्त वानी पीएचडी कर रहा था. 16 साल तक वो सलाखों के पीछे रहा. अब सुप्रीम कोर्ट ने उसे 11 में से 10 मामलों में बाइज्जत रिहा कर दिया है और यह कहते हुए कि ये शर्मनाक है कि पुलिस 11 में से 10 मामलों में कोई सबूत नहीं जुटा पाई. आज वानी 44 साल का है. उसकी जिंदगी हमारी पुलिस और सिस्टम के दिमाग में भरे आतंक की भेंट चढ़ गई. ये समस्या सिर्फ एक वानी की नहीं है. बल्कि ऐसे तमाम नौजवान हैं, जिन्हें लंबे समय तक जेल में बंद करके सरकारी मशीनरी आतंकवाद की समस्या का हल निकालना चाहती है.
कश्मीर पर नेहरू की नीतियों को आज बहुत कोसा जाता है. लेकिन कोसने से आगे का रास्ता क्या है? जब आजादी मिली तो कश्मीर में राजा हिंदू था और प्रजा मुसलमान. हिंदू राजा हिंदुस्तान में रहने को राजी नहीं था, वो अपने लिए स्वतंत्र राज्य चाहता था. लेकिन वहां की मुस्लिम प्रजा ने जिन्ना के पाकिस्तान में नहीं, गांधी के हिंदुस्तान में रहने का फैसला किया. क्या उसी फैसले की बुनियाद पर कश्मीर की मुश्किलों का हल नहीं ढूंढ़ा जाना चाहिए?
कश्मीर सिर्फ भूमि का टुकड़ा नहीं है. वो भारत के लिए राष्ट्रीयता की सबसे बड़ी परख है, लेकिन इस परख को अगर राष्ट्रवाद के उन्माद की प्रयोगशाला बनाया जाएगा तो मुश्किलें और बढ़ेंगी. अगर वहां उप चुनाव में 7 और 2 फीसदी वोट पड़ते हैं तो सोचिए कि कश्मीर कैसे हमारी मुट्ठी से फिसल रहा है. इसीलिए आज विमर्श का मुद्दा ये नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में राज किसका चलेगा, महबूबा मुख्यमंत्री रहेंगी या राज्यपाल शासन लागू होगा. मुद्दा यह है कि कश्मीर कैसे बचेगा. और उसको बचाने के लिए अगर विरोधी विचारधारा के किसी राजनेता की भी सुननी पड़े तो सुनना चाहिए. देश चलाने के लिए हमेशा बाहुबल नहीं दिखाया जाता,कई बार मिन्नत भी करनी पड़ती है.
राष्ट्रीय सवालों और चुभते मुद्दों को हम हमेशा लेन-देन की तराजू पर नहीं तौल सकते. अगर यह सोचें कि कश्मीर में हर पत्थर उठाने वाले को पाकिस्तान की शह पर काम करने वाला देशद्रोही बताकर हम वहां अमन-चैन ला सकते हैं तो ये एक धोखा है. यह मूर्खों के स्वर्ग में विचरण करने के समान होगा. मैं जानता हूं कि यहां सवाल उठेगा कि क्या हमारे जवानों का खून पानी है जो उसे बहने दिया जाए और पत्थरबाज हमारा खाकर हमीं पर हाथ उठाएंगे, हमारा ही खून बहाएंगे. तो इसका जवाब ये है कि जब तक विश्वास का माहौल नहीं बनेगा, हमारी सारी शक्ति, पराक्रम, पुरुषार्थ, बाहुबल और यौद्धिक साधनों के बावजूद हम ना तो आम लोगों का खून बहना रोक सकते हैं, ना अपने जांबाज जवानों का. जवानों की रक्षा के लिए भी राज कौशल का बेहतर होना आवश्यक है.
सीमा और नियंत्रण रेखा पर हम पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों को रोक सकते हैं लेकिन घाटी में लोगों के दिलो-दिमाग में आने वाले आतंकियों को कैसे रोकेंगे? दरअसल होता है कि जैसे ही राजनीति का गोलपोस्ट बदलता है, नेताओं की जुबान और उनकी करनी भी उसी हिसाब से बदलने लगती है. साथ ही भावुकता की लेप चढ़ाकर इतनी गंभीर समस्या को भी देशभक्ति का पैमाना बना दिया जाता है. इससे समस्याएं बद से बदतर होती चली जाती हैं.
आतंक जैसा ही संकट नक्सली समस्या से भी उपजा है. यहां भी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी राजनीतिक दलों को एक प्लेटफॉर्म पर खड़ा होना होगा. ये नहीं हो सकता कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कुछ और नीति बनाएं और ओडीसा में नवीन पटनायक कुछ और. बिहार में नीतीश कुमार अपनी डफली बजाएं और झारखंड में रघुवर दास का अपना राग हो. आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की नक्सल नीति अलग हो और तेलंगाना में चंद्रशेखर राव की अलग. छत्तीसगढ़ में रमन सिंह का रास्ता अलग हो और महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़णवीस का अलग. यह भी नहीं हो सकता कि केंद्र जब चाहे तब यह कहकर अपना पल्ला झाड़ ले कि कानून-व्यवस्था राज्य सरकार का मामला है और जब चाहे तब बड़े भाई की भूमिका निभाने लगे. अपनी राजनीतिक सुविधा से ऊपर उठने का वक्त आ गया है. और इस तरह के दावों से भी ऊपर उठने का वक्त आ गया है कि सरकार का कोई फैसला एक झटके में आतंकवादियों या नक्सलियों की कमर तोड़ देगा. कागज के रद्दी टुकड़ों पर उमड़ा आत्मविश्वास वोट दिला सकता है लेकिन हर बीमारी का वो इलाज नहीं हो सकता.
साथ ही यह भी नहीं होना चाहिए कि अगर कोई वैचारिक तबका नक्सल समस्या को आर्थिक-सामाजिक मुद्दे के रूप में देखता है तो उसको एक सिरे से नकार दिया जाए. इसमें दिक्कत ये होती है कि हम समस्या का दीर्घकालिक हल निकालने की इच्छा शक्ति खो देते हैं.
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