केजरीवाल के पास राजस्थान में पंजाब जैसा मौका, बशर्ते गुजरात से कुछ सबक लिया हो
राजस्थान में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) कांग्रेस के पुराने झगड़े पर नये सिरे से काबू पाना चाहते हैं, जबकि वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) बीजेपी की जन आक्रोश यात्रा के बीच अपनी ताकत दिखाने की कोशिश में हैं - और अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) मौके का फायदा उठाने की फिराक में.
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अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के पास राजस्थान में भी मौका है. करीब करीब पंजाब जैसा. गुजरात में भी थोड़ा मौका था, लेकिन बस वहीं जहां कांग्रेस मजबूत हुआ करती थी. गुजरात चुनाव में केजरीवाल का चमत्कार दिखा, कांग्रेस कई इलाकों से साफ हो गयी.
ये केजरीवाल के विरोध का वो तरीका है, जिसमें बीजेपी को फायदा होता है. ये सिलसिला तभी से चल रहा है जब से अरविंद केजरीवाल राजनीति में आये हैं. आम आदमी पार्टी को चाहे जैसी भी उम्मीद रही हो, लेकिन गुजरात में केजरीवाल एंड कंपनी कोई खास गुल नहीं खिला पायी - निश्चित तौर पर अरविंद केजरीवाल को गुजरात से काफी सबक मिले होंगे.
फिर तो मान कर चलना चाहिये कि राजस्थान में भी अरविंद केजरीवाल पंजाब और गुजरात के सबसे कारगर नुस्खों को अपनाएंगे. हालांकि, राजस्थान से पहले कर्नाटक चुनाव भी आम आदमी पार्टी को ऐसे परीक्षण का मौका देने वाला है.
राजस्थान कांग्रेस के उस मॉडल में भी पूरी तरह फिट हो रहा है, जिसमें माना जाता है कि केजरीवाल की पार्टी कांग्रेस को डैमेज कर उसकी जगह लेने की कोशिश करती है. भले ही AAP के नवनियुक्त संगठन महासचिव संदीप पाठक ऐसी बातों से इनकार करें, लेकिन दिल्ली के बाद पंजाब में केजरीवाल की जीत अपनेआप में सबूत है. वैसे पंजाब की जीत में संदीप पाठक का काफी योगदान भी रहा है, और गुजरात में भी वो मुख्य चुनाव रणनीतिकार की भूमिका में रहे. गुजरात में आम आदमी पार्टी को करीब 13 फीसदी वोट मिले और विधानसभा में पांच सीटें भी.
राजस्थान में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के लिए बड़ा मौका इसलिए भी है क्योंकि सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी भी वैसे ही झगड़े से जूझ रही है. कांग्रेस नेतृत्व अगर मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की राजनीति से जूझ रहा है, तो बीजेपी नेतृत्व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) के शक्ति प्रदर्शन से.
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने तो अपनी तरफ से भारत जोड़ो यात्रा के तहत राजस्थान में गहलोत-पायलट जोड़ो अभियान ही चला रखा है. पहले एक खास मैसेज लेकर कांग्रेस आलाकमान के फरमान के साथ संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल पहुंचे थे - और जब से राहुल गांधी पहुंचे हैं अशोक गहलोत और सचिन पायलट को वैसे ही एकजुट रखने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान बाइक पर बिठा कर घुमा रहे थे.
अशोक गहलोत के रुख से लगता है कि वो हकीकत को ज्यादा करीब से देख रहे हैं, लेकिन सचिन पायलट बार बार यही कहते आ रहे हैं कि सभी की कोशिश कांग्रेस की सत्ता में वापसी की होनी चाहिये - प्रियंका गांधी को साथ लेकर राहुल गांधी का जो एक्शन देखने को मिल रहा है, ऐसा लगता है जैसे वो सचिन पायलट की बातों को एनडोर्स करने का प्रयास कर रहे हों.
कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के मकसद से बीजेपी की तरफ से जनाक्रोश यात्रा चल रही है. देख कर तो ऐसा लगता है जैसे वसुंधरा राजे को जन आक्रोश यात्रा से अलग रखा गया हो, या फिर वो खुद को अलग करके चल रही हों - लेकिन तभी ये भी समझ में आ जाता है कि वो तो अलग ही अपनी यात्रा निकालने की तैयारियों में जुटी हुई हैं.
ये कहना और समझना तो मुश्किल हो रहा है कि ज्यादा उठापटक कांग्रेस में मची है, या बीजेपी के भीतर - लेकिन राजस्थान की राजनीति के ये हालात ही अरविंद केजरीवाल के लिए घुसपैठ का अच्छा मौका दे रहे हैं - सवाल यही है कि अरविंद केजरीवाल राजस्थान में मिल रहे मौके का फायदा उठा सकते हैं क्या?
गुजरात, हिमाचल प्रदेश और एमसीडी चुनाव के बाद नंबर तो कर्नाटक का आता है, लेकिन आम आदमी पार्टी में राजस्थान चुनाव की तैयारी भी अभी से शुरू हो गयी है. 18 दिसंबर को आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है, राजस्थान के एक्शन प्लान पर मुहर भी तभी लगेगी - और उसके बाद कुछ पार्टी सांसद और विधायकों की एक टीम राजस्थान भेजी जा सकती है.
अक्टूबर, 2022 में ही अरविंद केजरीवाल का भी दो दिन का राजस्थान दौरे का कार्यक्रम बना था, लेकिन गुजरात और एमसीडी चुनाव की वजह से टाल दिया गया - कार्यकारिणी की बैठक के बाद ही अरविंद केजरीवाल के भी राजस्थान दौरे की संभावना जतायी जा रही है.
कांग्रेस के झगड़े पर नजर
कांग्रेस के भीतर और बाहर दोनों जगह एक कॉमन चर्चा है, वो ये कि राहुल गांधी राजस्थान से निकलते अशोक गहलोत और सचिन पायलट का झगड़ा खत्म करने की कोशिश जरूर करेंगे. शुरुआत तो भारत जोड़ो यात्रा के राजस्थान में प्रवेश करते ही 4 दिसंबर को ही हो गयी थी - जब राहुल गांधी ने आदिवासियों के साथ अशोक गहलोत और सचिन पायलट का हाथ पकड़ कर डांस कराया. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ भी हाथ पकड़े हुए थे.
बेशक राजस्थान में अरविंद केजरीवाल के लिए पंजाब जैसा मौका है, लेकिन मामला बिलकुल वैसा ही नहीं है
और उसके बाद से राहुल गांधी की हरदम कोशिश यही देखने को मिली कि दोनों आपस में साथ साथ और उनके आस पास नजर आयें. तभी हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा इवेंट आया, मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू के शपथग्रहण का. लेकिन राहुल गांधी ने तब भी गहलोत-पायलट का साथ न छूटने देने का इंतजाम कर डाला.
#WATCH | Congress MP Rahul Gandhi, Rajasthan CM Ashok Gehlot & party leaders Sachin Pilot and Kamal Nath take part in a tribal dance in Jhalawar, Rajasthan. pic.twitter.com/18NgWYrWrk
— ANI (@ANI) December 4, 2022
भारत जोड़ो यात्रा के रात्रि विश्राम के दौरान भी राहुल गांधी ने अशोक गहलोत और सचिन पायलट को बिछड़ने का मौका नहीं दिया. सुखविंदर सुक्खू के शपथग्रहण के लिए भी चार्टर विमान में एक ही साथ शिमला भी लेते गये. जाहिर है, साथ वापस लाने का भी पहले से ही कार्यक्रम तय था.
सचिन पायलट के लिए तो शिमला जाना विजय यात्रा जैसा ही सुख देने वाला रहा होगा. पायलट के पास हिमाचल प्रदेश में ऑब्जर्वर वाली वैसी ही जिम्मेदारी रही, जैसी अशोक गहलोत के पास गुजरात में. उसी अंदाज में समझें तो अशोक गहलोत गुजरात हार चुके थे, सचिन पायलट हिमाचल प्रदेश जीत चुके थे.
गुजरात चुनाव के दौरान ही अशोक गहलोत ने एक बार फिर से सचिन पायलट को गद्दार कह डाला था. कांग्रेस के रणनीतिकार पहले ही समझ चुके थे कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राजस्थान में राहुल गांधी के लिए ऐसे सवालों से बचना काफी मुश्किल होगा. लिहाजा यात्रा पहुंचने से पहले ही कांग्रेस महासचिव राजस्थान पहुंच गये - और दोनों को खामोश रहने को बोल दिया. सचिन पायलट तो पहले से ही संयम बरत रहे थे, अशोक गहलोत भी सारी मनमानी कर ही चुके थे, लिहाजा चुप रहने में ही भलाई समझी होगी.
सचिन पायलट और अशोक गहलोत को साथ दिखा कर राहुल गांधी सिर्फ लोगों की नजरों के सामने पर्दा डाल सकते हैं - भीतर का भारी झगड़ा तो जगजाहिर पहले से ही है. जब तक कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं होती, कुछ भी नहीं होने वाला है.
बीजेपी भी उलझी हुई है!
वसुंधरा राजे के समर्थक बूंदी में उनके बर्थडे पर यथाशक्ति अपनी ताकत तो दिखा ही चुके हैं, वैसा ही अगला शक्ति प्रदर्शन पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर 25 दिसंबर को होने जा रहा है. कोटा के उम्मेद सिंह स्टेडियम में विजय संकल्प महाधिवेशन की तैयारी शुरू हो चुकी है.
ध्यान देने वाली बात ये है कि वसुंधरा राजे की तरफ से ये तैयारी ऐसे वक्त की जा रही है जब बीजेपी राजस्थान के 200 विधानसभा क्षेत्रों में जन आक्रोश यात्राएं निकाल रही है. और खास बात ये है कि बीजेपी की जन आक्रोश यात्रा में वसुंधरा राजे और उनके समर्थक दूर दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं.
बीजेपी की मुश्किल ये है कि जन आक्रोश यात्रा भी विवादों से नहीं बच पा रही है. जयपुर की एक सभा में मंच पर माइक की छीनाझपटी का वीडियो वायरल हो चुका है - और बीजेपी जैसे तैसे नेताओं की नोकझोंक बता कर बवाल खत्म करने की कोशिश कर रही है. हुआ ये था कि बीजेपी सांसद दीया कुमारी ने अपना भाषण खत्म करने के बाद पास में खड़े मनीष पारीक को दे दिया. लेकिन बगल में खड़े पूर्व विधायक मोहनलाल गुप्त बर्दाश्त नहीं कर पाये और मनीष पारीक से माइक छीन कर खुद भाषण देने लगे.
राजस्थान के कोटा को जनसंघ के जमाने से ही बीजेपी का गढ़ माना जाता रहा है, जिसे वसुंधरा राजे के समर्थक ताकत दिखाने का मंच बनाने की कोशिश कर रहे हैं. कोशिश तो वसुंधरा समर्थकों की ये भी है कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी विजय संकल्प महाधिवेशन में आयें. वसुंधरा के संघ कनेक्शन भी मजबूत माने जाते हैं - और कार्यक्रम की जगह भी उसी हिसाब से चुनी गयी है. ऊपर से पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी का नाम भी जोड़ दिया गया है. नड्डा के लिए कार्यक्रम में शामिल होने या दूरी बनाने का फैसला लेना मुश्किल हो सकता है.
वसुंधरा राजे समर्थक बीजेपी विधायक प्रह्लाद गुंजल ने प्रेस कांफ्रेंस में दावा किया कि महा अधिवेशन में लाखों की भीड़ जुटने जा रही है. प्रह्लाद गुंजल की बातों से ज्यादा मीडिया की दिलचस्पी ये जानने में रही कि जो व्यवहार वसुंधरा राजे का खेमा जन आक्रोश यात्रा के साथ करने वाला है, वैसा ही राजस्थान बीजेपी के नेता भी करने वाले हैं क्या?
प्रह्लाद गुंजल का कहना रहा, कार्यक्रम के दो महीने पहले ही प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष सतीश पूनियां को आमंत्रित किया जा चुका है. साथ ही, प्रदेश बीजेपी से प्रस्तावित कार्यक्रम की स्वीकृति भी ली जा चुकी है - और ये भी बताया कि बीजेपी के राजस्थान प्रभारी अरुण सिंह सहित राष्ट्रीय स्तर के कई नेताओं को भी कार्यक्रम का न्योता भेजा गया है.
देखा जाये तो 2023 के विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही में हरकतें शुरू हो चुकी हैं, लेकिन तनातनी का माहौल करीब करीब एक जैसा ही है - ऐसे में अगर अरविंद केजरीवाल अपने लिए मौका देखते हैं तो ठीक ही है.
...और यही तो आप के लिए मौका है
2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 0.4 फीसदी वोट मिले थे. ठीक उससे साल भर पहले 2017 के गुजरात चुनाव अरविंद केजरीवाल की पार्टी का वोट शेयर 0.1 फीसदी दर्ज किया गया था.
अब तो बहुत कुछ बदल चुका है. गुजरात में आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 13 फीसदी पहुंच चुका है. पांच नेता विधानसभा भी पहुंच चुके हैं - और दिल्ली के साथ साथ पंजाब में भी सरकार बन ही चुकी है. निश्चित तौर पर सौ से ज्यादा सीटों पर आप के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो चुकी है, लेकिन गुजरात की 35 सीटों पर आप के उम्मीदवार दूसरे स्थान पर भी पाये गये हैं.
ये भी आंकड़े ही बताते हैं कि ऐसी सीटों पर आप और कांग्रेस उम्मीदवारों को मिले वोट जोड़ दिये जायें तो बीजेपी के खाते में पड़े वोट कम पड़ जाते हैं. मतलब, आप की गैरमौजूदगी में नतीजे काफी अलग हो सकते थे - आंकड़े तो यही इशारा करते हैं कि राजस्थान में भी ये दोहराया जा सकता है. और ये भी कि आम आदमी पार्टी की नजर राजस्थान के 45 से 50 सीटों पर हो सकती है.
आप नेता विनय मिश्रा का मानना है कि कांग्रेस और बीजेपी की लड़ाई से सीधे आम आदमी पार्टी को फायदा होने जा रहा है. विनय मिश्रा का दावा है कि कोशिश तो पूरे राजस्थान को लेकर हो रही है, लेकिन आम आदमी पार्टी को अच्छा रिस्पॉन्स श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ के अलावा अलवर और जयपुर के लोगों के बीच मिल रहा है.
ये तो मान कर चलना चाहिये कि गुजरात की तरह ही बीजेपी नेतृत्व अरविंद केजरीवाल को लेकर राजस्थान में भी पहले से ही अलर्ट होगा. कांग्रेस नेताओं का दावा है कि आम आदमी पार्टी के पास राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे नेता नहीं हैं. ऐसे में अरविंद केजरीवाल को राजस्थान में भी निराश हो सकता है. जैसे हिमाचल प्रदेश में होना पड़ा है. हालांकि, कांग्रेस ये भूल रही है कि हिमाचल प्रदेश में उसको सत्ता विरोधी फैक्टर का फायदा भी मिला है, और राजस्थान कांग्रेस को अपने खिलाफ ही उससे जूझना है.
ये ठीक है कांग्रेस के कुछ नेताओं के मन में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के साथ होने की गलतफहमी होने लगी है. निश्चित तौर पर क्रेडिट राहुल गांधी को ही जाता है. ये भी ठीक है कि 2018 में कांग्रेस को सत्ता में लाने में बड़ी भूमिका सचिन पायलट की ही रही. पिछले विधानसभा चुनाव से पहले वाले उपचुनावों से भी हवा का रुख बदल चुका था. सत्ता में होने के बावजूद बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ रहा था - लेकिन विधानसभा चुनाव कांग्रेस के जीतने और अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद चीजें धीरे धीरे बदलने लगीं. अशोक गहलोत धीरे धीरे सचिन पायलट को बाहरी, अंग्रेजी बोलता दिल्ली वाला टाइप पेश करने लगे - और लोगों के मन में कुछ हद तक ये भावना भी समाने लगी.
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या राजस्थान के लोग पंजाब की जनता की तरह आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल को अपना पाएंगे? पंजाब और दिल्ली का तो काफी कुछ मिलता जुलता भी है - 1984 का सिख दंगा तो पंजाब और दिल्ली को सीधे कनेक्ट भी कर देता है.
अरविंद केजरीवाल ने काफी हद तक पंजाब में तात्कालिक राजनीतिक समीकरणों का पूरा फायदा उठाया था. बिलकुल वैसी ही तो नहीं, लेकिन कुछ हद तक मिलती जुलती हालत अभी राजस्थान में भी बनी हुई है. लेकिन उसके लिए जो जरूरी शर्त है, राजस्थान के लोगों से कनेक्ट होने की, अरविंद केजरीवाल की राह में सबसे बड़ी बाधा भी वही है. हरियाणा का होने के बावजूद अरविंद केजरीवाल ने पिछली बार खुद को पंजाब से जोड़ कर पेश करने की कोशिश की थी, लेकिन दाल नहीं गली.
और यही सोच कर इस बार केजरीवाल ने पहले ही भगवंत मान को आप के सीएम चेहरे के तौर पर पेश कर दिया था. पंजाब जैसा ही प्रयोग केजरीवाल ने गुजरात में ईशुदान गढ़वी को सामने खड़ा कर किया था - लेकिन वहां तो मामला बिलकुल ही अलग था.
गुजरात में चुनाव बीजेपी चुनाव तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ रही थी - और मल्लिकार्जुन खड़गे के रावण से तुलना कर देने के बाद तो मोदी के मान की बात होने लगी थी. पंजाब में भी मोदी जरूर थे, लेकिन गुजरात की तरह भावनाएं नहीं जुड़ी हुई थीं. राजस्थान के मामले को भी इसी नजर से देखना होगा.
ये तो मान कर चलना होगा कि राजस्थान में भी अरविंद केजरीवाल किसी लोकल लीडर को सामने खड़ा करेंगे, लेकिन भगवंत मान ये भी नहीं भूलना चाहिये कि वो अपने बूते दूसरी बार सांसद बने थे. फायदा तो उसका भी मिला ही - और नुकसान को ऐसे भी तौल सकते हैं कि भगवंत मान के संगरूर संसदीय सीट छोड़ते ही सिमरनजीत सिंह मान उस पर काबिज हो गये.
हो सकता है, अरविंद केजरीवाल को राजस्थान में भी हिमाचल प्रदेश की तरह निराश होना पड़े या फिर गुजरात की तरह वो सांत्वना पुस्कार हासिल भी कर लें - लेकिन 2024 की लड़ाई लड़ने में तो ऐसे प्रयास मील का पत्थर साबित हो ही सकते हैं.
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